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बढ़ते वायु प्रदूषण से भारत में बिना सिगरेट पिए भी कैसे हर कोई बन गया स्मोकर?

वायु प्रदूषण के खिलाफ जागरूकता की मुहिम लाने में जुटे डॉ. अरविंद कुमार के मुताबिक, पूरे साल दिल्ली में पीएम2.5 मानक का स्तर 200 से ज्यादा होता है, जो हर किसी के 10 सिगरेट से ज्यादा पीने के बराबर है. नवजात बच्चों के मामले में भी यह बात लागू होती है

Updated On: Nov 11, 2018 10:44 AM IST

Rashme Sehgal

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बढ़ते वायु प्रदूषण से भारत में बिना सिगरेट पिए भी कैसे हर कोई बन गया स्मोकर?

राष्ट्रीय राजधानी के आस-पास के राज्यों में पराली जलाए जाने से पिछले कुछ हफ्तों में दिल्ली की हवा काफी खराब हुई है. हालांकि, इस घटनाक्रम के बाद जब राजधानी दिल्ली की हवा की गुणवत्ता में सुधार होने के संकेत दिखने लगे, तो दिवाली के दौरान जमकर हुई आतिशबाजी के कारण यहां फिर से हवा की गुणवत्ता बेहद खतरनाक स्तर पर पहुंच गई. यहां तक कि इंडिया गेट जैसे इलाके में दिवाली के बाद एक्यूआई (एयर क्वालिटी इंडेक्स) का स्तर 999 (बेहद खतरनाक) तक पहुंच गया.

फेफड़ों से संबंधित प्रयोग के खतरनाक नतीजे सामने आए

दिल्ली में वायु प्रदूषण की स्थिति कितनी गंभीर है, इसे दिखाने के लिए सर गंगा राम अस्पताल में सेंटर फॉर चेस्ट सर्जरी के चेयरमैन डॉ. अरविंद कुमार ने एक दिलचस्प प्रयोग किया. उन्होंने अस्पताल के बाहर एक जोड़ा फेफड़ा इंस्टॉल किया. डॉ. कुमार ने HEPA (हाई एफिशिएंसी पार्टिक्युलेट एयर) फिल्टरों की मदद के जरिए कृत्रिम तरीके से मानवीय फेफड़ा तैयार किया. साथ ही, मानवीय फेफड़े की कार्यप्रणाली की नकल के लिए इन फेफड़ों को फैन के साथ फिट किया गया. इसे लगाने के 6 दिन के बाद ही फेफड़ों को पूरी तरह से काला पाया गया. डॉ. कुमार लंग केयर फाउंडेशन के प्रमुख भी हैं.

डॉ. कुमार ने बताया, 'हमने सोचा था कि फेफड़ों को काला होने में कम से कम एक महीना लगेगा, लेकिन महज 24 घंटे में फेफड़ों का रंग बदल गया. छठे दिन फेफड़े पूरी तरह से काले हो गए थे.'

Lungs Installed Hospital In Delhi

राजधानी में आबो-हवा की बिगड़ती स्थिति के लिए डॉ. कुमार वायु प्रदूषण से निपटने में कई स्तरों पर शहर के प्रशासन की नाकामी को जिम्मेदार मानते हैं. उनके मुताबिक, पूरे साल दिल्ली में पीएम2.5 मानक का स्तर 200 से ज्यादा होता है, जो 10 सिगरेट से ज्यादा पीने के बराबर है और यहां तक कि नवजात बच्चों के मामले में भी यह बात लागू होती है.

उनकी राय में इसका मतलब कुछ इस तरह है, 'भारत में कोई भी धूम्रपान से अछूता नहीं है. हम सभी स्मोकर यानी धूम्रपान करने वाले बन चुके हैं.' उन्होंने कहा, 'यह आम लोगों, अधिकारियों, संगठनों के स्तर पर इस तथ्य को समझने में नाकामी का मामला है कि सांस लेना जानलेवा बन चुका है. असल बात यही है.'

डॉ. कुमार का कहना है कि लंग केयर फाउंडेशन की कमान संभालने के बाद से वो नेताओं, धार्मिक संगठनों, राज्य सरकारों और केंद्र सरकारों से इस संबंध में कदम उठाने की अपील कर रहे हैं, लेकिन अब तक इसका कोई नतीजा नहीं निकला है. उन्होंने बताया, 'हम प्रदूषण को नियंत्रित करने के लिए ग्रेडेड रेस्पॉन्स एक्शन प्लान (GRAP) जैसे सतही उपाय की बजाय तत्काल और गंभीर कदम उठाने की मांग कर रहे हैं.'

