हाल के दिनों में महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश तथा देश के अन्य भागों में भी किसान आंदोलित और क्रोधित दिखाई पड़ रहे हैं. तात्कालिक कारण शायद किसी कृषि पदार्थ की गिरती कीमतें, कर्ज माफी की मांग या कोई स्थानीय समस्याएं हो सकती हैं, पर यह सभी इस तथ्य की ओर इशारा कर रहे हैं कि हमारी कृषि अर्थव्यवस्था अत्यंत ही चरमराई हुई हालत में हैं. इसके लिए केवल अभी की केंद्र या राज्य सरकारों को दोष देना अनुचित होगा.
वास्तव में कृषि की समस्या पिछले लगभग 30 वर्षों की नीतिगत उदासीनता का परिणाम है. जहां इस अवधि में उद्योग, व्यापार, वित्त और सेवाओं के क्षेत्र में मूलभूत और दूरगामी सुधार किए गए, कृषि की स्थिति आज भी लगभग 30 वर्ष पुराने ढर्रे में फंसी हुई है.
क्या है समस्या की जड़?
कृषि अर्थव्यवस्था की यह जड़ मूल रूप से तीन ताकतों के बीच में फंसी हुई है. सबसे पहली समस्या कृषि में भूमि, पूंजी और मजदूरी की विरोधाभासी नीतियों से उत्पन्न हुई है. दूसरा ग्रामीण परिवेश में पारंपरिक पूंजी (Rural commercial capital) और तीसरी ताकत है वैश्वीकरण (Globalization).
यदि मौलिक रूप से देखा जाए तो जमींदारी खत्म करने के साथ-साथ ग्रामीण भूमि बाजार भी लगभग समाप्त हो गए. अधिकांश राज्यों में कृषि भूमि की खरीद-फरोख्त अत्यंत ही पेचीदा प्रक्रिया है. यही नहीं, कृषि भूमि को कानूनी रूप से बटाई पर देने पर भी अधिकांश राज्यों में अनेक प्रतिबंध हैं.
परिणाम यह हुआ कि ग्रामीण परिवार के इस एकमात्र पूंजी या संपत्ति के दोहन पर अनेक प्रकार के अंकुश लगा दिए गए. इससे न तो वह स्वयं अपनी आजीविका आसानी से चला पाता है और न ही कानूनी रूप से अपनी भूमि को दूसरे को किराए पर दे सकता है.
परिणामस्वरूप, सरकारी सर्वेक्षणों में यह पाया गया है कि 90 प्रतिशत से ऊपर बटाई पर दी गई भूमि केवल मौखिक सहमति पर दी जाती है और किराएदार के पास कानूनी संरक्षण भी नहीं होता.
यह भी सच है कि कृषि के लिए बटाई पर भूमि लेने वाले 80 प्रतिशत से अधिक परिवार छोटे और सीमांत कृषक होते हैं. कानूनी लीज नहीं रहने के कारण ऐसे परिवार ऊंची दरों पर कृषि भूमि बटाई पर लेने के लिए मजबूर हो जाते हैं और भूस्वामी उन्हें किसी भी समय बेदखल कर सकता है. अनुमान है कि देश में लगभग 30 प्रतिशत रकबा इस प्रकार की बटाई पर ली गई भूमि के तहत है और यही कारण है कि अधिकांश फसलों में हमारी उत्पादकता आदर्श से लगभग 50 प्रतिशत स्तर पर है.
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अगर पूंजी, अर्थात कृषि के लिए आवश्यक धनराशि, की ओर देखें तो रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया का स्वयं मानना है कि मात्र 60 प्रतिशत किसानों को ही बैंकों या सहकारी समितियों से कृषि ऋण प्राप्त होता है. यानी बाकी 40 प्रतिशत आज भी साहूकार, बड़े भूमी स्वामी या व्यापारियों से कर्ज लेकर खेती करते हैं. इन स्रोत से प्राप्त होने वाली पूंजी औसतन 24 से 36 प्रतिशत प्रति वर्ष की दर से प्राप्त होती है. रिजर्व बैंक ने यह भी बताया है कि लघु और सीमांत कृषक वर्ग को बैंकों और सहकारी समितियों से कृषि ऋण प्राप्त करने में अत्यधिक कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है.
