करेंसी बैन की घोषणा होने के बाद के कुछ वाकयों पर नजर डालते हैं. पहला- बांद्रा के होली फैमिली हॉस्पिटल का माहौल. यहां मरीजों की परेशानी को आसानी से देखा जा सकता था.
मरीज तकलीफ में थे लेकिन हॉस्पिटल जोर दे रहा था कि भुगतान 500 और 1,000 रुपए के नोटों की बजाय कार्ड से किए जाएं. हॉस्पिटल में मौजूद लोग भले ही मिडिल क्लास से थे लेकिन उन्होंने कभी भी कार्ड इस्तेमाल नहीं किए थे और उनका लेन-देन का जरिया नकदी ही था.
दूसरा- खाने-पीने की दुकानों के कारोबार में तेज गिरावट आई क्योंकि ये कार्ड का इस्तेमाल नहीं करते और इनका धंधा कैश पर टिका होता है. इनकी बिक्री घट गई थी क्योंकि बाजार से ग्राहक नदारद थे.
तीसरा- फल-सब्जियां बेचने वालों के पास कोई सामान नहीं था क्योंकि उनके पास कुछ भी खरीदने-बेचने के पैसे ही नहीं थे. फल-सब्जी वाले माल इस वजह से नहीं खरीद पा रहे थे क्योंकि मंडी के आढ़तिए 500 और हजार के नोट लेने को तैयार नहीं थे.
दूसरी ओर ग्राहक इसलिए खरीदारी नहीं कर रहे थे क्योंकि वे अपने पास मौजूद छोटे नोटों को खर्च करने से बच रहे थे.
चौथा- क्रेडिट पर माल देने के बावजूद छोटी दुकानों का धंधा ठप पड़ा था. डॉक्टरों के लिए नकदी से हटकर दूसरे जरियों से फीस लेने में कई मुश्किलें थीं क्योंकि वे एक हजार रुपये फीस ले नहीं सकते थे, जो कि स्पेशलिस्ट्स का चार्ज है. कुछ ने तो चेक से फीस ली और उनके बाउंस होने का जोखिम उठाया.
सरकारी फरमान मगर लोग परेशान
सरकार ने घोषणा की थी कि 9 नवंबर को बैंक बंद रहेंगे और एटीएम 11 नवंबर से काम करना शुरू कर देंगे. हालात कैसे होंगे इसका अनुमान लगाया जा सकता था. बैंकों में लंबी कतारें लग गईं. दूसरी ओर नियमों को लेकर इनकी अलग-अलग व्याख्याएं थीं.
आरबीआई के सर्कुलर में कहा गया है कि कोई भी शख्स एक दिन में 4,000 रुपए एक्सचेंज कर सकता है, जबकि बैंकों का कहना था कि उनकी ब्रांच एक समय सीमा में केवल एक बार ही इतनी रकम दे सकती हैं.
इसके अलावा आपको डेढ़ से दो घंटे इंतजार करना पड़ता है. जैसा कि लेखक को भी करना पड़ा और तब जाकर आपको दो हजार के दो नोट मिलते हैं.
क्या ये नोट काम के हैं? निश्चित तौर पर नहीं क्योंकि इन्हें लेने वाला कोई नहीं है. लोगों को छोटे नोट चाहिए जो कि उपलब्ध नहीं हैं. (ये लिमिट्स रविवार रात को बदल दी गईं.)
यहां भीड़ आमतौर पर लोअर और मिडिल इनकम ग्रुप्स से है क्योंकि अमीरों के मुकाबले इन्हें पैसे की ज्यादा जरूरत होती है.
हालांकि आरबीआई की वेबसाइट और सरकार के नोटिफिकेशन में एक फॉर्म दिया गया है लेकिन आप इसे इस्तेमाल नहीं कर सकते क्योंकि बैंकों के इसके अपने अलग वर्जन हैं, जिनमें कुछ और ब्योरे जोड़े गए हैं.
कुछ बैंकों ने नोटों के नंबर और अपने फोन नंबर भी मुहैया कराने के लिए कहा जबकि कुछ ने ऐसी मांग नहीं रखी. साफ है कि सर्कुलर जारी करते वक्त इन चीजों का ख्याल नहीं रखा गया.
डिपॉजिट और निकासी के लिए अलग लाइनें हैं. मौजूदा वक्त में बैंकरों का कहना है कि 500 के नोट (13 नवंबर रविवार तक) मुहैया नहीं कराए गए हैं और दस हजार रुपए निकालना बेमतलब है क्योंकि केवल दो हजार रुपए का नोट ही बांटा जा रहा है.
