(संपादक की ओर से- भारत गणराज्य अपने 70 बरस पूरे करने जा रहा है. ऐसे वक्त में पूर्व बीबीसी पत्रकार तुफैल अहमद ने शुरू किया है, भारत भ्रमण. इसमें वो ये पड़ताल करने की कोशिश कर रहे हैं कि देश में लोकतंत्र जमीनी स्तर पर कैसे काम कर रहा है. तुफ़ैल अहमद को इसकी प्रेरणा फ्रेंच लेखक एलेक्सिस डे टॉकविल से मिली. जिन्होंने पूरे अमेरिका में घूमने के बाद 'डेमोक्रेसी इन अमेरिका' लिखी थी. तुफ़ैल अहमद इस वक्त वॉशिंगटन स्थित मिडिल ईस्ट मीडिया रिसर्च इंस्टीट्यूट में सीनियर फेलो हैं. वो भारत भ्रमण के अपने तजुर्बे पर आधारित इस सीरिज में भारत की सामाजिक हकीकत की पड़ताल करेंगे. वो ये जानने की कोशिश करेंगे भारत का समाज लोकतंत्र के वादे से किस तरह मुखातिब हो रहा है और इसका आम भारतीय नागरिक पर क्या असर पड़ रहा है. तुफ़ैल की सीरीज़, 'डेमोक्रेसी इन इंडिया' की ये दूसरी किस्त है.)
सेक्युलरिज्म या धर्मनिरपेक्षता, भारत में राजनीति पर किसी भी घर में होने वाली चर्चा के केंद्र में रहता है. धर्मनिरपेक्षता लोकतंत्र के बुनियादी उसूलों में से भी एक है. लेकिन, 3 अप्रैल को कर्नाटक की कांग्रेस सरकार ने लिंगायतों को धार्मिक अल्पसंख्यक का दर्जा देने का फैसला हो, या फिर, मध्य प्रदेश में सरकार का 5 धार्मिक नेताओं को मंत्री बनाना, कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी के मंदिरों के दौरे हों, या फिर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की मंदिरों में जाकर अपनी धार्मिकता की खुली नुमाइश करना. इन मिसालों से साफ है कि भले ही भारत एक सेक्युलर देश बनने के सफर पर चल रहा हो, लेकिन इसने अब तक धर्मनिरपेक्षता के आदर्श को पूरी तरह अपनाया नहीं है.
धर्म ने भारतीय लोकतंत्र में अपनी जड़े बहुत गहरी जमा ली है
भारत गणराज्य, 1950 में लागू हुए संविधान के दिखाए रास्ते पर चलकर खुद को धर्मनिरपेक्ष बनाना चाहता है. लेकिन हकीकत ये है कि धर्म ने भारतीय लोकतंत्र में अपनी जड़ें बहुत गहरे तक जमा ली है. जबकि ऐसा संविधान के धर्मनिरपेक्ष आदर्शों के बिल्कुल ही खिलाफ है.
धर्मनिरपेक्षता को बुनियादी तौर पर तीन मायनों में समझा जाता है. पहला तो ये कि ये मजहबी विचारधारा के खिलाफ है. सेक्युलरिज्म का मतलब है कि ये तार्किक और तरक्कीपसंद विचारों का आंदोलन है. ये किसी भी नागरिक के जीवन में धर्म की दखलंदाजी को सीमित करता है. ताकि वो नागरिक अपनी रोजमर्रा की जिंदगी अपने मन-मुताबिक बसर कर सके.
दूसरी बात ये है कि पिछली कुछ सदियों में सेक्युलरिज्म का सिद्धांत न्यायिक प्रक्रिया में नए विचार के तौर पर उभरा है. जिसके तहत आधुनिक लोकतंत्रों से ये अपेक्षा की जाती है कि वो धर्म से दूरी बनाएंगे और किसी एक मजहब को दूसरे पर तरजीह नहीं देंगे.
भारत में धर्मनिरपेक्षता हुकूमत चलाने वालों का दोगलापन
एक गणराज्य के तौर पर धर्मनिरपेक्षता के इन दो पहलुओं की सबसे अच्छी मिसाल फ्रांस है. लेकिन, असल बर्ताव में देखें, तो भारत में धर्मनिरपेक्षता, हुकूमत चलाने वालों का दोगलापन है. जिसकी आड़ में देश के हुक्मरान एक खास मजहब को दूसरों पर तरजीह देते हैं. ये मजहब हमेशा अल्पसंख्यकों का नहीं होता, जैसा कि हिंदुत्व की राजनीति से साफ है. सेक्युलरिज्म के इस तीसरे मायने की वजह से ही भारत में आम नागरिक इससे नफरत करता है. वहीं अमरीका में इसे उदारवाद और ब्रिटेन में बहुसांस्कृतिक वाद कहते हैं.
