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डेमोक्रेसी इन इंडिया पार्ट-3: सत्ता के संघर्ष में जाति और राजनीति टकराते रहेंगे

भारतीय लोकतंत्र की एक तल्ख सच्चाई यह भी है कि यहां जाति और राजनीति का घालमेल है, कई बार ये सत्ता पर काबिज होने के लिए हिंसक संघर्ष भी करते हैं

Updated On: Apr 26, 2018 08:30 AM IST

Tufail Ahmad Tufail Ahmad

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डेमोक्रेसी इन इंडिया पार्ट-3: सत्ता के संघर्ष में जाति और राजनीति टकराते रहेंगे

(संपादक की ओर से- भारत गणराज्य अपने 70 बरस पूरे करने जा रहा है. ऐसे वक्त में पूर्व बीबीसी पत्रकार तुफैल अहमद ने शुरू किया है, भारत भ्रमण. इसमें वो ये पड़ताल करने की कोशिश कर रहे हैं कि देश में लोकतंत्र जमीनी स्तर पर कैसे काम कर रहा है. तुफ़ैल अहमद को इसकी प्रेरणा फ्रेंच लेखक एलेक्सिस डे टॉकविल से मिली. जिन्होंने पूरे अमेरिका में घूमने के बाद 'डेमोक्रेसी इन अमेरिका' लिखी थी. तुफ़ैल अहमद इस वक्त वॉशिंगटन स्थित मिडिल ईस्ट मीडिया रिसर्च इंस्टीट्यूट में सीनियर फेलो हैं. वो भारत भ्रमण के अपने तजुर्बे पर आधारित इस सीरिज में भारत की सामाजिक हकीकत की पड़ताल करेंगे. वो ये जानने की कोशिश करेंगे भारत का समाज लोकतंत्र के वादे से किस तरह मुखातिब हो रहा है और इसका आम भारतीय नागरिक पर क्या असर पड़ रहा है. तुफ़ैल की सीरीज़, 'डेमोक्रेसी इन इंडिया' की ये तीसरी किस्त है.)

तानाशाही या मज़हबी हुकूमतों के बरअक्स, लोकतंत्र लोगों को बड़े पैमाने पर अधिकार देता है. भारत में जैसे-जैसे लोकतंत्र अपनी जड़ें जमा रहा है (विचारों के आंदोलन के तौर पर भी और निजाम के तौर पर भी) तो लोगों में अपने लोकतांत्रिक अधिकारों को लेकर जागरूकता भी बढ़ रही है. 8 अप्रैल को राजस्थान सरकार ने जाति आधारित अपने छात्रावासों में 40 फीसदी सीटें आम छात्रों के लिए मुहैया कराने का फैसला किया. इसी तरह तिरुपति, तिरुमला देवस्थाम सैकड़ों दलित पुजारियों को ट्रेनिंग दे रहा है. इससे कर्मकांड में ब्राह्मणों का वर्चस्व खत्म होगा. शहरी इलाकों में अंतरजातीय शादियां भी हो रही हैं. ऐसे अच्छे बदलाव लोकतांत्रिक अधिकारों के प्रति जागरूकता के बगैर मुमकिन नहीं थे.

लेकिन, भारतीय लोकतंत्र की एक तल्ख सच्चाई यह भी है कि यहां जाति और राजनीति का घालमेल है. कई बार ये सत्ता पर काबिज होने के लिए हिंसक तौर पर संघर्ष भी करते हैं.

यह घटना मध्य प्रदेश के ग्वालियर शहर की है. 4 अप्रैल की तारीख थी. शाम करीब पांच बजे जिला अदालत के गलियारों में सन्नाटा पसरा हुआ था. ये इमारत हाईकोर्ट की पुरानी इमारत हुआ करती थी. गलियारे में इक्का-दुक्का वकील टहलते दिख रहे थे. वहां 2 अप्रैल को दलितों के भारत बंद के बाद से ही हालात तनावपूर्ण थे. तभी, ऊंची जाति के दर्जन भर से ज्यादा वकील हाथ में छह फुट लंबी लाठियां लेकर गलियारे में घुसे.