कम कमाई वालों पर ज्यादा मार
डिपॉजिट की कतारों में दबदबे वाले लोग ज्यादा हैं जो कि नोटों की गड्डियों के साथ आ रहे हैं और ये कतारें एक्सचेंज वाली कतारों के मुकाबले तेजी से आगे बढ़ती हैं. एक्सचेंज वाली कतारों के साथ यह जोखिम है कि उनमें पैसे खत्म होने के साथ ही कतार भी खत्म हो जाती है.
हर कोई ऐसी बैंक ब्रांचों में नहीं आ पाता जो कि एक सिस्टम के जरिए यह सुनिश्चित करती हैं कि वहां किसी को दो घंटे खड़ा नहीं रहना पड़े और ऐसे लोगों को बिना पैसे के लिए जाने को बोल दिया जाता है. ऐसे में पैसा पाना मौके की बात है.
एटीएम हुए ढेर
एटीएम की कहानी तो और हैरान करने वाली है. 11 नवंबर को एक शख्स ने अंधेरी ईस्ट और विले पार्ले ईस्ट (मुंबई में) में 4 किमी के दायरे का चक्कर लगाया. इस इलाके में 25 एटीएम हैं.
कोटक बैंक और यस बैंक के कई एटीएम के शटर गिरे हुए थे. सिक्योरिटी गार्ड ने कहा कि कैश नहीं आया है. एसबीआई में केवल डिपॉजिट लिया जा रहा था.
आईसीआईसीआई बैंक ने दावा किया कि पैसा खत्म हो गया है, जबकि एचडीएफसी बैंक में बताने के लिए कोई नहीं था क्योंकि मेन शटर डाउन था और इसमें लॉक लगा था.
पीएनबी, केनरा, कर्नाटका बैंक, ओबीसी और यूनाइटेड बैंक के पास पैसा नहीं आया था. रात के 11 बजे कैश देने वाला एकमात्र एटीएम आईडीबीआई बैंक का था, जिसमें शायद करेंसी थी क्योंकि यह एक शांत इलाके में था.
यहां क्या माजरा है? बैंकरों और सिक्योरिटी के लोग इसका जवाब देते हैं. सभी बैंकों के पास करेंसी चेस्ट नहीं हैं और इनका पैसे तक एक्सेस नहीं है. इन्हें आरबीआई से बंडल मिलते हैं और लग रहा है कि आरबीआई के पास भी स्टॉक नहीं है, जिसका मतलब है कि करेंसी की कमी है.
दूसरा, बैंक को कैश मिल जाने के बाद उसे इसे हैंडल करना पड़ता है और ब्रांचों को बांटना पड़ता है. सबके पास यह फैसिलिटी नहीं है.
तीसरा, तय मात्रा में किसी खास डिनॉमिनेशन के नोटों को निकालने के लिए एटीएम मशीनों को रीप्रोग्राम करना पड़ता है. साथ ही यह पुख्ता करना पड़ता है कि एक ही कार्ड दिन में दो बार इस्तेमाल न हो.
इसकी एक सीमा है क्योंकि इसमें काफी मेहनत करनी पड़ती है. देश में 2 लाख से ज्यादा एटीएम मशीनें हैं जिन पर इस तरीके से गौर करना पड़ता है.
नतीजा यह भी होता है कि एक बार इन मशीनों को एक पहले से तय तारीख के बाद बड़ी मात्रा में मुहैया कराना होता है. इन्हें रीप्रोग्राम करना पड़ता है. यह सरप्राइजिंग नहीं है कि ये नोट्स फिट नहीं हो रहे और इसी वजह से लंबी लाइनें लग रही हैं.
इन लाइनों में लगे लोग निश्चित रूप से लोअर इनकम ग्रुप्स से आते हैं. ऐसे में भले ही इन बड़े उपायों का बड़ा असर हो लेकिन इनके लिए लोअर इनकम वाले लोगों की मदद जरूरी है.
ऐसी स्कीमों के साथ दिक्कत यही है कि इनमें से ज्यादातर को ऐसे संस्थानों में तैयार किया जाता है, जिनका हकीकत से कोई वास्ता नहीं होता है.
खामियों की लंबी फेहरिस्त
आइए इस स्कीम की कुछ खामियों पर नजर डालते हैं-
बिना लोअर डिनॉमिनेशन वाली करेंसी के 2,000 रुपए के नोट को प्रिंट करना एक घाटे का सौदा है क्योंकि ऐसा करने के कोई मायने नहीं हैं. 2,000 का नोट पाने वाले सभी लोगों को 500 रुपए के नोट का इंतजार करना पड़ रहा है क्योंकि बड़े नोट को लेने वाला कोई नहीं है.
