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बस्तर सीरिज: नोटबंदी का माओवादियों पर मामूली असर, उगाही आज भी फंडिंग का मुख्य जरिया

समस्या से सीधे-सीधे निबटने और नक्सलियों के वित्तीय संसाधनों की राह रोकने के लिए सरकार ने एक बहुमुखी एक्शन ग्रुप बनाया है

Updated On: Jul 28, 2018 09:20 AM IST

Debobrat Ghose Debobrat Ghose
चीफ रिपोर्टर, फ़र्स्टपोस्ट

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बस्तर सीरिज: नोटबंदी का माओवादियों पर मामूली असर, उगाही आज भी फंडिंग का मुख्य जरिया

(एडिटर्स नोट: इस साल अप्रैल में, गृह मंत्रालय ने वामपंथी अतिवाद से ग्रस्त जिलों में से 44 जिलों के नाम हटा लिए थे. ये इस बात का इशारा था कि देश में माओवादी प्रभाव कम हुआ है. ये एक ऐसी बहुआयामी रणनीति का नतीजा है, जिसके तहत आक्रामक सुरक्षा और लगातार विकास के जरिए स्थानीय लोगों को माओवादी विचारधारा से दूर लाने के प्रयास किए जा रहे हैं. हालांकि, ये नक्सल प्रभावित इलाकों में माओवादियों के कब्जे का अंत नहीं है. खतरा अब भी जंगलों में छुपा हुआ है- हारा हुआ, घायल और पलटकर वार करने के लिए बेताब. माओवादियों के गढ़ में घुसकर अतिवादियों की नाक के ठीक नीचे विकास कार्यों को बढ़ाना प्रशासन के सामने असली चुनौती है. तो फिर जमीन पर असल स्थिति क्या है? फ़र्स्टपोस्ट के रिपोर्टर देवव्रत घोष छत्तीसगढ़ में माओवादियों के गढ़ बस्तर में यही देखने जा रहे हैं. बस्तर वामपंथी अतिवाद से सबसे ज्यादा बुरी तरह जकड़ा हुआ है और यहीं माओवादियों ने अपने सबसे बड़े हमलों को अंजाम दिया है. इस सीरीज में हम देखेंगे कि यहां गांवों में कैसे बदलाव आए हैं, गांव वाले इन बदलावों को लेकर कितने उत्सुक हैं और ये भी कि खत्म होने का नाम नहीं लेने वाले माओवादियों के बीच में विकास कार्यों को बढ़ाने की मुहिम में प्रशासन और सुरक्षा बल कितने खतरों का सामना करते हैं.)

केंद्रीय गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने पिछले साल मई महीने की एक बैठक में समस्या का सबसे सटीक समाधान सुझाते हुए कहा था कि माओवादियों के खिलाफ लड़ाई में जीत हासिल करने के लिए सबसे जरूरी है उनको हासिल वित्तीय संसाधनों की राह रोक देना.

छत्तीसगढ़ के सुकमा जिले में माओवादियों ने घात लगाकर भयानक हमला बोला था. इस हमले में अर्द्धसैनिक बल के 25 जवान शहीद हो गए. बैठक सुकमा जिले में हुए इस हमले के दो हफ्ते बाद हुई थी.

हमला कितना संगीन था इसका अंदाजा लगाइए कि इसमें निहत्थे नागरिक नहीं बल्कि सुरक्षाबल के 25 जवान मारे गए. जाहिर है इतना बड़ा हमला किसी नौसिखिए का काम नहीं हो सकता. ऐसे हमले के लिए पूरी योजना बनानी होती है, ऐसी योजना जिसमें वैसी ही सफाई और संतुलन हो जितना कि किसी फौजी रणनीति में होता है. साथ ही, इतने बड़े स्तर पर योजना को अंजाम देने के लिए पर्याप्त धन-संपत्ति की मदद भी हासिल होनी चाहिए.