वो अपनी ताकत का खुला मुजाहिरा कर रहे थे. सवर्ण वकीलों की इस परेड को दलित वकील बड़ी चिंता भरी नजरों से देख रहे थे. एक मुंशी ने खुसपुसाते हुए कहा कि उस दिन सवर्ण वकीलों ने 60 लाठियां खरीदी थीं. एक दिन पहले ही, यानी 3 अप्रैल को ऊंची जाति के वकीलों ने भारत बंद के दौरान गिरफ्तार दलितों की जमानत की अर्जी देने वालों को पीटने की धमकी दी थी.

ग्वालियर-चंबल में आज भी ऊंची जाति के लोगों का दबदबा कायम है. एक लोकतंत्र में किसी नागरिक के लिए अदालत का गलियारा सबसे सुरक्षित जगह होनी चाहिए, फिर चाहे वो किसी भी जाति का हो. मगर, ग्वालियर में ऐसा नहीं है. दलित वकीलों को डर है कि ऐसे डराने वाले माहौल में दलित मुल्जिमों को जमानत नहीं मिलेगी.

देश के लोकतंत्र में किसी समुदाय का ताकत का नुमाइश करना आम बात

वकीलों को समाज का सबसे पढा-लिखा तबका माना जाता है. लेकिन इसी पढ़े लिखे वर्ग से आने वाले ऊंची जाति के वकीलों ने ग्वालियर में खुलेआम दादागीरी दिखाई. और ये 2 अप्रैल को दलितों के भारत बंद के ठीक एक दिन बाद हुआ. भारत के लोकतंत्र में किसी समुदाय का अपनी ताकत की नुमाइश करना एक आम बात है. अपने समुदाय की सियासी मांगें मनवाने के लिए ऐसा अक्सर होता है. इसीलिए दलितों के भारत बंद के खिलाफ 10 अप्रैल को ऊंची जाति के लोगों ने अपना अलग भारत बंद बुलाया.

पिछले कुछ सालों में दलितों और आदिवासियों को नौकरी और संसद में आरक्षण से कम से कम कुछ दलितों को तो जरूर फायदा हुआ है. इसी तरह बिहार में लालू प्रसाद यादव की पिछड़े वर्ग की राजनीति और यूपी में मायावती की दलितों की राजनीति से जातिवाद तो खत्म नहीं हुआ. मगर इन जातियों को राजनीतिक तौर पर आवाज और मजबूती जरूर मिली है.

Bharat Bandh In Arrah

दलितों और पिछड़ों के ताकतवर बनने से जिन जातियों को अपने परंपरागत दबदबे को गंवाना पड़ा है. वो अपने तरीके से आवाज उठा रहे हैं. जैसे कि राजस्थान में गुज्जर और हरियाणा में जाटों ने आरक्षण के लिए आंदोलन किया. अब तो इस बात को मान्यता सी मिल गई लगती है कि अपनी मांगों के लिए कोई भी जाति ट्रेन सेवा रोक सकती है. सरकारी और निजी संपत्ति को नुकसान पहुंचा सकती है.

2 अप्रैल को दलितों के भारत बंद के दौरान आगरा इलाके में करीब सवा किलोमीटर तक रेल की पटरियां उखाड़ दी गईं. अलग-अलग जातियों को लगता है कि जब वो एकजुट हो जाती हैं, तो उनकी ताकत के आगे सियासी दल और हुकूमत, दोनों ही सिर झुकाते हैं.

भारत में एकजुटता की बुनियाद जाति बन गई है

सिद्धांत के तौर पर किसी भी लोकतंत्र की बुनियाद नागरिक के पास वोट देने का अधिकार होना है. लेकिन भारत में एकजुटता की बुनियाद जाति बन गई है. ज्यादातर सियासी दल जातिगत समीकरण की बिनाह पर अपनी रणनीति बनाते हैं. आज की तारीख में भारत का लोकतंत्र जाति के इंजन से चलता है.

भारतीय समाज में जाति-व्यवस्था हजारों साल से चली आ रही है. जाति व्यवस्था से निजात के लिए जो पहले आंदोलन भारत में हुए, वो ईसा से चार से छह सदी पहले हुए थे, जब जैन और बौद्ध धर्मों के आंदोलन शुरू हुए. लेकिन ये दोनों ही आध्यात्मिक आंदोलन, जाति व्यवस्था को मिटाने में नाकाम रहे. जब, आदि शंकराचार्य ने बौद्ध धर्म के खिलाफ बौद्धिक आंदोलन छेड़ा तो जाति व्यवस्था को और भी मजबूती मिली.

