बात 2011 के किसी वक्त की है. बीजेपी के नेता और उस वक्त की लोकसभा के नेता-प्रतिपक्ष लालकृष्ण आडवाणी अपने चैम्बर में बैठे बरसों के दोस्त और सियासत के साथी जॉर्ज फर्नांडिज के आने की राह देख रहे थे. फर्नांडिज अपनी पत्नी लैला कबीर और कुछ सहायकों की मदद से चैम्बर मे पहुंचे, उनकी चाल से कमजोरी झलक रही थी.
आडवाणी ने उनकी तरफ गहरे सोच की मुद्रा में देखते हुए पूछा, 'क्या आप मुझे पहचान पा रहे हैं, जॉर्ज?' फर्नांडिज के चेहरे पर पहचान के भाव नहीं उभरे. निराश आडवाणी ने अफसोस के स्वर में कहा, 'देखिए जॉर्ज, मैं बड़ी विचित्र हालत में हूं. मैं अटल जी और जसवंत जी से बात नहीं कर सकता. अब आप भी मुझे नहीं पहचान पा रहे हैं.' ( वाजपेयी का पिछले साल अगस्त में स्वर्गवास हुआ, वे लगभग एक दशक तक रोगी की दशा में बिस्तर पर पड़े रहे और ऐसी अवस्था में किसी को पहचान नहीं पा रहे थे. जसवंत सिंह भी ऐसी ही अवस्था में हैं.)
आडवाणी अब बस उम्मीद हारने ही वाले थे कि फर्नांडिज ने एक लम्हे के लिए अपनी याद्दाश्त पर जोर डाला और उनके मुंह से निकला, 'लाल-जी'. 'हां', खुशी से भरे आडवाणी बोल पड़े लेकिन यह खुशी बस चंद लम्हे की थी. फर्नांडिस फिर से अपनी पुरानी दशा (स्मृति-लोप) में चले गए.
ये बातें मैंने खुद आडवाणी के मुंह से सुनी हैं और आज आडवाणी और दुनिया जॉर्ज फर्नांडिस को चाहे जिन शब्दों में याद करे लेकिन उन्हें कमजोर कहकर याद नहीं कर सकती.
भारतीय राजनीति के दिग्गज नेताओं में शुमार थे जॉर्ज फर्नांडिज. इमरजेंसी के दौर में जेल में बंद जॉर्ज ने पिंजरे में कैद किसी शेर की भांति दहाड़ लगाई थी. जेल के भीतर हथकड़ियों में जकड़े हाथ वाली उनकी तस्वीर ने पूरे देश में हमदर्दी की एक लहर जगा दी थी. कर्नाटक के ईसाई परिवार में जन्मे जॉर्ज फर्नांडिस ने भारत के मूल भाव को आत्मसात किया था. क्षेत्र, धर्म और जाति की हदबंदियां जॉर्ज को नहीं बांध सकीं, उन्होंने ये सारे घेरे तोड़े. फर्नांडिस मुंबई, दिल्ली, बेंगलुरु, चेन्नई या कोलकाता में उसी तरह रहते थे जैसे बिहार के सुदूरवर्ती इलाके मुजफ्फरपुर, नालंदा या बाढ़ में. बिहार में उन्हें जॉर्ज फर्नांडिस 'महतो' कहा जाता था- ये उपनाम उन्हें नीतीश कुमार से जुड़ाव के कारण मिला जो कुर्मी जाति से आते हैं.
दरअसल, फर्नांडिस परिवार इमरजेंसी के दौर की ज्यादतियों का शिकार हुआ था. उनके भाई लॉरेंस फर्नांडिस को गिरफ्तार कर लिया गया था, उन्हें महीनों यातना दी गईं लेकिन इस दरम्यान हमारा जुझारू नेता पुलिस को चकमा देकर भूमिगत हो चुका था. उनका नाम बहुचर्चित बड़ौदा डायनामाइट मामले में उछला. सीबीआई ने उन पर अभियोग लगाया कि उन्होंने इमरजेंसी के विरोध में रेलवे ट्रैक और ऐसी ही सरकारी सुविधाओं को उड़ा डालने के लिए विस्फोटकों की तस्करी की है.