दूसरा, एटीएम पर निकासी या करेंसी को एक्सचेंज करने की लिमिट तय करने से यह पैनिक मैसेज जाता है कि सिस्टम में पर्याप्त नकदी नहीं है. अगर सामान्य लिमिट में ही इतना अमाउंट उपलब्ध कराया जाता तो कोई पैनिक नहीं पैदा होता.
तीसरा, बैंकों ने आरबीआई के नियम कायदों की अपनी परिभाषा गढ़ ली, जिससे कस्टमर्स में कंफ्यूजन पैदा हुआ.
मसलन, आईसीआईसीआई बैंक ने मुझे कहा कि अगर मैं आज मनी एक्सचेंज करता हूं तो अगली बार मैं ऐसा 23 नवंबर के बाद ही कर सकता हूं, लेकिन इस मसले पर जानकारी लेने के बाद मैं बाद के ट्रांजैक्शंस कॉरपोरेशन बैंक में कर पाया और बैंक अफसरों को इसमें कुछ भी आपत्तिजनक नहीं लगा.
इसका क्या मतलब है? किसी भी स्कीम को लागू करना हमारे लिए सबसे मुश्किल काम रहा है. इस बारे में हमारी सोच हमेशा से जुगाड़ करने की रही है.
यह काम करता है क्योंकि हमें लगता है कि चलो कोई स्कीम उतार देते हैं और इसकी समस्याओं से बाद में निपटेंगे. हम कभी भी पहले से समस्याओं के बारे में नहीं सोचते हैं. लेकिन इस तरह से काम करने का एक खर्च उठाना पड़ता है.
30-40 हजार करोड़ का खर्च
आइए अंदाजा लगाते हैं कि इस तरह की एक्सरसाइज का क्या खर्च बैठता है. देश में करीब 29 करोड़ परिवार हैं. इनमें से दो-तिहाई पर पूरी तरह से असर पड़ेगा. अगर हम यह मान लेते हैं कि बाकी बहुत गरीब हैं.
दिसंबर अंत तक हर परिवार पैसे एक्सचेंज करने, डिपॉजिट करने और निकालने के लिए लाइन में कम से कम 12 घंटे खर्च करेगा. यह अवधि ज्यादा भी हो सकती है. 8 घंटे का एक कार्य दिवस मानने और हर किसी के डेढ़ दिन खर्च करने के हिसाब से ये करीब 30 करोड़ कार्य दिवस होंगे.
इस समय की क्या कीमत होगी? 8,000 रुपए महीने की सबसे बेसिक लेवल प्रतिव्यक्ति आय के मुताबिक रोजाना 360 रुपए की सैलरी बनती है, जो कि डेढ़ दिन के लिए 540 रुपए बैठती है. इस तरह से यह खर्च 540x30 या करीब 16,200 करोड़ रुपए बनता है.
इसके साथ अगर बैंकों की कॉस्ट भी जोड़ी जाए, जहां केवल सैलरी बिल ही 400 करोड़ रुपए रोज का है (सालाना वेतन बिल 1.2 लाख करोड़ है, जिसका मतलब है 10,000 करोड़ रुपए महीना या 24 वर्किंग डे के हिसाब से 416 करोड़ रुपए रोजाना). इसमें डेढ़ दिन को अन्य खर्चों के लिए जोड़ा जा सकता है जो कि ऑपरेशंस के साथ जाता है.
अब बैंकों के अतिरिक्त घंटों को लगाने के हिसाब से दिनों को देखकर ओवरऑल कॉस्ट निकाली जा सकती है. एक बार फिर यह मानते हैं कि कुल मिलाकर बैंक कम से कम 10 अतिरिक्त दिन काम करते हैं.
ऐसे में उनकी कॉस्ट ऑफ ऑपरेशंस कम से कम 20,000-22,000 करोड़ रुपए होगी. इस कॉस्ट को एटीएम मशीनों को दुरुस्त करने, कैश ट्रांसपोर्ट करने, सिक्योरिटी और नए नोट छापने के खर्च, पुराने नोटों को खत्म करने के साथ जोड़ा जाए तो ओवरऑल कॉस्ट करीब 30,000 करोड़ से 40,000 करोड़ रुपये के बीच बैठती है. इसमें जीडीपी का लॉस शामिल नहीं है.
चीजों के सामान्य हो जाने के बाद कंज्यूमर गुड्स में हमेशा रिवाइवल होता है. ऐसे में डीमॉनेटाइजेशन के जरिए ब्लैक मनी बाहर लाना एक महंगी एक्सरसाइज साबित हो सकती है अगर इसमें डायरेक्ट कॉस्ट शामिल की जाए.
उम्मीद है कि इससे मिलने वाले नतीजे इस खर्च की भरपाई कर लेंगे. यह 1 जनवरी को ही पता चलेगा कि यह पूरी मुहिम काम की रही या नहीं.
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