नरेंद्र मोदी सरकार के खिलाफ अक्सर यह शिकायत की जाती है कि उसके कार्यकाल में घोटालों की जांच की रफ्तार काफी सुस्त है. साथ ही, यह भी आरोप लगता रहा है कि केंद्र की मौजूदा एनडीए सरकार अभियुक्तों पर कार्रवाई करने में सक्षम नहीं रही है. विडंबना यह है कि खास तौर पर उनके समर्थक और कार्यकर्ताओं को भी इस तरह की शिकायत है. हालांकि, 2014 में यह मुद्दा मोदी के चुनाव अभियान का बड़ा हिस्सा रहा था.
दरअसल, हाल में प्रधानमंत्री ने एनएनआई को जो इंटरव्यू दिया है, उसमें भी यह सवाल उनके सामने रखा गया. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस सवाल के जवाब में कहा कि न्याय का पहिया बेशक धीरे-धीरे घूम रहा है, लेकिन आखिरकार सब कुछ ठीक होगा. हालांकि, इस दौरान उन्होंने एक और महत्वपूर्ण बात कही और उसका मतलब यह था कि इस सिलसिले में हो रही जांच और कानूनी प्रक्रिया राजनीतिक दुर्भावना के तहत नहीं होनी चाहिए. इंटरव्यू के दौरान उन्होंने कहा, 'हम राजनीतिक विद्वेष के पक्ष में नहीं हैं.'
अगर जांच में सरकार की तरफ से किसी तरह का हस्तक्षेप नहीं होने की बात को खारिज भी कर दिया जाए तो भी यह साफ है कि कांग्रेस को अपने राजनीतिक विरोधियों को 'ठीक करने' के लिए जांच एजेंसियों को 'सक्रिय करने' को लेकर किसी तरह का मलाल नहीं है.
गौरतलब है कि सोहराबुद्दीन शेख, उसकी पत्नी कौसर बी और उसके सहयोगी तुलसीराम प्रजापति के कथित फर्जी मुठभेड़ के मामले में सीबीआई की विशेष अदालत ने बीते 21 दिसंबर को तमाम अभियुक्तों को बरी करने का फैसला सुनाया था. अदालत ने इस मामले में 358 पेज का फैसला दिया है. इस फैसले की कॉपी सोमवार को सार्वजनिक रूप से उपलब्ध कराई गई.
सीबीआई की विशेष अदालत के जज एस. जे. शर्मा के फैसले ने लंबे समय से चले आ रहे भारतीय जनता पार्टी के उस दावे को मजबूत आधार मुहैया कराया है कि कांग्रेस ने साजिश रचने और फर्जी मुठभेड़ के मुकदमे में अमित शाह को 'फंसाने' और उन पर 'शिकंजा कसने' के लिए सीबीआई का दुरुपयोग किया था और इसका आखिरी लक्ष्य गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को फंसाना था.
जस्टिस शर्मा (जो अब रिटायर हो चुके हैं) ने अपने फैसले में यह भी साफ किया कि सीबीआई इस पूरे मामले में पुलिस-राजनेता से जुड़ी किसी तरह की सांठ-गांठ को साबित करने में असफल रही और जांच एजेंसी सच की पड़ताल करने की बजाय कुछ राजनीतिक नेताओं पर अभियोग लगाने के लिए अलग तरह की भावना के तहत काम कर रही थी.
जाहिर तौर पर फैसले के बाद बीजेपी को कांग्रेस पर हमला करने का आधार मिल गया. भारतीय जनता पार्टी ने सोहराबुद्दीन शेख, तुलसी प्रजापति, इशरत जहां, राजिंदर राठौर और हरेन पांड्या जैसे मामलों में जांच को राजनीतिक रंग देने के लिए कांग्रेस पर जमकर निशाना साधा. बीजेपी नेताओं का कहना था कि कांग्रेस पार्टी बीजेपी पर सार्वजनिक संस्थानों को बर्बाद करने का आरोप लगाती है, लेकिन उसे पहले अपने गिरेबां में झांकना चाहिए.
