आज कल जहां देखो बस एक ही मुद्दा छाया रहता है और वो है 'गौरक्षा'. राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ प्रमुख मोहन भागवत ने हाल ही में गौ हत्या के खिलाफ एक राष्ट्रव्यापी कानून की वकालत की और कहा कि इस 'बुराई' का अंत होना चाहिए. उन्होंने हालांकि गौ रक्षक समूहों द्वारा हिंसा की निंदा की और कहा कि इससे उद्देश्य की 'बदनामी' होती है.
गौरक्षा का नाम आते ही हमारे देश में ज्यादातर लोग बिना कुछ जाने बस मरने-मारने पर उतारू हो जाते हैं. हालांकि इस मुद्दे पर करीब से नजर डाली जाए तो न तो गाय को फायदा होता नजर आता दिख रहा है और न ही लोगों को.
क्या गाय को ही हुआ फायदा?
पिछले काफी समय से ये मुद्दा समाज से नहीं बल्कि राजनीति से ज्यादा जुड़ाव रखता आ रहा है. गौरक्षा को लेकर उठाई जा रही तमाम आवाजों के बावजूद आज देश की कुछ सबसे बड़ी गौशालाओं में भी गायों की कोई कदर नहीं है. हाल ही में राजस्थान की सबसे बड़ी सरकारी गौशाला में जुलाई, 2016 में 100 से ज्यादा गायों के मरने की खबरें सामने आई, तो वहीं कानपुर की गौशाला में भी सैंकड़ों गायों के मरने की खबरें मिली. ऐसा नहीं है इन गौशालाओं के पास बजट की कमी है. बल्कि कमी उन गौ रक्षकों में है, जो गाय के नाम का इस्तेमाल सिर्फ हिंसा और वोट के लिए करते हैं.
देश की सबसे बड़ी गौशाला में भी गाय का भविष्य अंधेरे में
जानिए कब शुरु हुआ गौरक्षा का मसला?
हमारे हिंदू धर्म में आज भी बच्चे को जन्म से सिखाया जाता है कि गाय हमारी माता है और उसमें करोड़ों देवी-देवताओं का वास होता है. लेकिन इतना पवित्र होने के बाद भी गाय को आप सड़कों पर कूड़ेदान के पास पन्नियां खाते आराम से देख सकते हैं. गौरक्षा का मुद्दा आज का नहीं है बल्कि 100 सालों से ज्यादा पुराना है. हिन्दुत्व की राजनीति की जान रहा गौरक्षा का मुद्दा 1882 में सबसे पहले दिखा.
गौरक्षा की राजनीति स्वामी दयानन्द ने आर्य समाज से 1882 में शुरू की थी. उस समय पर यह मुद्दा राजनीतिक की बजाए सामाजिक और धार्मिक हुआ करता है. 1882 में स्वामी दयानन्द और आर्य समाज के लोगौं ने पूरे देश में गौरक्षा को लेकर जागरूकता फैलाई थी. यहीं नहीं सामाजिक स्तर आर्य समाज ने भी दलितों के बीच गौरक्षा को लेकर जागरूकता फैलाने की कोशिश की थी.
जब गाय माता राजनीति से जुड़ी
माना जाता है गौरक्षा में राजनीति ने अपने पैर 1950 से पसारने शुरु किए थे. कहते हैं राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के सरसंघ चालक गुरु गोलवलकर गौरक्षा के मुद्दे से खासे प्रभावित थे और उन्होंने इसे अपने एजेंडे में भी शामिल कर लिया था. यही वो समय था जब असल में गाय पर राजनीति होनी शुरु हुई. इसके बाद इलाहाबाद के स्वामी प्रभुदत्त ब्रह्मचारी गोलवलकर से प्रभावित हुए और उन्होंने इस मुद्दे में राजनीति का तड़का लगाने में अहम योगदान दिया.
