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डेमोक्रेसी इन इंडिया पार्ट 5: लोकतंत्र और लोगों के अधिकारों की रक्षा करते हैं शहर

लंबे समय से शहर विचारों के आदान-प्रदान और सामाजिक बदलाव के केंद्र रहे हैं. लेकिन, लोकतंत्र में शहर किसी नागरिक को ज्यादा आजादी देते हैं

Updated On: Apr 30, 2018 01:27 PM IST

Tufail Ahmad Tufail Ahmad

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डेमोक्रेसी इन इंडिया पार्ट 5: लोकतंत्र और लोगों के अधिकारों की रक्षा करते हैं शहर

(संपादक की ओर से:-भारत गणराज्य अपने 70 बरस पूरे करने जा रहा है. ऐसे वक्त में पूर्व बीबीसी पत्रकार तुफैल अहमद ने शुरू किया है, भारत भ्रमण. इसमें वो ये पड़ताल करने की कोशिश कर रहे हैं कि देश में लोकतंत्र जमीनी स्तर पर कैसे काम कर रहा है. तुफ़ैल अहमद को इसकी प्रेरणा फ्रेंच लेखक एलेक्सिस डे टॉकविल से मिली. जिन्होंने पूरे अमेरिका में घूमने के बाद 'डेमोक्रेसी इन अमेरिका' लिखी थी. तुफ़ैल अहमद इस वक्त वॉशिंगटन स्थित मिडिल ईस्ट मीडिया रिसर्च इंस्टीट्यूट में सीनियर फेलो हैं. वो भारत भ्रमण के अपने तजुर्बे पर आधारित इस सीरिज में भारत की सामाजिक हकीकत की पड़ताल करेंगे. वो ये जानने की कोशिश करेंगे भारत का समाज लोकतंत्र के वादे से किस तरह मुखातिब हो रहा है और इसका आम भारतीय नागरिक पर क्या असर पड़ रहा है. तुफ़ैल की सीरीज़, 'डेमोक्रेसी इन इंडिया' की ये पांचवीं किस्त है.)

शहरों को आर्थिक विकास और सामाजिक तरक्की का इंजन कहा जाता है. लोकतांत्रिक व्यवस्था में शहर लोगों को उनके जम्हूरी अधिकारों के प्रति जागरूक करते हैं. शहरों में निजी स्वतंत्रता के नए-नए तजुर्बों का भी जन्म होता है. 19 अप्रैल को एक सरकारी अधिकारी ने अहमदाबाद में एक कार्यक्रम के दौरान कहा कि भारत में शहरों की आबादी हर साल एक से सवा करोड़ की रफ्तार से बढ़ रही है. 2030 तक भारत की 40 फीसद आबादी यानी करीब 60 करोड़ लोग शहरी इलाकों में रह रहे होंगे. इनसे देश का 75 प्रतिशत जीडीपी आएगा.

अांबेडकर ने कहा था -गांवों में संकीर्ण मानसिकता और सांप्रदायिकता पैदा होती है

1948 में देश की संविधान सभा में डॉक्टर भीमराव अाम्बेडकर ने कहा था कि 'गांव अज्ञानता की गुफा हैं. ये क्षेत्रीयता के हौज हैं. गांवों में संकीर्ण मानसिकता और सांप्रदायिकता पनपती है'. भारत के लोकतंत्र में अगर निजी अधिकारों को मजबूत करना है, महिलाओं को हक देना है और समुदायों को आपसी मेल-जोल से रहना है, ताकि हम पुरातनपंथी मानसिकता, मज़हबी कट्टरपंथ और जातिवाद के दायरे से बाहर निकल सकें, तो स्मार्ट सिटी, स्वच्छ भारत और अमृत मिशन जैसी शहरों के पुनरुद्धार की योजनाओं को कामयाब होना होगा. आज भारत की 1.3 अरब की आबादी में से 55 फीसद 25 साल से कम उम्र की है. ये नई आबादी है. शहरों में इस आबादी के लोकतांत्रिक अधिकारों को ज्यादा महफूज किया जा सकता है. हालांकि देश के गांवों को भी बदलना होगा.