कांग्रेस को यह आत्मवालोकन करना चाहिए कि सत्ता में रहने के दौरान उसने किस तरह से राष्ट्रीय सुरक्षा को कमजोर किया था, जांच एजेंसियों को राजनीतिक लड़ाई लड़ने के लिए मजबूर किया और जांच एजेंसियों का सत्यानाश कर दिया.
बीजेपी के वरिष्ठ नेता और केंद्रीय वित्त मंत्री अरुण जेटली ने अपने ब्लॉग में साल 2013 में विपक्ष के नेता की हैसियत से अपनी तरफ से तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को लिखी चिट्ठी का जिक्र किया. जेटली ने अपनी इस चिट्टी में मुकदमों की जांच में कई तरह से जानबूझकर गड़बड़ी किए जाने की बात की थी. जेटली की इस चिट्ठी में कहा गया था कि गुजरात के तत्कालीन गृह मंत्री अमित शाह और बीजेपी महासचिव अमित शाह को फंसाने के लिए सीबीआई ने 'दो गवाहों की फर्जी गवाही को आधार बनाया था.' ये दोनों गवाह-रमनभाई पटेल और दशरथ भाई पटेल गुजरात के कुख्यात जमीन माफिया हैं.
जेटली ने 15 पेज की अपनी इस चिट्टी में यह भी लिखा था कि गुजरात आईपीएस काडर के एक रिटायर्ड अधिकारी ने 'जेल में बंद पुलिस अधिकारियों के परिवार वालों' से मुलाकात कर, उनके द्वारा दिए जाने वाले झूठे बयान के बदले रिहाई से संबंधित 'सौदा' कर 'गुजरात के राजनीतिक नेताओं को फंसाने' की कोशिशों को अंजाम दिया.
जेटली ने इस बात का भी जिक्र किया था कि वरिष्ठ जांच अधिकारियों को 'अपनी सेवाएं प्रदान करने' के बदले रिटायरमेंट के बाद भी अच्छे पदों से नवाजा गया. अब जेटली ने लिखा है कि 'उस चिट्ठी में मैंने जो लिखा था, उसका एक-एक शब्द सच साबित हुआ है. यह इस बात का अखंड सबूत है कि कांग्रेस ने हमारी जांच एजेंसियों के साथ क्या किया.'
जेटली के आरोपों की पुष्टि इस बाबत दिए गए फैसले के जरिए भी होती है, जिसमें साल 2010 में रहे सीबीआई के मुख्य जांच अधिकारी अमिताभ ठाकुर के बयानों का भी हवाला दिया गया है. ठाकुर उस वक्त पूरे मामले में सोहराबुद्दीन और उसकी पत्नी कौसर बी की हत्या के मामले की जांच कर रहे थे. समाचार एजेंसी पीटीआई की रिपोर्ट के मुताबिक, ठाकुर ने इस केस के संबंधित आरोपपत्र में कहा है कि शाह और अन्य सीनियर अधिकारियों व नेताओं ने इन मौतों के जरिये 'राजनीतिक और मौद्रिक' लाभ उठाया. हालांकि, सीबीआई के इस पूर्व अधिकारी ने अदालत में पूछताछ के दौरान स्वीकार किया कि अपने इन आरोपों को साबित करने के लिए 'उनके पास किसी तरह का सबूत नहीं था.'
फर्जी मुठभेड़ से जुड़े मुकदमे में सीबीआई की विशेष अदालत द्वारा सुनाए गए फैसले में कहा गया है, 'ठाकुर ने जिरह यानी पूछताछ में बताया कि ट्रायल का सामना कर रहे 22 अभियुक्तों में से किसी को भी राजनीतिक या वित्तीय रूप से लाभ नहीं हुआ और इनमें से किसी का इरादा सोहराबुद्दीन की हत्या करने का नहीं था. यह बात भी बचाव पक्ष के समर्थन में जाती है.'
