राजनेता चाहे कितना भी जहीन और फायदों के बारे में खूब सोच-समझकर फैसला लेने वाला हो, उसके सामने बस दो तर्कों को पेश कीजिए और फिर देखिए कमाल!
राजनेता देश की नीतियों में बदलाव के लिए झटपट तैयार हो जाएगा. ऐसे दो तर्कों में एक है कि ‘अगर अमेरिका में ऐसा हो चुका है तो फिर भारत में क्यों नहीं हो सकता’ और दूसरा है कि ‘अगर फलां किस्म का बदलाव किया गया तो इसका सबसे ज्यादा फायदा गरीबों को होगा’.
गरीबों को फायदा पहुंचाने के लिए तो खैर, कुछ भी किया जा सकता है लेकिन ध्यान रखना होगा कि ऐसा कोई कदम लोगों की सेहत और जिंदगी को खतरे में डालने वाला ना हो.
अमेरिका से भारत की तुलना करना बेतुका
अमेरिका के हालात से भारत की तुलना करना खतरनाक नहीं तो भी बेतुका जरूर है. हमारी अफसरशाही इन दोनों तर्कों का बड़ी चतुराई से इस्तेमाल करती है, कभी तो ये तर्क सीधे-सीधे आला अफसरान ही अपने मुंह से पेश करते हैं और कभी अपने उन मातहतों से कहलवाते हैं जिनके जोश और जज्बे को वे पहले ही पर्याप्त कमजोर कर चुके होते हैं.
यह बात तो जगजाहिर है कि अमेरिकी लोकतंत्र अपनी उम्र के 260 साल देख चुका है लिहाजा बहुत पुराना है. भारत के उलट, एक लोकतंत्र के रूप में अमेरिका ने दुनिया के सबसे प्रतिभावान लोगों को अपनी तरफ आकर्षित किया है, यहां लोगों पर चंद जाने-समझे नियम-कायदों के जरिए शासन होता है और कामकाज पर नौकरशाही का अंकुश बड़ा मामूली किस्म का है.
इसके उलट, भारत एक विकासशील देश है, एक लोकतांत्रिक देश के रूप में हमारा इतिहास बहुत छोटा सा है और यहां प्रतिभाएं अक्सर ठोकरों का शिकार होती हैं.
माना तो यही जाता है कि भारत में फैसले गरीबों के हित को ध्यान में रखकर लिए जाते हैं लेकिन धनी और ताकतवर लोगों के दबदबे वाली व्यवस्था के भीतर घटिया क्वालिटी की सेवा और सामान के शिकार सबसे ज्यादा गरीब ही होते हैं.
मरीजों के इलाज के लिए जेनरिक दवाओं का इस्तेमाल किया जाए या ब्रांडेड दवाओं का, यह बहस पुरानी है और पूरी दुनिया में चल रही है.
इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि अच्छी क्वालिटी की जेनरिक दवाएं ब्रांडेड दवाओं को बराबरी का टक्कर दे सकती हैं लेकिन यह बात भी सच है कि शोध में इस्तेमाल किए जा रहे किसी प्रॉडक्ट की क्वालिटी मालिक्यूल (दवा का सबसे सूक्ष्म रूप) की अत्याधुनिक प्रोसेसिंग और उत्पादन प्रक्रिया पर निर्भर है.
भारत में दवा बेचने का लाइसेंस हासिल करना आसान है
दुनिया में किसी भी अच्छे क्लीनिशियन से पूछिए, वह यही कहेगा कि दवा अपने मूल अणु-रूप (मॉलिक्यूल) में ज्यादा असरदार होती है और सीधे रोग की जड़ पर चोट करती है. अलग परिस्थिति में तैयार और कई किस्म की कलाबाजियों से हासिल लाइसेंस के जरिए बाजार में बिक्री के लिए उतारी गई दवा इसकी बराबरी नहीं कर सकती है.
अमेरिका में प्रॉडक्ट की क्वालिटी बनाये रखने के लिए बड़ी कड़ाई बरती जाती है और नियमित अंतराल पर प्रॉडक्ट की क्वालिटी की जांच भी होती है लेकिन भारत के बारे में यही बात नहीं कही जा सकती.
