मोदी सरकार की 'फेक न्यूज' पर बचकानी कोशिश ने वैश्विक समस्या से पैदा हुई गंभीर स्थिति की तरफ हमारा ध्यान दिलाने के साथ ही इस संवेदनशील मुद्दे पर कदम न उठाने की कमजोरी भी उजागर की है. प्रधानमंत्री ने भले ही आशंकाओं को समाप्त करने के लिए सूचना व प्रसारण मंत्रालय के प्रस्ताव को फटाटफट रोलबैक करा दिया, लेकिन जिस पहेली को हल करने के लिए यह कदम उठाया गया, वह और उलझ गई है.
पत्रकारों के एक वर्ग ने आशा के अनुरूप इस मौके को लपकते हुए इमरजेंसी पार्ट-2 के खतरे का मुद्दा खड़ा कर दिया. भारतीय लोकतंत्र के सबसे शर्मनाक लम्हे से तुलना करते हुए इसे बोलने की आजादी पर रोक लगाने की कवायद कहा गया. दरअसल फेक न्यूज का बड़ी चालाकी से मीडिया की आजादी के साथ घालमेल कर दिया जाता है, और झूठेपन के खिलाफ लड़ाई को शातिराना तरीके से 'पत्रकारीय कर्म पर करारी चोट' करार दे दिया गया.
अचंभे की बात है कि कई मीडिया महारथी, जो फिलहाल सरकार के खिलाफ मोर्चा खोले हुए हैं, पूर्व में खुद ही फेक न्यूज के खिलाफ कदम उठाने की मांग कर चुके हैं.
यह अकेला मामला नहीं है. ऐसा पाखंड हमारे सार्वजनिक विमर्श में जगह-जगह दिखाई देता है. उदाहरण के लिए दिल्ली यूनिवर्सिटी की स्टूडेंट गुरमेहर कौर, जिन्हें मीडिया में 'अभिव्यक्ति की आजादी की कट्टर समर्थक' के तौर पर महिमामंडित किया जाता है, ने पिछले साल दो किशोरों को जेल भिजवाने की धमकी दी थी और इंटरनेट पर फॉरवर्ड की गई एक सामग्री को 'मानहानि' मानते हुए पुलिस में शिकायत दर्ज कराई थी. कोई भी यही कहेगा कि 'अभिव्यक्ति की आजादी की कट्टर समर्थक' को आलोचना के प्रति थोड़ी और सहनशीलता दिखानी चाहिए थी .
मोदी के इस कदम ने जाहिर तौर पर षड्यंत्रों में दरार पैदा कर दी है. कुछ का कहना है कि प्रधानमंत्री 'जनता में गुस्से की लहर' के चलते यह कदम उठाने पर मजबूर हुए, जबकि कुछ इसके पीछे चुनावी साल में जरूरत पड़ने पर पत्रकारों के खिलाफ बड़ा कदम उठाने से पहले 'पत्रकारों की प्रतिक्रिया परखने' की शातिर चाल देखते हैं. इसके जवाब में कुछ टिप्पणीकारों ने वापस ली गई गाइडलाइंस पर प्रतिक्रिया दी, 'मीडिया संगठनों को ट्रोल्स, नौकरशाहों और राजनेताओं के रहमोकरम पर छोड़ दिया है…' कुल मिलाकर गाल बजाने वालों की कमी नहीं है.
हम यह सब पहले भी देख चुके हैं. जब से मोदी अहमदाबाद से दिल्ली आए हैं, बीते चार सालों में 'अभिव्यक्ति की आजादी पर हमले' का मुद्दा अलग-अलग बहानों से कई बार उठाया जा चुका है. यह नवीनतम मामला भी उतना ही फेक है, जितनी कि कोई फेक न्यूज खुद होती है.