कैसे चल रही है माओवादियों की आर्थिक दुनिया?

सवाल उठता है कि माओवादियों को धन कौन दे रहा है या यों कहें कि माओवादियों की आर्थिक दुनिया किस तरह चल रही है? नक्सल प्रभावित इलाकों में अभियान पर उतरी सुरक्षा एजेंसियों और सरकार दोनों को यह सवाल एक लंबे अरसे से परेशान करता रहा है.

साल 2016 के 8 नवंबर को नोटबंदी का एलान हुआ तो उम्मीद बांधी गई कि इससे माओवादियों की अर्थव्यवस्था की रीढ़ टूट जाएगी लेकिन दरअसल ऐसा हुआ नहीं.

समस्या से सीधे-सीधे निबटने और नक्सलियों के वित्तीय संसाधनों की राह रोकने के लिए सरकार ने एक बहुमुखी एक्शन ग्रुप बनाया है. इसमें अल-अलग केंद्रीय एजेंसियों तथा नक्सल समस्या से प्रभावित राज्यों के पुलिस महकमे के अधिकारियों को रखा गया है. इस ग्रुप की अगुवाई गृहमंत्रालय के अतिरिक्त सचिव (एडिशनल सेक्रेटरी) के हाथ में है. ग्रुप में खुफिया ब्यूरो, प्रवर्तन निदेशालय(ईडी), डायरेक्टरोट ऑफ रेवेन्यू इंटेलीजेंस, राष्ट्रीय जांच एजेंसी(एनआईए), केंद्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआई) और केंद्रीय प्रत्यक्ष कर बोर्ड के नुमाइन्दे रखे गए हैं. इसके अतिरिक्त सीआईडी और राज्यों के खुफिया विभाग के भी सदस्य ग्रुप में शामिल हैं.

छत्तीसगढ़ पुलिस के एंटी नक्सल ऑपरेशन के चीफ डीएम अवस्थी ने फ़र्स्टपोस्ट को बताया कि 'स्पेशल इंटेलीजेंस ब्रांच सूबे में माओवादियों की गतिविधियों और उन्हें हासिल वित्तीय संसाधनों की बड़ी बारीकी से निगरानी कर रहा है साथ ही ब्रांच का संपर्क केंद्र से बना हुआ है. हमने संदेह के घेरे में आए नक्सलियों के बैंक खाते जब्त किए हैं. झारखंड में तो ऐसे मामले में भी नजर आए हैं जब माओवादी नेताओं ने अपने निजी इस्तेमाल के लिए रकम उड़ा ली. ऐसे नक्सलियों के परिवार बड़े शहरों में मजे की जिन्दगी जी रहे हैं और उनके बच्चे भारत या भारत के बाहर मशहूर कॉलेजों में पढ़ाई कर रहे हैं.'

डीएम अवस्थी ने सीपीआई (माओवादी) के झारखंड-बिहार स्पेशल एरिया कमिटी के कुछ माओवादी नेताओं जैसे प्रद्युम्न शर्मा, संदीप यादव और अरविंद यादव के नाम गिनए. प्रद्युम्न शर्मा ने प्राइवेट मेडिकल कॉलेज में अपनी भतीजी का एडमिशन कराने के लिए 22 लाख रुपए के डोनेशन का भुगतान किया है जबकि अरविंद यादव ने अपने भाई का दाखिला प्राइवेट इंजीनियरिंग कॉलेज में कराने के लिए 12 लाख रुपए चुकाए हैं. प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) ने इन लोगों के खिलाफ प्रिवेन्शन ऑफ मनी लॉडरिंग एक्ट तहत मामला दर्ज किया है, इनकी 1.5 करोड़ रुपए की संपदा और 32 एकड़ जमीन का पता चला है, 2.45 करोड़ रुपए नकद जब्त हुए हैं जिसमें नोटबंदी के दौरान जब्त हुए 1 करोड़ रुपए शामिल हैं.