ग्वालियर की जीवाजी यूनिवर्सिटी के डॉक्टर एपीएस चौहान ने मुझसे बातचीत में कहा कि, 'लोकतंत्र का जन्म ही धर्मनिरपेक्षता से हुआ है'. जहां तक सेक्युलरिज्म के पहले दो मायनों की बात है, तो चौहान की बात काफी हद तक सही है. उनकी बात इसलिए भी सही है कि भारत के युवाओं ने पाठ्यक्रम के तहत यही पढ़ा है कि भारत एक धर्मनिरपेक्ष गणराज्य है. लेकिन राजनीति और निजाम की जमीनी हकीकत बिल्कुल अलग है और ये संवैधानिक आदर्शों के खिलाफ है.
सारे पार्टियों की सरकारे देती हैं धार्मिक यात्राओं पर सब्सिडी
यूपी में अखिलेश यादव की सरकार ने मानसरोवर यात्रा पर जाने वाले हिंदुओं को सरकारी सब्सिडी में 100 फीसदी का इजाफा किया था. याद रहे कि अखिलेश यादव खुद को समाजवादी नेता बताते हैं. उनके बाद मुख्यमंत्री बने योगी आदित्यनाथ ने मानसरोवर यात्रा पर सरकारी सब्सिडी को दोगुना कर दिया. एक तरफ तो योगी आदित्यनाथ हिंदुओं पर मेहरबान थे. वहीं दूसरी तरफ उनकी सरकार ने कब्रिस्तान की चारदीवारी बनाने के लिए मुसलमानों को मिलने वाली सरकारी मदद बंद कर दी. जम्मू-कश्मीर जैसे मुस्लिम बहुल राज्य में भी, जहां कई मंदिर तबाह कर दिए गए थे, वहां की सरकार हिंदू मंदिरों की मरम्मत के लिए पैसे देती है.
आम नागरिकों को धार्मिक काम के लिए सरकारी मदद की ये योजनाएं सिर्फ एक राज्य तक सीमित नहीं हैं. मध्य प्रदेश अपने यहां के लोगों को इन धार्मिक मदों में पैसे देती है. सिंधु दर्शन टूर, कैलाश मानसरोवर यात्रा, पाकिस्तान स्थित हिंगलाज देवी के मंदिर दर्शन की यात्रा, पाकिस्तान स्थित ननकाना साहब जाने का खर्च, श्रीलंका स्थित सीता मंदिर और अशोक वाटिका देखने जाने का खर्च और कंबोडिया स्थित अंगकोर वाट मंदिर देखने जाने में मध्य प्रदेश की सरकार आर्थिक मदद देती है.
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मध्य प्रदेश की मुख्यमंत्री तीर्थ दर्शन यात्रा योजना के तहत इन 15 धार्मिक स्थलों तक जाने में सरकारी मदद मिलती है. इनके नाम हैं- बद्रीनाथ, केदारनाथ, जगन्नाथ पुरी, हरिद्वार, अमरनाथ, वैष्णो देवी, तिरुपति, अजमेर शरीफ, गया, शिरडी, काशी, रामेश्वरम, अमृतसर और सम्मेद शिखर.
भारतीय लोकतंत्र में अक्सर आरोप ये लगता है कि अल्पसंख्यक मुस्लिम, सरकारी इमदाद का बड़ा हिस्सा चट कर जाते हैं. हिंदू दक्षिणपंथी अक्सर ये आरोप लगाते हैं. लेकिन इन सरकारी योजनाओं का मकसद बहुसंख्यक समुदाय को मदद करना है. ये बात जाहिर नहीं हो पाती क्योंकि अक्सर बहुसंख्यक समुदाय ही सत्ता में होता है.
बीजेपी, कांग्रेस से लेकर आप तक, सबका एक ही हाल
ऐसा नही है कि सिर्फ बीजेपी की राज्य सरकारें धार्मिक कार्य में मदद देती हैं. कर्नाटक की कांग्रेस सरकार चारधाम यात्रा के लिए योजना चलाती है. इसके तहत, केदारनाथ, बद्रीनाथ, गंगोत्री और यमुनोत्री की तीर्थयात्रा में सरकार मदद देती है. 2012 में उस वक्त की तमिलनाडु की मुख्यमंत्री जयललिता ने ईसाईयों के येरूशलम और हिंदुओं के मानसरोवर और मुक्तिनाथ जाने में मदद की योजना शुरू की थी. इसी साल जनवरी में दिल्ली की अरविंद केजरीवाल सरकार ने धार्मिक तीर्थयात्राओं के लिए 53 करोड़ के बजट का एलान किया था. गुजरात और उत्तराखंड समेत कई राज्य ऐसी योजनाएं चलाते हैं.
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2017 में गुजरात ने श्रवण तीर्थदर्शन योजना शुरू की थी, जिसके तहत राज्य के भीतर ही धार्मिक स्थानों के भ्रमण में आर्थिक मदद का प्रावधान था. नागालैंड में चुनाव प्रचार के दौरान बीजेपी नेता और केंद्रीय मंत्री निर्मला सीतारमण ने ईसाईयों को मुफ्त में येरूशलम भेजने का वादा किया था.