दूसरी तरफ बीजेपी संवाद स्थापित करने में खुद ही लड़खड़ा रही है. इसने इस्लामिक स्टेट द्वारा मार डाले गए भारतीयों की दफना दी गई लाशें ढूंढ निकालने का शानदार कारनामा किया है, लेकिन माहौल बनाने के मोर्चे पर मात खा रही है. इसने एससी/एसटी अधिनियम की कानूनी लड़ाई में अपना रुख कड़ा किया है, लेकिन पता नहीं किस तरह दलित-विरोधी ठहराई जा रही है ?
फेक न्यूज के मुद्दे पर भी, मोदी सरकार ने अपने ही पाले में गोल दाग दिया है. प्रधानमंत्री ने गाइडलाइंस को अस्पष्टता और दुरुपयोग की आशंका के चलते वापस लेने का फैसला लिया. और ज्यादा पहरेदारों (वह सरकार नियंत्रित नहीं हों, तो भी) की नियुक्ति से फेक न्यूज की समस्या और बढ़ेगी, जो कि सूचना के प्रसारण के तर्क के साए तले पलती है.
इस बीच 'दोस्त भी, दुश्मन भी' के रुटीन खेल में पार्टी भ्रमित और विरोधाभासी दिखाई देती है. नीतियां बनाने का यह कोई तरीका नहीं है. देश के नागरिक सरकार से आंदोलनकारी भूमिका की अपेक्षा नहीं करते. उनका जनादेश ऐसी नीतियां बनाने के लिए है, जिनमें एकरूपता और स्थिरता हो. अगर सरकार को लगता था कि फेक न्यूज की समस्या का समाधान किया जाना चाहिए तो एक मसौदा बनाकर इससे प्रभावित होने वाले प्रमुख पक्षकारों से राय लेने से इसे किसने रोका था? सरकार ने नेट न्यूट्रलिटी पर काबिलेतारीफ काम किया था. वही तरीका यहां क्यों नहीं अपनाया गया?
फेक न्यूज गलत सूचनाओं का प्रसार करके लोकतांत्रिक व्यवस्था में मीडिया को दी गई आजादी का दुरुपयोग करती है, जो समाज पर गंभीर हानिकारक असर डाल सकती है. विभिन्न जातियों, आस्थाओं, जनजातियों और संस्कृतियों वाले भारत जैसे देश में यह खतरा कई गुना बढ़ जाता है.
इसलिए न्यूज के कंज्यूमर को शोषण और कपटपूर्ण तरीके से शिकार बनाए जाने के लिए असहाय नहीं छोड़ा जा सकता. अगर न्यूज कंटेंट (सामग्री) है, जिसका लक्ष्य उपभोक्ता (विशाल जनता) है तो निश्चित रूप से इस कंटेंट को इसे मुहैया कराने की तयशुदा गाइडलाइंस के भीतर होना चाहिए. गाइडलाइंस का पालन किया जाना, तब तक नहीं होगा, जब तक पत्रकार को जरा भी जिम्मेदार नहीं ठहराया जाएगा. सत्तासीन लोगों पर सवाल उठाने वाले पत्रकार खुद के लिए कोई जवाबदेही नहीं होने का दावा नहीं कर सकते, क्योंकि ऐसी सोच उनके हाथ में बेलगाम ताकत दे देगी, जिसका वह बार-बार दुरुपयोग करेंगे.
सवाल यह है कि एक लोकतंत्र में मीडिया को किस तरह जिम्मेदार बनाया जाए. आत्म-नियमन स्वाभाविक उत्तर है, लेकिन अगर आत्म-नियमन असरदार होता तो फेक न्यूज की बीमारी सिर नहीं उठाती. यह सोचना फिजूल है कि फेक न्यूज सिर्फ डिजिटल प्लेटफॉर्म की बीमारी है और अकेले बीजेपी से जुड़ी हुई है, जैसा कि कई मीडिया महारथी आपको यकीन दिला चुके होंगे. पुराने दौर का पारंपरिक मीडिया धड़ल्ले से फेक न्यूज चला चुका है.