डीएम अवस्थी का कहना है कि 'तेंदू के पत्ते के व्यवसाय और सड़क निर्माण के काम से वसूली माओवादियों के लिए धन जुटाने का मुख्य स्रोत है. विचारधारा तो कब की पीछे छूट चुकी है और अब यह उनके लिए एक धंधे में तब्दील हो गया है. अनुमान है कि बस्तर में माओवादियों की अर्थव्यवस्था 200-300 करोड़ रुपए की होगी.'

माओवादियों द्वारा उड़ाई गई सड़क (सभी तस्वीरें: देवव्रत घोष)

माओवादियों द्वारा उड़ाई गई सड़क (सभी तस्वीरें: देवव्रत घोष)

फंड जुटाने के स्रोत

आत्म-समर्पण कर चुके छत्तीसगढ़ के एक माओवादी का फ़र्स्टपोस्ट ने एक गुप्त जगह पर साक्षात्कार लिया. इस साक्षात्कार में पता चला कि माओवादी तेंदू पत्ता तोड़ने वाले लोगों, गांववालों और मजदूरों से लेवी वसूलते हैं. इसे प्रोटेक्शन मनी कहा जाता है. इसके अतिरिक्त माओवादियों के लिए धन कमाने का एक बड़ा जरिया माइनिंग के ठेकेदारों, पत्थर की ढुलाई करने वाले ऑपरेटर्स, ट्रांसपोर्टर्स और नक्सल-प्रभावित इलाकों में काम कर रहे उद्योगपतियों से वसूली करना है.

विकास और जबरिया वसूली का एक दुष्चक्र कायम हो चुका है. सरकार प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना और रोड रिक्वायरमेंट प्लान (आरआरपी) के तहत वामपंथी अतिवाद वाले इलाकों में बड़े जोर-शोर से सड़क बनाने पर तुली हुई है तो दूसरी तरफ सड़क-निर्माण का काम माओवादी कारकूनों के लिए धन उगाही का बड़ा जरिया बन गया है. आरआरपी के अंतर्गत बनने वाली सड़कें दंतेवाड़ा से सुकमा या बस्तर से नारायणपुर जैसी नक्सलियों के दबदबे वाली जगहों को जोड़ती हैं. माओवादियों के अगुआ (फ्रंटल) संगठन बड़े ठेकेदार, छोटे ठेकेदार और मजदूरों से लेवी और प्रोटेक्शन मनी के नाम पर भारी रकम वसूलते हैं. अमूमन पीपुल्स लिबरेशन गुरिल्ला आर्मी सरीखा हथियारबंद दस्ता इन मामलों में ठेकेदारों से सीधे संपर्क साधने से बचता है.

आत्म-समर्पण करने वाले माओवादी ने फ़र्स्टपोस्ट को एक विशेष साक्षात्कार में बताया कि 'सीपीआई(माओवादी)और इससे जुड़े अग्रणी मोर्चे के संगठनों के सदस्य अपने दबदबे वाले गांवों में जाते हैं और हर व्यक्ति से सालाना 100 रुपए लेते हैं. इसके अतिरिक्त तेंदू के पत्ते तोड़ने वाले हर शख्स से वे 100 रुपए लेते हैं, मजदूरों और सड़क-निर्माण के काम में लगे श्रमिकों और नए काम में शामिल होने वाले कामगारों से भी वे रुपए वसूलते हैं. लेकिन माओवादियों को सबसे ज्यादा रकम सड़कों के निर्माण तथा खनन के काम से जुड़े ठेकेदारों, पत्थर की ढुलाई करने वाले ऑपरेटर्स, ट्रांसपोर्टर्स और इलाके में काम-धंधा करने वाले उद्योगपतियों से मिलती है. माओवादी ये रकम वसूली के तौर पर उगाहते हैं.'