प्रोफेसर एपीएस चौहान कहते हैं कि, 'सियासी दलों का धर्म के नाम का इस्तेमाल करना लोकतांत्रिक मूल्यों के खिलाफ है'. वो कहते हैं कि संविधान बनाने वालों ने लोकतंत्र के विचार पश्चिमी देशों से लिए थे, ताकि भारत की सामंतवादी व्यवस्था को खत्म किया जा सके. आदर्श रूप से भारत में लोकतंत्र को मजहब से कोई नाता नहीं रखना चाहिए. सरकारों को मंदिर, मस्जिद या चर्च नहीं चलाना चाहिए. लेकिन आज भी भारत में सरकारें हजारों मंदिरों की मालिक हैं. खास तौर से दक्षिणी भारत के राज्यों में. हालांकि ऐसा लगता है कि दक्षिण भारत के बाहर ज्यादातर मंदिर सरकारी नियंत्रण के दायरे से बाहर हैं.
कई धार्मिक स्थलों का मालिकाना हक सरकार के पास
कई बार, कुछ ऐसे ऐतिहासिक मौके भी आए जब सरकार ने मंदिरों और मस्जिदों को अपने कब्जे में ले लिया. दक्षिण भारत में रियासतों के मालिकाना हक वाले मंदिरों के रख-रखाव का जिम्मा उस वक्त सरकार के पास आ गया, जब इन रियासतों ने भारत में अपना विलय किया. भारत के संविधान की धारा 290A केरल और तमिलनाडु में मंदिरो के रख-रखाव का जिम्मा सरकार के हवाले करती है.
जब यूजीसी ने अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी का अधिग्रहण किया, तो इसके परिसर में स्थित हॉस्टल और मस्जिदें भी सरकार की जिम्मेदारी हो गईं. नतीजा ये कि आज भी सरकार एएमयू परिसर में स्थित मस्जिदों के इमामों को तनख्वाह देती है, हालांकि नई बनी मस्जिदों को ये सरकारी सुविधा नहीं मिलती.
भोपाल के मुस्लिम समुदाय के नेता मोहम्मद तारिक एक और मिसाल देते हैं. वो बताते हैं कि जब भोपाल की रियासत का भारत में विलय हुआ तो तमाम दारुल कजा (यानी अदालतें), फतवे जारी करने वाले दारुल इफ्ता यानी फतवे देने वाली संस्थाएं, और कुछ मस्जिदें सरकार के जिम्मे आईं. तारिक बताते हैं कि दारुल कजा के न्यायिक अधिकार सरकार ने छीन लिए. वहीं, इमामों को अब मामूली तनख्वाह मिलती है.
मजहबी संवेदनाओं का खयाल करते हुए कई राज्यों में कांग्रेस की सरकारों ने गायों की सुरक्षा के कानून बनाए. राजीव गांधी की अगुवाई वाली कांग्रेस की सेक्युलर सरकार ने कट्टर इस्लामिक विचारधारा के दबाव में बदनाम शाह बानो कानून बनाया जो सरासर महिला विरोधी है और मुस्लिम महिलाओं को गुजारे-भत्ते के हक से महरूम करता है.
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ये सब मिसालें जाहिर करती हैं कि किस तरह मजहब ने भारत के निजाम के भीतर गहरी जड़ें जमा ली हैं. और ये तो महज कुछ मिसालें हैं. हुकूमत के भीतर धर्म की पकड़ को पूरी तरह समझने के लिए राजनीति विज्ञान के छात्रों को अलग से पढ़ाई करनी चाहिए.
सभी सियासी दल चुनाव के समय धर्म का इस्तेमाल करते हैं
दुनिया भर में अलग-अलग तरह की सरकारें देखने को मिलती हैं. ब्रिटेन एक धार्मिक गणराज्य है. लेकिन आम लोगों का मिजाज सेक्युलर है. अमेरिका धर्मनिरपेक्ष गणराज्य है. मगर, अमेरिकी नागरिक बड़े धार्मिक झुकाव वाले हैं. भारत में ऐसा लगता है कि मजहब, हुकूमत का हिस्सा बन चुका है. अब चूंकि भारत एक बहुत बड़ा देश है, तो हम सरकार पर धर्म के असर को पूरी तरह से माप और भांप नहीं पाते.
सभी सियासी दल, वो चाहे सत्ता में हों या सरकार से बाहर, वो चुनाव के वक्त धर्म का इस्तेमाल करते हैं. इस तरह से वो संवैधानिक संस्थाओं में धर्म की जड़ों को मजबूत ही करते हैं. हालांकि देश के युवा अभी भी संविधान के धर्मनिरपेक्ष आदर्शों को पढ़ते-सीखते हैं और उन्हें अपनाने की कोशिश करते हैं. यही युवा आने वाले दशकों में भारत की राजनीति की दशा-दिशा तय करेंगे. यही सरकारी संस्थाओं को मजहब से मुंह फेरने के लिए मजबूर करेंगे.
लेकिन, ये तभी हो सकता है जब बहुमत वाले हिंदू मतदाता, भारत में सरकारों को मंदिरों की देख-रेख से रोकें. फिलहाल तो यही कहना ठीक रहेगा कि धर्मनिरपेक्ष भारत गणराज्य पर धर्म हावी है.
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