2015 में चर्च पर हमले की फेक न्यूज ने संभवतः दिल्ली में आम आदमी पार्टी की एकतरफा जीत में मदद की होगी. जैसा की अर्थशास्त्री और टिप्पणीकार रूपा सुब्रह्मण्या फ़र्स्टपोस्ट में लिखे एक लेख में कहती हैं: 'हालांकि चर्च पर हमले की खबर के वास्तविक असर का आकलन कर पाना मुश्किल है, लेकिन चर्च पर हमले का मुद्दा हाल में संपन्न हुए दिल्ली विधानसभा चुनाव में उठा था, जिसमें आप और अरविंद केजरीवाल को एकतरफा जीत मिली थी. ऐसा लगता है कि अल्पसंख्यक समुदाय के मुसलमानों और ईसाइयों ने आप को जबरदस्त समर्थन दिया और चर्च के प्रमुखों ने यह कभी नहीं छिपाया कि उनकी पहली पसंद आम आदमी पार्टी ही थी.'
उन्होंने बहुत बारीकी से यह साबित किया कि 'चर्च पर हमले' की तथाकथित खबर बीजेपी के खिलाफ मीडिया के एक हिस्से, एक्टिविस्टों और धार्मिक प्रमुखों की असंयोजित, छिटपुट घटनाओं को मसालेदार तरीके से पेश करने कोशिश थी, जिसकी तथ्यों से पुष्टि नहीं हो सकी. यह फेक न्यूज का सबसे सटीक उदाहरण है, और इसका खासा असर पड़ा था.
न्यूयार्क टाइम्स ने मोदी और उनकी चुनिंदा खामोशी पर एक लंबे संपादकीय में सवाल उठाए हैं. राइटर्स ने भारत में एक ईसाई को यह कहते हुए उद्धृत किया हैः 'हमें उत्पीड़न के खिलाफ अपनी आवाज उठानी होगी. ईसाई यह बेइज्जती बर्दाश्त नहीं करेंगे.' इसके साथ ही राइटर्स की खबर में पश्चिम बंगाल में 75 साल की नन के साथ बलात्कार का जिक्र था, जिसे शुरुआत में हिंदुत्ववादी संगठनों के दुस्साहसी लोगों की निंदनीय कार्रवाई बताया गया. ईसाई समुदाय के एक रिटायर्ड पुलिस अफसर ने इंडियन एक्सप्रेस में कॉलम में लिखा, 'मैं अपने ही देश में अचानक अजनबी हो गया हूं.'
भारत में एक प्रभावशाली ईसाई संगठन के अध्यक्ष कार्डिनल बेसिलियस क्लीमिस ने टेलीग्राफ में प्रकाशित लेख में वृद्ध नन से बलात्कार की घटना का जिक्र करते हुए कहा, 'हमें गायों की हिफाजत के साथ ही इंसानों की हिफाजत भी करनी चाहिए.'
इससे पहले कि पुलिस की जांच किसी नतीजे पर पहुंच पाती पत्रकार राना अय्यूब ने डेली ओ में लिखाः 'यह नन पर हमला नहीं, बल्कि पूरे समुदाय पर हमला है, जिसने इन आतंकवादियों के गिरोह के हुक्म के आगे घुटने टेकने से इंकार कर दिया है. नहीं मोहन भागवत, ये आतंकवादी पड़ोसी बांग्लादेश के घुसपैठिये नहीं हैं. यह 'हरामजादों' के खिलाफ फैलाई गई नफरत से प्रेरित हमारे ही शैतान हैं.'
कुछ महीने बाद इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के अनुसार कोलकाता में एक अदालत में साबित हुआ कि 75 वर्षीय नन से बलात्कार एक बांग्लादेशी नागरिक ने किया था. कॉन्वेंट में डकैती के लिए नजरुल इस्लाम समेत पांच आरोपी दोषी ठहराए गए. गोपाल सरकार नाम का छठा शख्स पांचों अपराधियों को अपने घर में पनाह देने का दोषी पाया गया.
