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सादगी ऐसी कि लोग पहचान नहीं पाए तो खुद बोलना पड़ा- हां, मैं ही हूं जॉर्ज फर्नांडिस

लोगों ने जॉर्ज साहब को घेर लिया. जॉर्ज साहब की साधारण वेशभूषा देखकर उन्हें कोई पहचान नहीं पा रहा था. आखिर में जॉर्ज साहब को खुद खड़े होकर बोलना पड़ा- हां, मैं ही जॉर्ज फर्नांडिस हूं...

Updated On: Jan 29, 2019 05:21 PM IST

Vivek Anand Vivek Anand
सीनियर न्यूज एडिटर, फ़र्स्टपोस्ट हिंदी

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सादगी ऐसी कि लोग पहचान नहीं पाए तो खुद बोलना पड़ा- हां, मैं ही हूं जॉर्ज फर्नांडिस

जॉर्ज फर्नांडिस कमाल की शख्सियत रहे. मैंगलोर में पैदा हुए. पादरी बनने की इच्छा लेकर बैंगलोर पहुंच गए. मन नहीं रमा तो काम की तलाश में मुंबई (तब की बंबई) चले गए. न्यूज पेपर में प्रूफ रीडिंग का काम करते हुए समाजवादी श्रमिक आंदोलनों के संपर्क में आए. क्रांतिकारी मजदूर नेता से लेकर कामयाब राजनेता के सफर में बिहार उनका अहम पड़ाव रहा. बिहार के लोगों ने जॉर्ज फर्नांडिस को अपने सिर आंखों पर बिठाया. बिहार के बांका, मुजफ्फरपुर और नालंदा से उन्होंने लोकसभा का चुनाव लड़ा.

जॉर्ज फर्नांडिस बिहार के नालंदा लोकसभा क्षेत्र से लगातार तीन बार सांसद रहे. 1996 से लेकर 2004 तक हुए तीन लोकसभा चुनावों में उन्होंने नालंदा लोकसभा क्षेत्र का प्रतिनिधित्व किया. इसी दौरान वो देश के रक्षा मंत्री रहे. नालंदा के लोग आज भी उनके करिश्माई व्यक्तित्व के कायल हैं. जॉर्ज फर्नांडिस के सांसद रहते बिहार शरीफ प्रखंड में उनके प्रतिनिधि (सांसद प्रतिनिधि) के तौर पर काम करने वाले संजय कुशवाहा कुछ दिलचस्प वाकया बताते हैं.

जेडीयू नेता संजय कुशवाहा कहते हैं कि 1999 के लोकसभा चुनाव में जॉर्ज साहब अपने लोकसभा क्षेत्र (नालंदा) में चुनाव प्रचार कर रहे थे. चुनाव प्रचार का बड़ा व्यस्त कार्यक्रम हुआ करता था. इसी दौरान उन्हें करीब से जानने का मौका मिला. एक बार दिनभर चुनाव प्रचार का कार्यक्रम था. बिहार शरीफ (नालंदा लोकसभा क्षेत्र) के कई इलाकों में घूमते-घूमते शाम हो गई. लेकिन उनसे मिलने वालों का सिलसिला और उन्हें सुनने आने वालों की भीड़ कम नहीं हो रही थी.

लोगों से मिलते-मिलाते सुबह के 4 बज गए. जॉर्ज साहब आखिरकार साढ़े चार बजे अपने विश्रामस्थल पहुंचे. कमरे पर पहुंचते ही उन्होंने अपना कुर्ता पायजामा उतारकर सर्फ (वाशिंग पाउडर) में भिंगोया. उसी वक्त कपड़े धुलकर कमरे में पड़े हैंडर पर टांग दिए. तब जाकर वो सोने गए. दूसरे दिन जब कपड़े सूख गए तो उसे तह करके बिस्तर के नीचे दबाकर रख दिया. ऐसा करने से कपड़ों को इस्तरी करने की जरूरत नहीं रह गई. फिर उसी कपड़े को पहनकर चुनाव प्रचार करने निकल पड़े. जॉर्ज साहब सादगी की मिसाल थे. अपने कपड़े खुद धोते. कपड़ों को इस्तरी की जरूरत न पड़े इसलिए बिस्तर के नीचे तह लगाकर रखते. व्यस्त चुनाव प्रचार के दिनों में यही उनकी रोज की दिनचर्या थी. देश के रक्षामंत्री की इस सादगी को उनके लोकसभा क्षेत्र के लोग अचरज से देखा करते थे.