अदालत ने अपने फैसले में कहा कि 'सीबीआई जैसी उच्चस्तरीय जांच एजेंसी द्वारा इस मामले में कहानी और योजना पहले से तय की गई थी और राजनेताओं को फंसाने के लिए ऐसा किया गया था.' अदालत का यह भी कहना था कि 'साफ तौर पर यह जान पड़ता है कि सच का पता लगाने की बजाय सीबीआई पहले से तय और सोची-समझी कहानी और सिद्धांतों के तहत काम कर रही थी. इसके तहत एक खास लक्ष्य हासिल करने की बात थी और राजनीतिक नेताओं को फंसाने का मामला था.' विशेष अदालत ने साफ किया कि देश की प्रमुख जांच एजेंसी सीबीआई ने सबूतों को गढ़ने का काम किया और आरोपपत्र में गवाहों का बयान भी अपनी तरफ से तैयार करने का काम किया.
अतीत के दाग को धोना राहुल गांधी के लिए बड़ी चुनौती
यह कांग्रेस की गड़बड़ियों और कुकर्मों पर न्यायपालिका की तरफ से दोषारोपण किए जाने का एक तरह से दुर्लभ मामला है. इसके अलावा, अपनी राजनीतिक जरूरतों और फायदे के लिए इस तरह की किसी जांच में दखल देना और संस्थानों की आजादी को खत्म करने की बेशर्म कोशिशों का यह और दुर्लभ उदाहरण हो सकता है.
फैसले के बाद प्रेस कॉन्फ्रेस में बीजेपी नेता और केंद्रीय मंत्री स्मृति ईरानी ने कहा कि सीबीआई की विशेष अदालत के फैसले से यह साफ है कि कांग्रेस पार्टी अपने राजनीतिक विरोधियों को 'खत्म' करने के लिए किस हद तक जा सकती है. जेटली और ईरानी, दोनों नेताओं ने कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी के उस 'रहस्यमय ट्वीट' के लिए उनकी (राहुल गांधी) आलोचना की, जिसमें संकेत दिए गए थे कि अभियुक्तों को बरी किए जाने के कारण सोहराबुद्दीन शेख और अन्य को न्याय नहीं मिल पाया. हालांकि, कांग्रेस अध्यक्ष ने फैसले के उन पहलुओं पर किसी तरह की टिप्पणी नहीं की, जिसमें जांच में राजनीतिक हस्तक्षेप और संस्थानों की स्वायत्तता को कमजोर किए जाने की बात कही है.
यह पूरा वाकया राहुल गांधी के लिए खास तरह की दिक्कत पेश करता है. अतीत की गड़बड़ियों का कांग्रेस का दाग इतना भयंकर है कि इसे हटाना या इस दिशा में प्रयास करना एक निरर्थक अभ्यास की तरह है. कांग्रेस की तरफ से बीजेपी पर जो भी आरोप लगाए जाते हैं, उसका कंकाल बाहर निकलने के लिए इंतजार कर रहा होता है. यह न सिर्फ राहुल गांधी के चुनाव प्रचार की रणनीति में बाधा पहुंचाता है, बल्कि बीजेपी को इस तरह के अवसर के फायदा उठाने का मौका भी मिलता है.
मिसाल के तौर पर बीजेपी इस बात की तरफ इशारा कर सकती है कि कांग्रेस के पास संस्थानों की स्वतंत्रता पर टिप्पणी करने का नैतिक अधिकार नहीं है (जैसा कि प्रधानमंत्री ने सोहराबुद्दीन फैसले का जिक्र करते हुए अपने इंटरव्यू के दौरान कहा). साथ ही, यह दिखाने का भी प्रयास कर सकती है कि इस तरह की गड़बड़ियों के बावजूद नैतिक माहौल बनाने की कांग्रेस पार्टी की कोशिश उसके पाखंड को दर्शाती है. चुनावी साल में बीजेपी के लिए यह मौके की तरह उभरकर सामने आया है!
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