यह पूरी प्रक्रिया खुद अपने ही मकसद को खत्म करने की तासीर से भरी है. एक स्थानीय पत्रकार ने अपना नाम गुप्त रखने की शर्त पर बताया कि- 'ठेकेदार इस इलाके में सड़क बनाने के लिए सरकार से ज्यादा रकम बताते हैं क्योंकि उन्हें माओवादियों को प्रोटेक्शन मनी देना होता है और काम जोखिम भरा है. तो ऐसे में कह सकते हैं कि माओवादियों को अप्रत्यक्ष रूप से रकम सरकार से मिल रही है.'

पत्रकार ने यह भी कहा, 'माओवादी जानते हैं कि सड़क निर्माण के काम में सरकारी अधिकारी भुगतान की रकम जारी करने के लिए ठेकेदारों से कमीशन लेते हैं. हाल में ठेकेदारों ने हड़ताल की थी, वे अपने भुगतान की रकम जारी करने की मांग कर रहे थे. ऐसे हालात में माओवादी सड़क-निर्माण के काम से पैसा बनाने में जरा भी नहीं चूकते, वे धमकी का सहारा लेते हैं और सड़कों पर विस्फोट करके उसे उड़ा देते हैं. यह पूरी प्रक्रिया एक दुष्चक्र की तरह है.'

बस्तर के माओवादियों के लिए आमदनी का एक और जरिया है वनोपज और लकड़ियां. ऐसे अनेक उदाहरण हैं जब माओवादियों ने तय किया कि तेंदू के पत्ते और वनोपज एकत्र करने का ठेका किसे मिलेगा और किसे नहीं.

इंस्टीट्यूट ऑफ डिफेंस स्टडीज एंड एनालिसिस (आईडीएसए) के रिसर्च फेलो डा. पीवी रमन्ना ने अपने एक शोध-पत्र में लिखा है, 'अनुमान के मुताबिक माओवादी अलग-अलग स्रोतों से सालाना 140 करोड़ से 160 करोड़ रुपए तक वसूली के रूप में जुटा लेते हैं. उनकी आमदनी के स्रोतों में शामिल हैं- सरकारी काम और योजनाएं, उद्योग और व्यवसाय, सामाजिक संस्थान, बुनियादी ढांचा, सदस्यता शुल्क, समर्थक और हमदर्द और नकदी और अन्य रूपों में लिया जाने वाला रिवोल्यूशनरी (क्रांतिकारी) टैक्स.'

नोटबंदी का असर

छत्तीसगढ़ पुलिस के जुटाए आंकड़ों के मुताबिक नोटबंदी के एलान के बाद 1.60 करोड़ रुपए मूल्य के प्रतिबंधित नोट (1000 और 500 रुपए की शक्ल में) बस्तर डिवीजन के नक्सल-प्रभावित सात जिलों से बरामद हुए.

लेकिन नोटबंदी से आम ग्रामीणों को तो मुश्किलें पेश आईं मगर माओवादियों को कोई खास फर्क नहीं पड़ा.

डीएम अवस्थी ने बताया कि 'माओवादियों ने 1000 तथा 500 रुपए के नोट ठेकेदारों के जरिए बदल लिए.'

बस्तर के इलाके में माओवादियों के अर्थतंत्र के विस्तार को देखते हुए नोटबंदी के दौरान बरामद नोटों की मात्रा कम मानी जायेगी.

छत्तीसगढ़ सरकार से जुड़े एक सूत्र ने अपना नाम गुप्त रखने की शर्त पर बताया कि 'हमें उम्मीद थी कि नोटबंदी के दौरान ज्यादा रकम जब्त होगी लेकिन नक्सलियों ने प्रतिबंधित नोट बदल लिए. माओवादियों और ठेकेदारों और व्यवसायियों के बीच में एक तरह की मिलीभगत है. इससे अतिवादियों को अपनी रकम चलाये-बनाये रखने में मदद मिलती है.'

बहरहाल, बस्तर रेंज के पुलिस महानिदेशक (आईजी) विवेकानंद का कहना है कि नोटबंदी के कारण माओवादियों के रुपए खर्च करने के तौर-तरीकों पर जरूर ही असर पड़ा है.