बड़ौदा डायनामाइट मामले में जॉर्ज फर्नांडिस पर लगा अभियोग दरअसल राजनीतिक विरोधियों को निशाना बनाने के लिए सरकारी एजेंसियों के दुरुपयोग की एक मिसाल था. तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने सीबीआई को उस वक्त पतन की राह पर ढकेल दिया था वह फिसलन अब भी जारी है.
इसमें कोई शक नहीं कि फर्नांडिस समाजवादी काट के उन नेताओं में से थे जो नामुमकिन को मुमकिन कर दिखाने का माद्दा रखते हैं. इमरजेंसी के बाद के दौर में बेशक वे एक नायक बनकर उभरे, उन्हें मोरारजी देसाई की सरकार में उद्योग मंत्री का पद मिला. फर्नांडिस मजदूर-आंदोलन की पृष्ठभूमि वाले नेता थे और उन्होंने इसी टेक पर महात्मा गांधी की स्वदेशी की अलख जगाते हुए कोका कोला सरीखे बहुराष्ट्रीय निगमों पर रोक लगाई.
एक तरह से देखें तो फर्नांडिस उन विरले नेताओं में एक थे जिनकी वाणी में सरस्वती का वास होता है-यह उनकी ताकत भी थी और कमजोरी भी. जनता पार्टी की सरकार के भीतर जिस दम बावेला मचा, चौधरी चरणसिंह ने मोरारजी देसाई के खिलाफ मोर्चा खोला- उस दम फर्नांडिस ने मोरारजी भाई की तरफ अपना झुकाव दिखाया. उन्होंने लोकसभा में मोरारजी देसाई की सरकार की तरफदारी में लंबा भाषण दिया. लेकिन इंदिरा गांधी की मदद से चरणसिंह ने जब सरकार बनाई तो उन्होंने पाला बदल लिया. सियासी जमीन पर फिसलन के इस एक लम्हे ने उनकी साख को जितनी चोट पहुंचाई उतनी शायद किसी और ने नहीं.
उनकी छवि एक ऐसे नेता की बन गई जिसके राजनीतिक विश्वास हमेशा डांवाडोल हालत में होते हैं. फर्नांडिस बेशक गैर-कांग्रेसवाद के समर्थक थे लेकिन इस एक बात को छोड़ दें तो फिर सत्ता हासिल करने के लिए उन्हें किसी भी गठबंधन से परहेज नहीं था. वे जनता दल की सरकार के वक्त वीपी सिंह के साथ थे और बाद में बिहार से लालू यादव को बेदखल करने के लिए बीजेपी के साथ हो लिए. दरअसल जिंदगी के बाद के सालों उनकी सियासी जमीन बिहार तक सिमट कर रह गई थी, वे लालू यादव के खिलाफ खड़े बिहारी नेताओं के करीब थे.
फर्नांडिस कद्दावर नेता थे और उन्हें धुरी बनाकर लालू-विरोधी सियासत चली. उन्होंने समता पार्टी बनाई, यह पार्टी आगे चलकर जनता दल (यूनाइटेड) में बदली और इसमें नीतीश कुमार सबसे बड़े नेता बनकर उभरे. साल 2004 के लोकसभा चुनावों के पहले तक जार्ज फर्नांडिस ने अपनी प्रासंगिकता बनाए रखी, हालांकि एनडीए के दायरे में वे हाशिये पर चले आए थे. जब 2004 में एनडीए सत्ता से बाहर हुई तो एक बार फिर से उन्हें रक्षा-सौदों के संदिग्ध मामलों में फंसाने के लिए सीबीआई का इस्तेमाल किया गया.
साल 2005 के बिहार विधानसभा चुनावों में वे अपनी सियासी पकड़ को बनाए रखने के लिए बहुत बेचैन दिखे. इसी वक्त तत्कालीन बीजेपी अध्यक्ष तथा नेता-प्रतिपक्ष लालकृष्ण आडवाणी ने नीतीश कुमार को एनडीए की तरफ से बिहार के मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित किया. फर्नांडिस शुरुआत में किसी को मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार बताने के पक्ष में नहीं थे लेकिन जनता के दबाव के आगे उन्हें भी हामी भरनी पड़ी. फर्नांडिस के लिए यह वक्त सियासत की दुनिया की एक बड़ी सच्चाई को महसूस करने का था कि राजनीति में हर बड़ा करिअर आखिरकार नाकामी के मुकाम पर खत्म होता है.
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