वर्ष 2013 के आंकड़ों के अनुसार मात्र 15 प्रतिशत लघु और सीमांत कृषक परिवार बैंकों या सहकारी समितियों से कृषि हेतु कर्ज प्राप्त कर सके. इसी प्रकार की विडंबना कृषि मजदूरी संबंधित नीतियों में है. जहां एक ओर विशेषज्ञ यह मानते हैं कि नैसर्गिक संसाधनों का पूर्ण दोहन करने के लिए व्यापक पैमाने पर आधुनिक कृषि यंत्र किसानों को उपलब्ध कराना चाहिए वहीं सरकारें झिझकती है कि कहीं ऐसा करने से बड़े पैमाने पर कृषि मजदूर बेकार न हो जाएं. इसलिए कृषि यंत्रीकरण के प्रति सरकारी नीतियां पिछले तीन दशकों में उदासीन रही हैं.
वैश्वीकरण ने भी किया असर
हालांकि भारत जैसे देश में कृषि क्षेत्र में वैश्वीकरण प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित नहीं करता है लेकिन अनुभव यह कहता है कि अप्रत्यक्ष रूप से वैश्वीकरण के चलते कृषि पर प्रतिकूल प्रभाव पडा है. उदाहरण के लिए भारतीय अर्थव्यवस्था जैसे-जैसे अंतर्राष्ट्रीय व्यापार संगठन और ऐसी ही अन्य विश्वस्तरीय संस्थाओं और व्यवस्थाओं से जुड़ी, इसे कई प्रकार के अनुशासन का पालन करना पड़ा. इनमें से एक प्रमुख पहलू है वित्तीय अनुशासन, अर्थात सरकार पर अपना आर्थिक घाटा कम करने का दबाव. इसके फलस्वरूप पिछले 30 वर्षों में राष्ट्रीय तथा राज्य स्तर पर अनेक विकास योजनाओं में व्यापक कटौती की गई है.
कृषि क्षेत्र इस प्रक्रिया का बड़ा भुक्तभोगी है. विशेष रूप से इस कटौती का परिणाम लघु और सीमांत कृषकों पर गाज बनकर गिरा है क्योंकि माध्यम या बड़े वर्ग के कृषक अन्य स्रोतों से भी अपनी आजीविका प्राप्त कर लेते हैं.
चीन के उदाहरण को यदि देखा जाए तो उनकी विकास यात्रा 1990 में कृषि क्षेत्र में सुधारों से प्रारंभ हुई थी. सबसे पहले उदारीकरण की नीतियां कृषि क्षेत्र में लागू की गईं थी. जिससे बड़ी संख्या में ग्रामीण परिवार इसके लाभकारी बने और आगे चलकर उन्होंने औद्योगिक और अन्य क्षेत्र में लाए गए सुधारों का भरपूर समर्थन किया.
देश बदला, किसान का जीवन नहीं
भारत में कृषि को नज़रअंदाज करते हुए अन्य क्षेत्रों में उदारीकरण की नीतियां तो अपनाई गईं लेकिन व्यापक पैमाने ग्रामीण क्षेत्रों में इसके प्रति समर्थन नहीं दिखता है. किसानों ने देखा कि शहरों में रहे वाले लोग एक पीढ़ी में पहले से बहुत बेहतर आर्थिक भौतिक प्रगति का लाभ ले रहे परंतु ग्रामीण क्षेत्रों में उस स्तर का बदलाव नहीं आया.
कृषि वास्तव में फायदे का धंधा नहीं रहा है परंतु इसके मूल कारणों, जिनका हमने संक्षिप्त में वर्णन किया है, के प्रति उदासीनता ही दिखती है.
जब तक इन मौलिक सुधारों की ओर सरकारें अपना ध्यान केंद्रित नहीं करेंगी समय-समय पर ग्रामीण गुस्सा इसी प्रकार जगह-जगह फूटता रहेगा.
(लेखक पूर्व आईएएस अधिकारी हैं)
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