आईजी ने बताया कि 'हमने ग्रामीण बैंकों पर नजर रखी और बड़ी मात्रा में रकम जब्त की. हमने छुपने के ठिकानों से बड़ी मात्रा में प्रतिबंधित नोट बरामद किए. ठेकेदारों के अतिरिक्त माओवादियों ने नोट बदली के काम में ग्रामीणों का भी इस्तेमाल किया.'

PHOTO 2 Maoist weapons mortars, rocket launcher shells, IEDs, tiffin box bombs, detonators etc Photo by Debobrat Ghose Firstpost

हथियार और गोला-बारुद

खुफिया सूत्रों का कहना है कि हथियारबंद दस्तों और कारकूनों के रख-रखाव, सामान्तर जनता सरकार चलाने और दुष्प्रचार पर होने वाले नियमित खर्च के अलावा एक बड़ी रकम हथियार, गोला-बारुद और विस्फोटक की खरीद और बेहतर असलहे बनाने के काम में खर्च होती है. माओवादी एक छोटी रकम अपने दबदबे वाले इलाके में विकास के लिए भी खर्च करते हैं ताकि गांववालों को अपनी विचारधारा से लुभाए रख सकें.

खुफिया एजेंसी के एक सूत्र ने बताया कि 'जंगल के भीतर अपने कब्जे वाले इलाके में माओवादियों के प्रिन्टिंग प्रेस और इंजीनियरिंग के यूनिट चलते हैं. इन यूनिटों में वे बेहतर हथियार और विस्फोट के औजार तैयार करने का काम करते हैं. माओवादियों की कमिटी में इंजीनियर और टेक्नीशियन शामिल हैं.'

छत्तीसगढ़ पुलिस के सूत्रों के अनुसार, दंडकारण्य के माओवादियों के पास विस्फोटकों का बड़ा जखीरा है. जखीरे में मौजूद ज्यादातर विस्फोटक लूटे गए हैं या फिर माइनिंग के ठेकेदारों को धमकाकर उनसे लिया गया है. अत्याधुनिक हथियारों के मामले में भी यही बात कही जा सकती है. पुलिसकर्मियों और सुरक्षाबल के जवानों को मारकर या घायल कर उनसे माओवादियों ने ये हथियार जुटाए हैं.

यहां मिसाल के तौर पर छत्तीसगढ़ के सुकमा जिले के बुरकापाल में हुए हमले का जिक्र किया जा सकता है. बुरकापाल में माओवादियों ने 20 अप्रैल 2017 को घात लगाकर हमला किया था. इस हमले में 25 जवान शहीद हो गए. हमले के कारण माओवादियों की ताकत भी बढ़ी क्योंकि उन्होंने केंद्रीय रिजर्व पुलिस फोर्स की 74वीं बटालियन के अत्याधुनिक हथियार, गोला-बारुद तथा उपकरण हमले में लूट लिए.

PHOTO 4 Rambo styled explosive tipped arrow being used by Naxals in Bastar Photo by Debobrat Ghose Firstpost

सीआरपीएफ और छत्तीसगढ़ पुलिस से जुड़े सूत्रों के मुताबिक बस्तर इलाके में सक्रिय माओवादियों के पास फिलहाल 15 से 16 अंडर बैरल ग्रेनेड लांचर(यूजीबीएल) हैं. यूजीबीएल के कारण वामपंथी अतिवादियों के हथियारबंद दस्ते ज्यादा घातक हो उठे हैं, उनकी मारक क्षमता बढ़ी है.

