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डेमोक्रेसी इन इंडिया (पार्ट-13): पुणे के इस घर में महिला सशक्तिकरण का काम शुरू हुआ

शहरों में हम अक्सर समाज के ऊंचे तबके की महिलाओं को 8 मार्च को महिला दिवस मनाते देखते हैं. लेकिन पुणे की रहने वाली रेखा मंगलदास बंदल ने इस बार एक असाधारण बौद्धिक नेतृत्व की मिसाल पेश की

Updated On: Jun 11, 2018 08:27 AM IST

Tufail Ahmad Tufail Ahmad

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डेमोक्रेसी इन इंडिया (पार्ट-13): पुणे के इस घर में महिला सशक्तिकरण का काम शुरू हुआ

(संपादक की ओर से- भारत गणराज्य अपने 70 बरस पूरे करने जा रहा है. ऐसे वक्त में पूर्व बीबीसी पत्रकार तुफ़ैल अहमद ने शुरू किया है, भारत भ्रमण. इसमें वो ये पड़ताल करने की कोशिश कर रहे हैं कि देश में लोकतंत्र जमीनी स्तर पर कैसे काम कर रहा है. तुफैल अहमद को इसकी प्रेरणा फ्रेंच लेखक एलेक्सिस डे टॉकविल से मिली. जिन्होंने पूरे अमेरिका में घूमने के बाद 'डेमोक्रेसी इन अमेरिका' लिखी थी. तुफ़ैल अहमद इस वक्त वॉशिंगटन स्थित मिडिल ईस्ट मीडिया रिसर्च इंस्टीट्यूट में सीनियर फेलो हैं. वो भारत भ्रमण के अपने तजुर्बे पर आधारित इस सीरिज में भारत की सामाजिक हकीकत की पड़ताल करेंगे. वो ये जानने की कोशिश करेंगे भारत का समाज लोकतंत्र के वादे से किस तरह मुखातिब हो रहा है और इसका आम भारतीय नागरिक पर क्या असर पड़ रहा है. तुफ़ैल की सीरीज़, 'डेमोक्रेसी इन इंडिया' की ये बारहवीं किस्त है. इस सीरीज के बाकी लेख पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)

विट्ठलवाड़ी गांव (शिरूर तालुका, पुणे) देश में लोकतंत्र के विकास को समझने के अपने इस सफर में मैं महाराष्ट्र के कुछ गांवों में जाने को मजबूर हुआ. वजह ये कि इस गांव में लड़कियों को ताकत देने की दिशा में बड़ा कदम उठाया है. यहां पर लड़कियों के सशक्तीकरण के लिए अनोखा आंदोलन चल रहा है. दुनिया भर में लोकतांत्रिक अधिकारों के प्रति बढ़ती जागरूकता की वजह से आज तमाम देशों में महिला दिवस मनाया जाता है. हालांकि इसकी शुरुआत 1909 में अमेरिका में हुई थी. लेकिन इस बार महिला दिवस ने पुणे के शिरूर तालुका के 14 गांवों में कई घरों में दस्तक दी. ये दस्तक सियासी भी थी और व्यापक असर वाली भी.

शहरों में हम अक्सर समाज के ऊंचे तबके की महिलाओं को 8 मार्च को महिला दिवस मनाते देखते हैं. लेकिन पुणे की रहने वाली रेखा मंगलदास बंदल ने इस बार एक असाधारण बौद्धिक नेतृत्व की मिसाल पेश की. रेखा मंगलदास पहली बार नेता बनी हैं. वो पुणे जिला परिषद में तालेगांव धामधेरे-रंजनगांव के 14 गांवों की प्रतिनिधि हैं. रेखा मंगलदास ने इस बार महिला दिवस पर दो काम किए. पहला तो ये कि उन्होंने इन सभी गांवों की महिलाओं को महिला दिवस के एक कार्यक्रम में आने का न्यौता दिया. फिर रेखा ने लड़कियों के सशक्तीकरण का संदेश अपने साथ ले जाकर लोगों के घर-घर तक पहुंचाया. गांव की किसी भी महिला के लिए अपनी दिन भर की मजदूरी को छोड़कर किसी कार्यक्रम में शामिल होना क्रांतिकारी कदम है. क्योंकि उस महिला के कंधों पर पूरे घर की जिम्मेदारी होती है.

रेखा ने मंगलदास आंगनवाड़ी कार्यकर्ताओं की मदद से घर-घर जाकर सभी महिलाओं और लड़कियों की लिस्ट तैयार की. जब लिस्ट तैयार हो गई, तो रेखा ने इन सभी छह हजार नामों की नेमप्लेट तैयार की. रेखा कहती हैं कि, 'दरवाज़ों पर लगी नेमप्लेट में हमेशा ही मर्दों के नाम होते हैं. मैं कुछ अलग करना चाहती थी'. रेखा की इस पहल से गांव के पुरुष भी सहमत हो गए. अब इन गांवों के घरों में नेमप्लेट पर घर की बेटियों, पत्नी, मां या बहू के नाम लिखे हैं. जिन घरों में कई महिलाएं हैं, उन घरों की नेमप्लेट में कई नाम दर्ज हैं.