भारत में दवा बेचने का लाइसेंस हासिल करना कुछ वैसा ही आसान है, जैसे सब्जी खरीदना. दवा का लाइसेंस भ्रष्ट साधनों के इस्तेमाल और राजनेताओं या नौकरशाहों से संपर्क के बूते हासिल हो जाता है.
भारत में दवा की क्वालिटी पर नियंत्रण रखने का ढांचा भी बड़ा लचर है. एक तो इस काम के लिए जरूरत भर के हुनरमंद लोग मौजूद नहीं हैं, दूसरी बड़ी बाधा टेक्नोलॉजी की है. पूरा प्रशासनिक तंत्र भ्रष्टाचार का शिकार है और ऐसे में स्थिति और भी ज्यादा जटिल हो गई है.
एक बड़ी कमी यह है कि हमारे देश में योग्य फार्मासिस्ट और दवा-दुकानदार पर्याप्त संख्या में मौजूद नहीं हैं. फार्मेसी या फिर दवा-दुकान तकरीबन हर जगह आपको बेरोजगार, अप्रशिक्षित नौजवान या फिर उनके ऐसे ही परिवार जन चलाते हुए मिलेंगे.
फार्मासिस्ट अपना लाइसेंस किसी और को दे देते हैं और इसके एवज में कमीशन लेते हैं. अनाड़ी के हाथ में दवा बेचने का लाइसेंस जाना बड़ी चिंता की बात है.
वह दवा के तकनीकी पहलू से अनजान होता है और साइड इफेक्टस की चिंता किए बगैर दवा बेच सकता है, ऐसी भी दवा दे सकता है जिसके प्रति आपका शरीर एलर्जिक हो.
इसके अतिरिक्त कुछ दवाइयां कई अलग-अलग चीजों को एक में मिलाकर बनाई जाती हैं और अगर दवा बेचने वाले ने फार्मेसी का पर्याप्त प्रशिक्षण नहीं ले रखा तो उसके लिए ऐसी दवा दे पाना बहुत कठिन होगा.
यूरोप में बिना क्वालिटी चेक किए जेनरिक दवा नहीं बिक सकती
फार्मा कंपनियां कुकुरमुत्ते के छत्ते की तरह उग आई हैं, उन्हें प्रोत्साहन दिया जा रहा है, ऐसे में दवा दुकानदार दवा की गुणवत्ता की खास फिक्र क्यों करें.
यह बात सच है कि चिकित्सा जगत के कुछ पेशेवर लोगों की फार्मा कंपनियों से मिलीभगत है और इस मिलीभगत के कारण मरीज के हितों को नुकसान पहुंचता है लेकिन यह बात भी याद रखनी चाहिए कि डॉक्टर हमेशा अपने मरीज को ठीक करना चाहता है.
वह चाहेगा कि रोग को जड़ से खत्म करने वाली अच्छी क्वालिटी की दवा मिले. हो सकता है कि किसी फार्मा कंपनी को फायदा पहुंचाने के गरज से डॉक्टर रोग की मूल दवा के साथ कुछ और दवाइयां भी लिख दे और इन दवाओं का मूल रोग से कोई सीधा रिश्ता ना हो लेकिन मेडिकल काउंसिल दवा की ऐसी पर्ची की ऑडिटिंग कर यह दोष दूर कर सकती है.
यह रास्ता कहीं ज्यादा ठीक है बनिस्बत रोगी को किसी अयोग्य दवा दुकानदार के भरोसे छोड़ने के. मरीज को दवा देने का काम सिर्फ फार्मासिस्ट पर छोड़ना कहीं ज्यादा घातक सिद्ध हो सकता है. केमिस्ट पर निगरानी रखने का ढांचा अभी बहुत लचर है, किसी खास दवा को बेचने से संबंधित उनका कोई नैतिक या व्यावसायिक दायित्व बहुत परिभाषित नहीं है.