तारीख बताती है कि शहरों का मिजाज और आबादी अलग ही दर्जे के रहे हैं. जैसे कि पाटलिपुत्र यानी आज का पटना शहर प्रशासनिक खूबी के लिए जाना जाता है. वहीं मधुबनी शहर कला का केंद्र था, तो, बोधगया की पहचान धार्मिक शहर की थी और नालंदा शहर शिक्षा के लिए जाना जाता है. जयपुर के मालवीय नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी के आर्किटेक्चर और प्लानिंग डिपार्टमेंट के प्रमुख डॉक्टर तरुष चंद्रा कहते हैं कि मध्य पूर्व देशो के शहर कट्टरपंथी और पुरातनपंथी निजामों के केंद्र थे. आम जनता की पहुंच कम थी. डॉक्टर चंद्रा का कहना काफी हद सही है. इसमें कोई दो राय नहीं कि लोकतांत्रिक देशों में शहर आम लोगों को ज्यादा हक देते हैं.

ग्वालियर की आईटीएम यूनिवर्सिटी के स्कूल ऑफ आर्किटेक्चर ऐंड डिजाइन के प्रमुख सुधांशु मांडलिक कहते हैं कि यूरोप में 12वीं से 15वीं सदी के बीच गोथिक दौर में बड़ी-बड़ी इमारतें बनाई जाती थीं. इन इमारतों के साये में आम लोग बौने नजर आते थे. शासक और प्रजा के बीच बहुत फासला होता था. आर्किटेक्चर का मकसद कभी भी इस फासले को पाटना नहीं रहता था. आम लोगों के लिए सार्वजनिक इमारतें नहीं बनायी जाती थीं. लेकिन ये हालात पुनर्जागरण काल के दौरान बदले. जब लियोनार्डो दा विंची ने इंसानों की काया को अपनी कलाओं में उकेरना शुरू किया. तब व्यक्ति को अहमियत दी जाने लगी. नागरिक के अधिकार अहम हो गए.

North-eastern students shout slogans during a protest in New Delhi

मांडलिक कहते हैं कि, 'पुनर्जागरण काल से पहले इमारतें, इंसान पर हावी थीं. वहीं पुनर्जागरण काल के दौरान इमारतें डिजाइन करने वालों और योजना बनाने वालों ने इंसान को केंद्र में रखकर इमारतें डिजाइन करनी शुरू कीं. सार्वजनिक इमारतें बनने लगीं, जिनमें आम लोगों की पहुंच थी.' मांडलिक कहते हैं कि सार्वजनिक इमारतों में अपराध कम होते हैं. जगह खुली होती है. लोग बिना पैसे दिए इन जगहों में जा सकते हैं. वो मुंबई के क्वीन्स नेकलेस, दिल्ली के कनाट प्लेस और लंदन के पिकाडिली सर्कस की मिसाल देते हैं. पश्चिमी देशों में व्यक्तिवादी विचारधारा के विकास और सार्वजनिक स्थलों की लोकतंत्र में कितनी अहमियत है और इस विचार का विकास किस तरह से हुआ, इसको लैरी सिडेनटॉप ने अपनी किताब, Inventing the Individual: The Origins of Western Liberalism में बखूबी बयां किया है.

शहरों में दिखता है भारतीय लोकतंत्र का असली रूप

इस सीरीज की पहली किस्त में हमने चर्चा की थी कि किस तरह व्यक्ति पर समुदाय हावी हो रहे हैं. और इसके लिए सियासी दलों की जातिवादी और मजहबी राजनीति किस तरह से जिम्मेदार है. तो, गांवों में धर्म और जाति व्यक्ति या आम नागरिक पर भारी पड़ते हैं. मगर शहरों में भारतीय लोकतंत्र का असल रूप देखने को मिलता है. आम तौर पर अंतर्जातीय शादियां शहरों में ही होती हैं. इसकी वजह ये है कि शहरों में कोई व्यक्ति नागरिक के अपने हक और आजादी का इस्तेमाल ज्यादा कर सकता है. गांवों में ये मुमकिन नहीं. शहरों में लोगों को लोकतांत्रिक और सांस्कृतिक अधिकार ज्यादा मिलते हैं.

मांडलिक कहते हैं कि अब योजनाएं बनाने वाले महिलाओं, बच्चों और दिव्यांगों की जरूरतों का भी ध्यान रखने लगे हैं. मांडलिक इसके लिए शॉपिंग मॉल में बच्चों को दूध पिलाने के लिए अलग जगह बनाये जाने और दिव्यांगों के लिए बैरियर फ्री एंट्री बनाने की मिसाल देते हैं. इसकी वजह ये है कि शहरों ने आम लोगों को उनके लोकतांत्रिक अधिकारों से रूबरू कराया है. शहरों में लोग ज्यादा जोर-शोर से अपना हक मांगते भी हैं. कमजोर तबके के लोग भी अपनी आवाज बुलंद कर पाते हैं. मांडलिक ये भी कहते हैं कि शॉपिंग मॉल, कन्वेंशन सेंटर और सार्वजनिक पुस्तकालयों ने कई शहरों में अपराध की दर कम करने में भी काफी अहम रोल निभाया है.