पूरे देश में बने गोहत्या के खिलाफ कानून लेकिन गोरक्षा के नाम पर हिंसा गलत: भागवत
इसी प्रकार से धीरे-धीरे गौरक्षा आंदोलन धार्मिक और समाजिक पहलुओं से दूर खिसकर राजनीति परियोजना का हिस्सा बन गया. हमारे देश में पहली बार लोकसभा चुनाव 1951-1952 में हुए थे और इसका पूरा फायदा उठाते हुए प्रभुदत्त ब्रह्मचारी ने नेहरु के खिलाफ इलाहाबाद में फूलपुर से लोकसभा का चुनाव लड़ा. लेकिन गाय भी उन्हें चुनाव नहीं जिता पाई और उन्हें हार का सामना करना पड़ा. हालांकि हार के बाद भी प्रभुद्त्ता 'गौरक्षा' के मुद्दे को बड़े स्तर पर राजनीति से जोड़ने में सफल हो गए.
गौ हत्या रोकने के नाम पर इनसान का कत्ल?
हिन्दू संगठनों ने हमेशा से गौरक्षा के लिए अपनी आवाज उठाई है, लेकिन इसकी आड़ में तमाम कट्टरपंथी छोटे-छोटे हिंदू संगठनों के लोगों ने हिंसा भी फैलाई है. फिर चाहे आप 1966 में जलती दिल्ली याद कर लें या फिर चाहे 2016 का दादरी कांड देख लें. जहां अखलाक नाम के एक शख्स की कथित रूप से घर में गौमांस रखने की अफवाह पर जान ले ली गई. 1966 में दिल्ली में गौहत्या के खिलाफ बिल लाने के लिए संघ और विहिप द्वारा सर्वदलीय गौरक्षा महा अभियान समिति के नेतृत्व में एक बड़ा आंदोलन आयोजित किया गया था.
अलवर: गाय खरीद कर ले जा रहे लोगों पर हमला, एक की मौत
इस आंदोलन ने इतना हिंसक रूप लिया कि इसमें गुस्साए आंदोलनकारियों ने तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष के कामराज का घर तक फूंक डाला था. इस प्रदर्शन में शंकराचार्य नरेन्द्र देव तीर्थ, स्वामी करपात्री जी, रामचन्द्र बीर जैसे हिन्दू धर्माचार्य शामिल हुए, जिससे इस आंदोलन को बड़े स्तर पर हवा मिली. जिस आंदोलन में गौरक्षा के नाम पर लोगों को मारा जाए, उसके पक्ष में हमारे राष्ट्रपिता महात्मा गांधी तक खुश नहीं थे.
इसके अलावा गौरक्षा के नाम पर हिंसा फैलाने के मामले में 2016 में झारखंड में दो तस्करों को पीट पीटकर मार डाले जाने और बाद में उन्हें पेड़ पर लटका दिए जाने जैसे कई किस्से मौजूद हैं. यहां तक की गुजरात में भी गौ हत्या के नाम पर दलितों को पीटा गया, जिसके विरोध में दलितों ने मरी हुई गाय उठाने से इनकार कर दिया और जिला मुख्यालय तक के सामने मरी हुए गायें फेंक दी थीं.
गुजरातः गौ हत्या के गुनाह में होगी उम्रकैद
देश में कहां-कहां नहीं है बीफ खाने पर बैन
गौ हत्या को लेकर भले ही हमारे देश में कड़े कदम उठाए जाते रहे हों, लेकिन इसके बाद भी भारत सबसे ज्यादा 'बीफ' निर्यात करने वाले देशों की सूची में शामिल है. माना जाता है ऐसे बीफ का गोश्त बकरे, मुर्गे और मछली के गोश्त से सस्ता होना है. देश के 29 राज्यों में 18 राज्यों में गौ-हत्या पर या तो पूरी तरह से बैन है या फिर इसपर आंशिक रोक है. जबकि 10 राज्यों में गाय, बछड़ा, बैल, सांड और भैंस को काटने और उनका मांस खाने पर बैन नहीं है.
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