पिछली दिवाली के मुकाबले इस बार प्रदूषण में भयंकर बढ़ोतरी

डॉ. कुमार का दावा है कि इस साल यानी हाल में संपन्न दिवाली के बाद के पहले दिन का प्रदूषण स्तर 2017 में दिवाली के पहले दिन के मुकाबले और भी खराब था. इससे भी चिंताजनक बात यह है कि पटाखा फोड़ने के संबंध में सुप्रीम कोर्ट के सख्त आदेशों के बावजूद इस तरह की परिस्थिति बनी.

यहां पर एक दिलचस्प और अहम सवाल भी पैदा होता है, जिसके बारे में आतिशाबाजी पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला आने के बाद कई लोग पूछ रहे हैं. क्या सुप्रीम कोर्ट का आदेश पूरी तरह लागू करने के योग्य था? डॉ. कुमार इस बहस में नहीं पड़ना चाहते. हालांकि, उनका कहना था कि ग्रीन पटाखों को लेकर काफी गलतफहमी है और अदालत को इन चीजों के बारे में सब कुछ नहीं बताया गया.

Crackers Burst in Delhi-NCR

इस साल दिवाली की अगली सुबह वायु प्रदूषण के मामले में 2017 की दिवाली से भी ज्यादा खतरनाक थी (फोटो: पीटीआई)

उन्होंने कहा, 'वन और पर्यावरण मंत्रालय ने सुप्रीम कोर्ट में हलफनामा दिया कि नीरी और सीएसआईआर ऐसे ग्रीन पटाखे बना रहे हैं, जिसमें पार्टक्युलेट मैटर (पीएम) का प्रतिशत कम होता है. हमने इसलिए इस हलफनामे का विरोध किया, क्योंकि सुप्रीम कोर्ट को इस बात की जानकारी नहीं दी गई कि ग्रीन पटाखों में भी 30-40 फीसदी तक पीएम का स्तर था. अदालत को इस तथ्य से भी अवगत कराना चाहिए था कि ग्रीन पटाखे बाजार में उपलब्ध नहीं हैं. हालांकि, मीडिया ने इसे ठीक से पेश नहीं किया. सुप्रीम कोर्ट ने पटाखों पर प्रतिबंध लगा दिया. दरअसल, अगर आप आदेश के मायने को देखें तो इसने एक तरह से सभी तरह के पटाखों पर पाबंदी लगी दी, क्योंकि ग्रीन पटाखे बिल्कुल उपलब्ध नहीं थे.'

नेताओं, धर्मगुरुओं सभी को मिलकर करना होगा काम

डॉ. कुमार ने इस बात पर अफसोस जताया कि सुप्रीम कोर्ट के आदेश को नेताओं, धार्मिक प्रतिनिधियों या अन्य शख्सियतों से किसी तरह का समर्थन नहीं मिला. उनका कहना था कि उन्होंने श्रीश्री रविशंकर, श्री जग्गी वासुदेव और राधा स्वामी सत्संग के प्रमुख समेत कई प्रभावशाली धर्मगुरुओं को भी इस मामले में सक्रिय करने की कोशिश की, लेकिन उन्हें इस मामले में कुछ खास सफलता नहीं मिली.

डॉ. कुमार का कहना था, 'अगर राजनीतिक पार्टियों के नेता और धर्मगुरु लोगों से इस बारे में अपील करते, तो मुमकिन था कि लोग पटाखा जलाने से परहेज करते. साथ ही, दिल्ली पुलिस भी इसको लेकर और सख्त हो सकती थी. जहां-जहां दिल्ली पुलिस के एसएचओ सक्रिय रहे, उन क्षेत्रों में पटाखा जलाने के मामले में काफी नियंत्रण देखा गया. हालांकि, कुल मिलाकर यह लोगों की खुद की बड़ी असफलता थी और उन्होंने अपने बच्चों की कीमत पर मजे करने का विकल्प चुना.'

डॉ. कुमार ने कहा कि वायु प्रदूषण का छोटे बच्चों पर सबसे ज्यादा असर पड़ता है. इससे उनके फेफड़ों और दिमाग का विकास बाधित हो सकता है और कैंसर जैसी घातक बीमारी भी हो सकती है. दरअसल, विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) की एक हालिया रिपोर्ट में बताया गया कि 2016 में 5 साल से कम के 6,20,000 बच्चों की मौत वायु प्रदूषण के कारण हुई. उसके मुताबिक, भारत वायु प्रदूषण से निपटने के मामले में चीन से काफी कुछ सीख सकता है.