जहां गांवों में लोगों के बजाय समुदाय और जातिगत ताकतें मजबूत होती हैं. वहीं, शहरों में व्यक्ति को ज्यादा अधिकार मिलते हैं. जयपुर की राजस्थान यूनिवर्सिटी में पढ़ने वाली कजरी सोनी कहती हैं, 'गांवों से पढ़ने के लिए शहर आने वाली लड़कियां पुराने खयालात की होती हैं. वो कक्षा में पूरी तरीके से शामिल नहीं हो पातीं. वहीं शहरी लड़कियां दिलेर और आजाद खयाल होती हैं'. कजरी सोनी राजस्थान यूनिवर्सिटी में सोशियोलॉजी से एमए की पढ़ाई कर रही हैं. वो ये भी कहती हैं कि गांवों में भी अब तरक्की की रौशनी पहुंच रही है. लोग लड़कियों की शिक्षा को लेकर जागरूक हो रहे हैं. जबकि पहले ऐसा नहीं था.

कजरी सोनी के साथ पढ़ने वाले मोहित वर्मा कहते हैं कि पहले लड़के और लड़कियां कक्षा में अलग-अलग बैठते थे. मगर अब जागरूकता बढ़ी है, तो ये दीवार भी गिरी है. वो कहते हैं कि अब लड़के और लड़कियों के बीच फासला कम हुआ है क्योंकि नई पीढ़ी सामाजिक और लोकतांत्रिक तौर पर ज्यादा जागरूक हुई है. कजरी और मोहित, दोनों ही ये मानते हैं कि दंगल जैसी बॉलीवुड फिल्मों, कॉमनवेल्थ खेलों में मेडल जीतने वाली महिला खिलाड़ियों की कामयाबी लोगों को व्यक्ति के अधिकारों का मजबूत संदेश देते हैं. खास तौर से एक महिला के व्यक्तित्व को इससे ताकत मिलती है.

old women

शहरों में होता है लोकतांत्रिक अधिकारों का सही उपयोग

हालांकि ग्वालियर जैसे छोटे शहरों में लड़कियां और महिलाएं अपनी तरक्कीपसंद सोच को जाहिर करने के लिए इतना खुला माहौल नहीं पाती हैं. लेकिन बड़े शहरों में महिलाओं के सशक्तीकरण से ये मुमकिन है. आईटीएम यूनिवर्सिटी में पत्रकारिता के प्रोफ़ेसर जयंत सिंह तोमर कहते हैं कि कई बार कानूनी कदम से भी बदलाव आते हैं. ग्वालियर के माधव इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी ऐंड साइंस के डॉक्टर आलोक वर्मा कहते हैं कि जब भारत में लैंड सीलिंग एक्ट पारित हुआ था, तो राजाओं और जमींदारों को अपनी जमीन से हाथ धोना पड़ा था. इस जमीन का आम लोगों के बीच बंटवारा हुआ. जिसके बाद योजनाकारों ने आम लोगों की जरूरतों के हिसाब से प्लानिंग करनी शुरू की.

तमाम सभ्यताओं में लंबे समय से शहर आबाद रहे हैं. वो विचारों के आदान-प्रदान और सामाजिक बदलाव के भी केंद्र रहे हैं. लेकिन, लोकतंत्र में शहर किसी नागरिक को ज्यादा आजादी देते हैं. जैसे कि भारतीय रेल 19वीं सदी से ही सामाजिक बदलाव का जरिया रही है. लेकिन अब जाकर रेलवे स्टेशनों पर सैनिटरी पैड की वेंडिंग मशीने लगी हैं, जब लोग लोकतांत्रिक अधिकारों को समझने लगे हैं. आम लोगों का सामाजिक तौर पर लोकतांत्रीकरण टीवी, चुनाव, खेलों, मीडिया, स्कूलों, सोशल मीडिया, एनजीओ और संसद-विधानसभाओं में होने वाली बहस के जरिए होता है. हालांकि गांवों में भी लोग अपने अधिकारों के प्रति जागरूक होते हैं. लेकिन शहरों में वो अपने अधिकारों का ज्यादा इस्तेमाल कर पाते हैं. ये लोकतांत्रिक बदलाव, संविधान में नागरिकों को अधिकार और आजादी देने से आ रहा है.

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