सूत्रों के अनुसार बस्तर में पीएलजीए के पास एसएलआर, इन्सास असाल्ट रायफल,, इन्सास लाइट मशीन गन, एके-47, जर्मनी निर्मित पिस्टल, हैंडग्रेनेड, रॉकेट लांचर, यूबीजीएल, इम्प्रूवाइज्ड हथियार और विस्फोटक युक्त फलक वाले तीर मौजूद हैं. माओवादी IEDs के निर्माण में माइनिंग के काम में इस्तेमाल होने वाले विस्फोटक जैसे अमोनियम नाइट्रेट, जिलेटिन की छड़, डेटोनेटर आदि का प्रयोग करते हैं. पुलिस सूत्रों ने बताया कि माओवादी दस्ते बुलेट-प्रूफ जैकेट, बायनाक्यूलर्स और वायरलेस सेटस् का भी इस्तेमाल करते हैं. इनमें से ज्यादातर सामग्री उन्होंने लूटकर हासिल की है.

बस्तर के इलाके में माओवादी सुरक्षाबलों को निशाना बनाने के लिए एक खास तीर का इस्तेमाल करते हैं. यह खास किस्म का तीर है जिसका नुकीला सिरा विस्फोटकों का बना होता है. हालांकि इन तीरों का इस्तेमाल माओवादी पिछले कई सालों से कर रहे हैं लेकिन ये तीर सुकमा जिले के कोट्टाचेरी में हुए हमले के बाद चर्चा में आये. इस हमले में 11 मार्च 2017 को सीआरपीएफ के 12 जवान शहीद हुए.

लूट के अलावे माओवादी चोरबाजार से भी हथियार खरीदते हैं. खुफिया एजेंसियों, केंद्रीय अर्द्धसैनिक बल और सूबे की पुलिस के मुताबिक माओवादी पूर्वोत्तर के विद्रोही संगठनों से भी हथियार जुटाते हैं.

पुलिस सूत्रों का दावा है कि नक्सलियों को हासिल वित्तीय संसाधनों की राह अलग-अलग तरीकों से रोकने के कारण उनकी अर्थव्यवस्था पर असर पड़ा है. पहले माओवादियों के लिए हथियार जुटाना आसान होता था लेकिन अब ऐसा नहीं है.

पुलिस को अपने अभियान के दौरान माओवादी कारकूनों के बीच हुए पत्र-व्यवहार या फिर माओवादी नेता की तरफ से अपने दस्ते के लोगों को जारी नोट हाथ लगे हैं. मारे गए नक्सलियों के पास भी कुछ कागजात बरामद हुए हैं. इन दस्तावेजों से पता चलता है कि माओवादी संगठन पैसे की तंगी से जूझ रहे हैं.

फ़र्स्टपोस्ट को हाथ लगी ऐसी ही एक चिट्टी में हथियारबंद माओवादी दस्ते के एक सदस्य ने लिखा है कि ‘हमारे खिलाफ दुश्मन (पुलिस) की कठोर कार्रवाई के कारण नकदी की बहुत कमी हो गई है. फिलहाल जीवन बचाए रखना और नव जनवादी क्रांति चलाना बहुत मुश्किल हो गया है. हालात के सुधरने तक हमें बहुत कम संसाधनों के बूते अपना काम चलाना होगा.'

बहरहाल, यह बात भी सही है कि नोटबंदी और वित्तीय संसाधनों की राह रोकने के सरकारी प्रयासों के कारण माओवादियों की ताकत पर कितना असर हुआ है, इसका ठीक-ठीक आकलन होना अभी शेष है क्योंकि राजसत्ता के लिए बस्तर के दंडकारण्य के भीतर नक्सलियों के अंधेरी दुनिया में झांक पाना आसान नहीं है.

अगला पार्ट: अतिवादियों के कामकाज और सूबे में माओवादियों की हिंसा के बारे में ज्यादा सूचनाएं जुटाने और नक्सलियों के खिलाफ उठाए जा रहे सरकारी कदमों की विशेष जानकारी के लिए देवव्रत घोष की एंटी नक्सल ऑपरेशन्स (छत्तीसगढ़ पुलिस) के चीफ डीएम अवस्थी से बातचीत.

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