जॉर्ज की सादगी ही उनका आकर्षण थी

बिहार की राजनीति में बाहुबल और धनबल के प्रदर्शन की रवायत आम सी रही है. यहां पंचायत और प्रखंड स्तर के चुनाव में भी गाड़ियों का काफिला चलता है. बड़े-बड़े लाउडस्पीकर से प्रचार का शोर शराबा रहता है. पोस्टर बैनर तो आम हैं, यहां दुनालियों (बंदूक) की संख्या से उम्मीदवार की हैसियत का अंदाजा लगाया जाता है. जॉर्ज साहब के चुनाव प्रचार में ये सब आकर्षण नदारद रहते. उनकी सादगी में जो आकर्षण था, वो बाकी सारे शोर-शराबों पर भारी पड़ता था.

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संजय कुशवाहा कहते हैं कि एक बार जॉर्ज साहब नालंदा जिले के अस्थावां प्रखंड के उनवाना गांव चुनाव प्रचार के लिए निकले थे. इस इलाके के कई गांवों में उनका चुनाव प्रचार का कार्यक्रम था. रक्षा मंत्री रहते हुए भी जॉर्ज साहब के साथ कोई भी सुरक्षा दस्ता नहीं रहता था. उनके साथ सिर्फ साथी राजनेता होते थे. 1999 के लोकसभा चुनाव के प्रचार में हम दो गाड़ियों में सवार होकर निकले थे. उस वक्त वर्तमान में जहानाबाद से सांसद अरुण कुमार बिहार विधान परिषद के सदस्य थे. उनकी गाड़ी में हम सवार थे. जॉर्ज साहब नालंदा के विधायक श्रवण कुमार की गाड़ी में बैठे थे.

अचानक तेज बारिश होने लगी. बारिश की वजह से टूटी-फूटी सड़क के गड्ढ़ों में पानी भर गया. गाड़ी आगे बढ़ने में दिक्कत होने लगी तो जॉर्ज साहब ने गाड़ी रुकवा दी. बारिश से बचने के लिए हम रास्ते पर पड़ने वाले एक छोटे से गांव नोआमा के सामुदायिक भवन पर रुके. जॉर्ज साहब वहीं पार्टी के कार्यकर्ताओं के साथ बैठ गए. हमलोगों को लग रहा था कि अब तो चुनाव प्रचार करना मुमकिन नहीं हो पाएगा. बारिश की वजह से बाहर निकलना मुश्किल था. लेकिन जैसे ही लोगों को पता लगा कि जॉर्ज साहब इलाके में आए हुए हैं, लोगों की भीड़ खुद-ब-खुद भींगते हुए सामुदायिक भवन पहुंचने लगी.

लोगों ने जॉर्ज साहब को घेर लिया. जॉर्ज साहब की साधारण वेशभूषा देखकर उन्हें कोई पहचान नहीं पा रहा था. आखिर में जॉर्ज साहब को खुद खड़े होकर बोलना पड़ा- हां, मैं ही जॉर्ज फर्नांडिस हूं. तब जाकर लोगों को विश्वास हुआ. ये उनकी करिश्माई शख्सियत का जादू ही था कि खराब मौसम में भी लोग उनका भाषण सुने बगैर जाने को तैयार नहीं थे. गांव वालों ने आनन-फानन में वहीं माइक और लाउड स्पीकर का इंतजाम किया. बारिश होती रही लेकिन लोग जमा होते रहे. बारिश के बीच सामुदायिक भवन में ही जॉर्ज साहब की सभा संपन्न हुई.