भक्तिवाद और सूफीवाद भी जाति व्यवस्था को नहीं मिटा सके. आज भी भारतीय मुसलमान तमाम जातियों में बंटे हैं और दूसरी जाति में शादियां नहीं करते. इसी तरह जाति के खिलाफ आंदोलन के तौर पर शुरू हुआ सिक्ख धर्म भी जातियों के दायरे को मिटाने में नाकाम रहा. सिक्खों के सभी गुरू खत्री थे.

लोकतंत्र जातिवाद के खिलाफ एक नया आंदोलन

1950 में भारत का संविधान लागू होने के बाद जाति के इस खेल में लोकतंत्र नाम के नए खिलाड़ी की एंट्री हुई. या फिर हम इसे जातिवाद के खिलाफ नया आंदोलन भी कह सकते हैं. लोकतंत्र ने दलितों और पिछड़ी जातियों से जैसे कमजोर तबकों को ताकत तो दी है. लेकिन, जातिवाद का खात्मा करने में जम्हूरियत भी नाकाम ही रही है.

From Gwalior to Morena, you can see billboards of Nimki Mukhiya, a television serial in which a woman accidentally becomes the chief of the village. Firstpost/Tufail Ahmad

ग्वालियर से मुरैना तक टीवी सीरियल निमकी मुखिया के बिलबोर्ड लगे हुए हैं. इस कहानी में एक लड़की गलती से गांव की मुखिया बन जाती है. (फ़र्स्टपोस्ट/तुफ़ैल अहमद)

अब हम ग्वालियर से 25 किलोमीटर दूर मुरैना चलते हैं. चंबल के इस बीहड़ में आबाद है पुरवास कलां गांव. ग्वालियर से मुरैना के रास्ते में आपको नए टीवी सीरियल निमकी मुखिया के विज्ञापन कई बोर्ड पर लगे दिखते हैं. इस टीवी सीरियल की कहानी ये है कि एक महिला अचानक गांव की प्रधान बन जाती है. फिर वो इस तरह के चुनाव में आने वाली चालों को चलते हुए अपना रास्ता बनाती है. ये टीवी सीरियल महिलाओं के बीच काफी लोकप्रिय है. राजनीति के सामाजीकरण का ये भी एक तरीका है.

अब सीरियल से असल जिंदगी में लौटते हैं. मुरैना का पुरवास कलां गांव में सरपंच का पद 2010 में दलित महिला के लिए आरक्षित था. इस सीट पर बादामी देवी नाम की दलित महिला निर्वाचत हुई. गांव में हमेशा से ही ऊंची जाति के लोगों का दबदबा रहा था.

बादामी देवी मुख्यमंत्री के हस्तक्षेप के बाद ही फहराई पाई थीं झंडा

सरपंच बनने के बाद बादामी देवी को उस वक्त गहरा झटका लगा, जब गणतंत्र दिवस पर उन्हें तिरंगा नहीं फहराने दिया गया. पांच साल के अपने कार्यकाल में अगले चार साल तक बादामी देवी को ऐसा ही तजुर्बा होता रहा. ऊंची जाति के लोग उन्हें स्वतंत्रता दिवस या गणतंत्र दिवस पर झंडा नहीं फहराने देते थे.

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समाज के कमजोर तबके से आने के बावजूद, बादामी देवी को पता था कि तालीम और राजनीति से जिंदगी में अच्छे बदलाव लाए जा सकते हैं. पुरवास कलां में अपने घर पर बैठी बादामी देवी बताती हैं कि, 'जब मै पहली बार सरपंच बनी, तो मैंने महसूस किया कि राजनीति और शिक्षा हमारी रोजमर्रा की जिंदगी में अच्छे बदलाव ला रहे हैं'. खुद को ताकतवर महसूस करते हुए बादामी देवी ने झंडा न फहरा पाने के मसले को मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान तक पहुंचाया. मुख्यमंत्री के दखल के बाद बादामी देवी 2014 के स्वतंत्रता दिवस पर झंडा फहरा सकीं. उनका ऐसा करना राष्ट्रीय मीडिया में भी सुर्खियां बना था.