जहां तक दवाओं की कीमत कम करने का सवाल है, नेशनल फार्मास्यूटिकल्स प्राइसिंग अथॉरिटी की मदद ली जा सकती है. अथॉरिटी तय कर सकती है कि किसी दवा का अधिकतम खुदरा मूल्य कितना हो.
ऐसे में फार्मा कंपनी के लिए हेरफेर करने की बहुत कम गुंजाइश रहेगी. सरकार दवाओं की मार्केटिंग के बारे में नियम-कायदों को समरूप बना सकती है. इससे भी दवाओं की कीमत कम करने में मदद मिलेगी.
चिकित्सा जगत का कोई भी पेशेवर कम कीमत की जेनरिक दवाओं के खिलाफ नहीं हो सकता बशर्ते जेनरिक दवाएं बेहतर क्वालिटी की हों.
मुश्किल तो यह है कि भारत में बिकने वाली महज 1 प्रतिशत जेनरिक दवाएं ही क्वालिटी टेस्ट की प्रक्रिया से गुजरती हैं जबकि अमेरिका और यूरोप में क्वालिटी टेस्ट के बगैर कोई जेनरिक दवा नहीं बेची जा सकती.
अगर हर जेनरिक दवा समान रूप से अव्वल क्वालिटी की हो तो डाक्टर अपने नुस्खे में इन दवाओं का नाम पूरे भरोसे के साथ लिख सकेंगे.
अगर इस पहलू को नजरअंदाज किया जाता है तो आम आदमी के लिए बड़ी खराब स्थिति पैदा होगी. सस्ती दवा के नाम पर अगर घटिया क्वालिटी की जेनरिक दवा मिलती है तो उसका रोग घटने के बजाय बढ़ेगा.
लाईसेंस जारी करने की प्रक्रिया सख्त बनाई जानी चाहिए
गरीब अवाम को ज्यादा परेशानी उठानी पड़ेगी क्योंकि दवा जेनरिक हो या ब्रांडेड, धनी लोग हमेशा अच्छी क्वालिटी की दवा खरीदने की स्थिति में होंगे. बड़े सरकारी संस्थानों में जहां ब्रांडेड दवा की जगह जेनरिक दवा दी जा रही है, यह स्थिति आन पहुंची है.
याद रहे कि जेनरिक दवाओं की ब्रांडेड दवाओं से तुलना करने का आधार सिर्फ यही नहीं है कि उन्हें किन रासायनिक तत्वों को मिलाकर बनाया गया है.
जेनरिक और ब्रांडेड दवाओं की आपसी तुलना के वक्त यह भी देखा जाना चाहिए कि दवा का रसायनिक तत्व कितना शुद्ध है और उसकी नियत मात्रा का रोगी की देह पर वांछित असर किस सीमा तक होता है.
प्रस्तावित बदलावों का एक खराब असर यह होगा कि फार्मा कंपनियां शोध और विकास के नाम पर खर्च की जाने वाली रकम कम कर देंगीं. इससे बेरोजगारी का मसला पैदा होगा साथ ही दवाओं के नये मॉलिक्यूल बनाने की राह कठिन हो जायेगी.
मैं मामले से जुड़े अधिकारियों से पूरा जोर देकर कहना चाहता हूं कि वे पहले दवा-व्यवसाय के नियम-कायदों और उनपर अमल के ढांचे में पसरी विसंगतियों को दूर करें. एक ऐसा फ्रेमवर्क तैयार करें जो भ्रष्टाचार से मुक्त हो ताकि जेनरिक दवाओं की गुणवत्ता की जांच-परख कारगर ढंग से हो.
लाइसेंस जारी करने की प्रक्रिया भी सख्त बनाई जानी चाहिए. अगर ऐसा हो सका तो जेनरिक दवाएं भी उतनी ही कारगर साबित होंगी जितनी कि तथाकथित ब्रांडेड दवाएं. यही स्थिति सबके फायदे में है.
(डॉक्टर अशोक पानागड़िया राजस्थान मेडिकल यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर एमरिट्स और पूर्व वाइस चांसलर हैं. उनको पद्म सम्मान से नवाजा गया है)
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