नालंदा के लिए जॉर्ज फर्नांडिस ने बहुत कुछ किया

जॉर्ज साहब की लोकप्रियता गजब की थी. उनके लिए जनता में एक सहानुभूति की लहर थी. आंदोलन की राह पकड़कर राजनीति में आने की वजह से उनके व्यक्तित्व को लेकर लोगों में आकर्षण था. लोग देखना चाहते थे कि आखिर वो शख्स कैसा है, जिसने आपातकाल में इंदिरा सरकार की चूलें हिला दीं. उनकी निडरता और निर्भयता के साथ निजी जीवन में सादगी उनके व्यक्तित्व के इर्द-गिर्द रहस्य का एक आवरण सा बना देती थी. बड़ौदा डायनामाइट कांड के किस्से इस रहस्य को और गहरा कर जाते थे.

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नालंदा के सांसद रहते हुए जॉर्ज साहब अपने राजनीतिक करियर के सबसे ऊंचे मुकाम पर थे. अपने संसदीय क्षेत्र के लिए उन्होंने कई काम किए. रक्षामंत्री रहते हुए नालंदा को आर्डिनेंस फैक्ट्री का तोहफा दिया. किसी भी राज्य में रक्षा मंत्रालय के दिशा-निर्देशों पर संचालित एक ही सैनिक स्कूल हुआ करता है, लेकिन जॉर्ज साहब ने बिहार को दो सैनिक स्कूल दिए. गोपालगंज में पहले से एक सैनिक स्कूल था और जॉर्ज साहब ने दूसरा नालंदा में खुलवाया.

नालंदा लोकसभा क्षेत्र के शहरी इलाकों में मुसलमानों की अच्छी खासी आबादी है. इस समुदाय से बड़ी संख्या में लोग बीड़ी के व्यवसाय से जुड़े हैं. तंबाकू से जुड़ा काम होने की वजह से अल्पसंख्यक गरीब तबके को कई बीमारियों से जूझना पड़ता है. जॉर्ज साहब ने बीड़ी मजदूरों के लिए शहर में प्राइवेट हॉस्पिटल जैसा सुविधासंपन्न बीड़ी अस्पताल दिया. उनके सांसद रहते इलाके से लगती सड़कों की हालत सुधरी. बिहार शरीफ जहानाबाद रोड को अरवल तक नेशनल हाइवे बनाया गया.

एक वाकये का जिक्र करते हुए संजय कुशवाहा कहते हैं कि वो 1999 के चुनाव प्रचार के ही दिन थे. जॉर्ज साहब सुबह 10 बजे ही चुनाव प्रचार के लिए निकल पड़े थे. पहले बिहार शरीफ के किसान बाग मोहल्ले में प्रोग्राम हुआ. फिर शहर के सोमरी कॉलेज में सभा हुई. उसके बाद पावापुरी के पास एक जनसभा में वो पहुंचे. जब वो बिहार शरीफ के एक छोटे से गांव सिपाह पहुंचे तो शाम हो चुकी थी. जॉर्ज साहब ने घड़ी पर निगाह डाली. शाम के 8 बजे का वक्त हुआ था. चुनाव प्रचार के आखिरी दिन आचार संहिता लागू हो चुकी थी. जॉर्ज साहब ने उसी वक्त माइक पर बोलना बंद कर दिया. वो नियम कायदों के पाबंद थे.

जॉर्ज साहब का सुबह 10 बजे से चुनावी कार्यक्रम शुरू हुआ था. वो सुबह क्या खाकर चले थे, ये किसी को पता नहीं था. दिनभर चुनावी यात्रा पर थे. खाने-पीने का थोड़ा सा भी टाइम नहीं मिला. रात के 8 बजे जब उनसे खाने को लेकर पूछा गया तो वो बोले कि मैं 5 बजे के बाद भोजन नहीं करता हूं. उन्होंने सादा दूध पीने की इच्छा जाहिर की. दिनभर के भूखे जॉर्ज साहब ने एक ग्लास दूध पीकर ही रात गुजार दी. चुनाव प्रचार के दौरान ऊनकी उर्जा देखते ही बनती थी.

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