बादामी देवी की कहानी पुरवास कलां गांव में आए सकारात्मक बदलाव की मिसाल है. बादामी देवी के पति चिम्मन सिंह कहते हैं कि जब पंचायती राज व्यवस्था लागू हुई थी, तो लोगों को शुरू में नियम-कायदे ही नहीं पता थे. महिला सरपंच की जगह उनके पति बैठकों में जाते थे. ऐसा आज भी कई जगह होता है.

बादामी देवी के कार्यकाल में भी ग्राम सभा की बैठकें आयोजित करने की कोशिशें हुईं. उनके दौर में एक दलित महिला स्कूल में दोपहर का खाना या मिड-डे मील पकाया करती थी. लेकिन ऊंची जातियों के बच्चे ये खाना नहीं खाते थे. वो स्कूल में लंच के वक्त घर जाकर खाना खाकर दोबारा स्कूल आया करते थे. यहां तक कि स्कूल के अध्यापक भी उस दलित महिला का पकाया खाना नहीं खाते थे.

Badami Devi, who was elected as a sarpanch in her panchayat which has always lived under upper caste domination. Firstpost/Tufail Ahmad

बादामी देवी, अपने पंचायत की सरपंच बनीं, जहां हमेशा ऊंची जातियों का दबदबा रहा था. (फ़र्स्टपोस्ट/तुफ़ैल अहमद)

बादामी का कार्यकाल खत्म होने के बाद पुरवास कलां में सरपंच की सीट ओबीसी महिला के लिए आरक्षित हो गई. नई सरपंच ने ऊंची जातियों के सहयोग से चुनाव जीता था. समय का चक्र घूमा है और एक बार फिर से सत्ता गांव के ऊंचे तबके के लोगों के हाथ में आ गई है. अब गांव में पंचायतों की बैठकें नहीं होतीं. स्कूल में दोपहर का खाना भी अब दलित महिला नहीं पकाती.

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अहम दिनों में ऊंची जाति के लोगों में से एक आदमी ही झंडा फहराता है, ओबीसी सरपंच नहीं. नई सरपंच ऊंची जातियों के समर्थन से इस कुर्सी तक पहुंची है, तो वो इसका विरोध भी नहीं करती. पुरवास कलां की कहानी भारतीय लोकतंत्र में जाति के रोल को बखूबी समझाती है. अब जैसे-जैसे जातियों के बीच सत्ता के लिए संघर्ष बढ़ रहा है, तो भी, सियासी तौर पर बहुत बदलाव देखने को नहीं मिल रहा है.

लोकतंत्र आम भारतीय की जिंदगी में जिंदगी में निभा रहा अहम रोल

हां, सामाजिक स्तर पर कुछ बदलाव जरूर हो रहे हैं. छुआछूत कमोबेश खत्म हो चुका है. शहरी इलाकों में अंतरजातीय शादियां भी हो रही हैं, भले ही ये इक्का-दुक्का हो. जब मैंने बादामी देवी से पूछा कि क्या वो अपने बेटों को दूसरी जाति में शादी करने देंगी, तो उनका जवाब था, 'हम अपने बेटों की शादियां दूसरी जाति में करने को तैयार नहीं हैं'. लेकिन जब मैंने उनसे ये पूछा कि अगर उनके बेटे पढ़ने के लिए शहरों में गए और वहां से दूसरी जातियों की बीवियां ले आए तो? बादामी देवी का जवाब था, 'तब हम उन्हें अपना लेंगे'.

सामाजिक स्तर पर ये छोटे बदलाव हो रहे हैं. सियासी तौर पर भी छोटे बदलाव मुमकिन हैं. जैसे कि चंबल इलाके में कई बार ऊंची जाति के लोग किसी बड़े दलित नेता के पैर छूते हैं. ऐसे सामाजिक और सियासी बदलाव भारत में लोकतंत्र के बगैर मुमकिन नहीं थे. आज लोकतंत्र आम भारतीय की जिंदगी में बहुत अहम रोल निभा रहा है.

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