और हमें यकीन दिलाया जाता है कि फेक न्यूज के दुकानदानर पोस्टकार्ड न्यूज के एडिटर महेश हेगड़े जैसे लोग हैं, जिसके लिए कर्नाटक की कांग्रेस सरकार ने उनको जेल में डाल दिया है. यही कांग्रेस इसी समय मोदी सरकार पर मीडिया का गला घोंटने का आरोप लगा रही थी. फेक न्यूज का अस्तित्व इसलिए है, क्योंकि जब भी उत्तरदायित्व की बात आती है, पत्रकार संदिग्ध तरीके से 'आत्म-नियमन' करने का दिखावा करके इसकी कपटपूर्ण आड़ ले लेते हैं. इसके अनगिनत उदाहरण हैं. इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन में गड़बड़ी किए जाने के आरोपों की खबरें बड़े पैमाने पर फैलाई गईं तथा विपक्ष भी एक और फेक न्यूज गाथा गढ़ने में शामिल हो गया. बाद में पता चला कि यह पूरा विवाद तथ्यों को गलत तरीके से पेश किए जाने से पैदा हुआ था.
मीडिया की अंतरात्मा के रखवाले की भूमिका निभाने की ख्वाहिश रखने वाले एडिटर्स गिल्ड ऑफ इंडिया ने कितने रिपोर्टरों से जवाब तलब किया? चूंकि मोदी ने ऐसे मामलों को प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया में निपटाए जाने को कहा है, गिल्ड ने संकेत दिया कि 'संस्था (PCI) की स्वतंत्रता' और इसकी स्वतंत्र अंपायर की भूमिका निभाने की क्षमता को सीमित करके सरकार मीडिया की आवाज बंद करना चाहती है.
गिल्ड को खुद से पूछना चाहिए कि: क्या इसे नैतिकता की दुहाई देते हुए ऐसे सवाल उठाने का हक है, जबकि इसका खुद का आचरण पारदर्शी नहीं है और मीडिया जगत में तेजी से आते बदलावों को देखते हुए क्या यह इसका प्रतिनिधित्व करती है?
जैसा कि आर. जगन्नाथन स्वराज्यमैग में सवाल उठाते हुए लिखते हैं कि गिल्ड की 'संरचना मोटे तौर पर पुराने जमाने के संभ्रांत लोगों से भरे फॉसिल जैसी है, जो इससे जुड़े नामों पर एक नजर डालने से साफ हो जाती है. गिल्ड द्वारा मुहैया कराई गई लिस्ट को एकदम नीचे से देखिए. सन 2017 की शुरुआत में कुलदीप नैयर और मृणाल पांडेय जैसे इसके ‘विशेष आमंत्रित’ सदस्य हैं. इनमें पहले शख्स की उम्र 94 साल है, जिनका सुनहरा दौर 70 के दशक में इमरजेंसी के साथ ही खत्म हो चुका है. दूसरी शख्स औपचारिक रूप से कांग्रेस की गतिविधियों से जुड़ी हैं और उन्हें हाल ही में पार्टी माउथपीस नेशनल हेराल्ड की ग्रुप एडिटर बनाया गया है.'
लेखक यह सवाल भी उठाते हैं कि गिल्ड की 'मुश्किल से ही कभी बैठक होती है” और यह 'बमुश्किल एक संस्था की शर्तें पूरी करता है.' जिन बातों की यह वकालत करता है, उनके मानकों को यह खुद भी पूरा नहीं करता, लेकिन अब अपनी प्रासंगिकता दिखाने के लिए यह गरज-बरस रहा है. लेकिन इसे इससे कुछ ज्यादा किए जाने की जरूरत है.
केंद्रीय प्रश्न अब भी बाकी है. राजनीतिक वैचारिक झुकाव के चलते फेक न्यूज का उत्पादन नए और पुराने मीडिया, दोनों द्वारा किया जाता है. उत्तरदायित्व की कमी के कारण, इस प्रवृत्ति पर कभी रोक नहीं लग पाएगी. अगर संस्था के अंदर से उत्तरदायित्व का निर्धारण नहीं किया जाता तो मीडिया अपनी ही साख गिराएगा और बाहरी हस्तक्षेप का रास्ता आसान बनाएगा.
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