वायु प्रदूषण का सबसे ज्यादा शिकार बच्चे और बुजुर्ग होते हैं

वायु प्रदूषण का सबसे ज्यादा शिकार बच्चे और बुजुर्ग होते हैं

उन्होंने कहा, 'चीन ने प्रदूषण से लड़ने के लिए काफी कम समय में नीतियां तैयार कर उसे पेश किया और उसके बाद इन नीतियों का सख्ती से पालन सुनिश्चित किया. बीजिंग और शंघाई जैसे चीन के शहरों की हवा वैश्विक स्तर पर काफी प्रदूषित थी, लेकिन इन शहरों की हालत में काफी हद तक सुधार हुआ है.'

हालांकि, इस सुधार के लिए लोगों को इस बात की जानकारी होना और उन्हें इसे महसूस करना बेहद जरूरी है कि प्रदूषण उनके लिए जानलेवा है. उन्होंने कहा, 'इस स्थिति को उलटने में हमें परेशानी हो सकती है, लेकिन सबसे पहले हमें यह समझना होगा कि साफ हवा हमारा मौलिक अधिकार है. इसके बाद ही इस मोर्चे पर चीजें बेहतर होनी शुरू होंगी.'

समस्या को जड़ से खत्म करने के लिए GRAP प्लान नाकाफी

डॉ. कुमार का कहना है कि GRAP जैसे प्लान आपतकालीन हालात का आपतकालीन जवाब हैं और इससे इस गंभीर बीमारी के उन्मूलन (छुटकारा) में मदद नहीं मिलेगी. उन्होंने कहा, 'GRAP 10 दिन तक निर्माण कार्य रोक देगा, लेकिन क्या निर्माण कार्य को हमेशा के लिए रोका जा सकेगा? प्रदूषण का स्थाई जरिया धूल और धुआं हैं. इसे नियंत्रण में लाने की जरूरत है और इसके लिए हमें रॉकेट साइंस की जरूरत नहीं है. हालांकि, इसमें हमें कुछ पैसों की आवश्यकता है.'

बहरहाल, इस मोर्चे पर कारगर तरीके से काम करने के लिए राजनीतिक इच्छाशक्ति भी उतना ही आवश्यक है और इसके बिना सोचा-समझा प्लान भी बेकार हो जाता है. उन्होंने बताया, 'हमारे पास 500 कोयला आधारित थर्मल प्लांट हैं, जिनके लिए उत्सर्जन मानक 30 से 40 साल पहले तय किए गए थे. पर्यावरण और वन मंत्रालय ने मानक तय करते हुए कहा कि उत्सर्जन के स्तर को 31 दिसंबर, 2017 तक घटाया जाए. हालांकि, ऊर्जा मंत्रालय ने आगे बढ़ते हुए उत्सर्जन को कम करने का मामला टाल दिया और कहा कि इसे 31 दिसंबर, 2022 तक ही घटाया जा सकेगा.'

न सिर्फ दिल्ली बल्कि पूरे भारत में वाहनों के लिए यूरो 6 उत्सर्जन मानक को लागू कर बदलाव लाया जा सकता है. साथ ही, वायु प्रदूषण से निपटने में किसी प्रोजेक्ट को मंजूर करने से पहले पर्यावरण पर इसके असर का आकलन जरूरी है.

Delhi Traffic

दिल्ली में वायु प्रदूषण का एक बड़ा कारण वाहनों के बढ़ती संख्या है. यहां एक करोड़ से अधिक वाहन रजिस्टर्ड हैं

डॉ. कुमार का कहना था, 'अमेरिका में जब आप कोई प्लांट शुरू करते हैं, तो सबसे पहले पर्यावरण पर इसके असर का आकलन किया जाता है. प्रगति मैदान के आसपास चल रहे निर्माण कार्य को देखिए. यह सुप्रीम कोर्ट और दिल्ली हाईकोर्ट, दोनों के करीब है और संसद से महज 2 किलोमीटर की दूरी पर मौजूद है, लेकिन किसी नेता या जज की नजर इस बात पर नहीं गई कि इस निर्माण कार्य को किस तरह से पर्यावरण संबंधी मंजूरी दी गई. दरअसल, इच्छाशक्ति की कमी है. हम कुछ फायदे के लिए इस पहलू को नजरअंदाज कर देते हैं और यह भूल जाते हैं कि यह फायदे हमारे स्वास्थ्य की कीमत पर हासिल किए जा रहे हैं. जब तक हम जागेंगे, तब तक काफी देर हो चुकी होगी.'

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