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लड़कियों का सम्मान नेमप्लेट लगने की वजह से बढ़ गया

डिंगरासवाड़ी नाम के एक गांव में रेखा को अपनी इस पहल के विरोध का सामना करना पड़ा. गांव के पुरुषों ने कहा कि, 'अगर कोई लड़की घर से भाग गई और परिवार की मर्जी के खिलाफ जाकर शादी की, तो इससे बदनामी होगी'. ये डर भी उन लड़कियों के सशक्तीकरण का ही संदेश है, जो अपने परिवार के खिलाफ जाकर अपनी मर्जी के लड़के से, जात या धर्म के बाहर जाकर शादी कर सकती हैं. परंपरागत रूप से भारतीय गांवों के घरों की पहचान उनके मर्दों के नाम पर होती रही है. लेकिन रेखा की पहल से आज इन गांवों के घर महिलाओं के नाम से पहचाने जाते हैं. अब इन गांवों की लड़कियों में एक नई तरह की जागरूकता आई है. उन्हें नई पहचान मिली है. और वो इसके बारे में बात भी करती हैं.

विट्ठलवाड़ी ग्राम पंचायत में मेरी मुलाकात कुछ महिलाओं और पुरुषों से हुई. मनीषा गवरे ने कहा कि, 'मेरी बेटी अपने भाई को कहती है कि भैया ज्यादा बोलने का नहीं अब ये घर मेरा हो गया है'. बातचीत से भी लोगों को ताकत मिलती है. रेखा बंदल कहती हैं कि, 'एक लड़की ने मुझे बताया कि नेमप्लेट ने मुझे नई ऊर्जा दी है. एक मां ने कहा कि अब मेरी बेटी मेरे घर की पहचान है'. इसी गांव के दिलीप गवरे ने कहा कि बराबरी के अधिकार के प्रति जागरूकता बढ़ने की वजह से अब परिवार बेटी होने पर भी मिठाई बांटते हैं. जबकि पहले सिर्फ बेटा होने पर ही मिठाई बांटी जाती थी.

मैं इन गांवों में रहने वाले लोगों से गांव के पंचायत भवन में मिला था. रंजनगांव संदास की पंचायत सदस्य संध्या रानाडे ने कहा कि पहले लोग घरों में रहने वाली महिलाओं के बारे में नहीं जानते थे. लेकिन अब सबको घर की महिलाओं के नाम पता हैं. हाल ही में बारहवीं पास करने वाली पायल रक्षे कहती हैं कि लड़कियों का सम्मान नेमप्लेट लगने की वजह से बढ़ गया है. जयश्री तुकाराम पठारे ने महसूस किया कि अब महिलाएं कहती हैं कि अगर रेखा इतने सारे गांवों का काम संभाल सकती हैं, तो हम अपने गांव का काम क्यों नहीं देख सकते. घरेलू महिला रेशमा रियाज शेख ने बताया कि इन गांवों के मुस्लिम घरों में भी लड़कियों के नाम की पट्टियां लगी हैं.

अमेरिका में लोकतंत्र जमीन से आगे बढ़ा इसलिए वहां के नागरिकों में अपने अधिकारों और जिम्मेदारियों को लेकर काफी जागरूकता है. ब्रिटेन में लोकतंत्र शाही परंपरा से पैदा हुआ. फिर अगली कुछ सदियों तक के सफर में लोकतांत्रिक मूल्यों ने लोगों के जहन में अपनी जगह बनाई. लेकिन, भारत में लोकतंत्र सरकार से आया और 1950 में संविधान लागू करने के साथ इसे आम लोगों पर थोप दिया गया था. संविधान के तहत कुछ संस्थाएं बनीं, जिन्हें लोकतंत्र का सबक जनता को पढ़ाना था. लोगों में लोकतंत्र के प्रति जागरूकता पैदा करने में चुनावी प्रक्रिया ने भी अहम रोल निभाया.

पंचायतें ये सुनिश्चित करती हैं कि मकान पति और पत्नी दोनों के नाम हो

ललिता गवरे 69 साल की महिला हैं. उनकी उम्र भारत में लोकतंत्र की उम्र के बराबर ही है. वो कहती हैं कि, '40 साल पहले अगर मर्द बाहर बैठे होते थे, तो महिलाओं को अपनी चप्पल हाथ में लेकर उनके सामने से गुजरना होता था. उसे अपना सिर पल्लू से ढंकना पड़ता था'. जब वो ये बात मुझसे कह रही थीं, तो मैंने आस-पास नजर दौड़ाई. आस-पास दिख रही किसी भी महिला के सिर पर पल्लू नहीं था और वो सभी मर्दं के साथ बैठी हुई थीं. ये वो असल बदलाव है जो भारत में लोकतंत्र की वजह से आया है. लोकतंत्र को सरकार का रूप और विचारों के आंदोलन के तौर पर समझा जाता है. इन पैमानों पर ये कहें कि लोकतंत्र देश की महिलाओं को सशक्त बना रहा है, तो गलत नहीं होगा.

पंचायतों में महिलाओं के चुनाव की ये कहकर आलोचना की जाती है कि हकीकत में तो महिलाओं की जगह उनके पति या बेटे बैठकों में जाते हैं. मध्य प्रदेश के मुरैना में एक युवक ने अपनी मां के सरपंच चुने जाने पर कहा था कि, 'मैं सरपंच बन गया हूं'. बिहार और यूपी समेत कई राज्यों में पंचायतों में चुनी गई महिलाओं की नुमाइंदगी कई बार पति या बेटे करते हैं. लेकिन इन गांवों में ये संभव नहीं. नीमगांव म्हालुंगी में रेशमा काले ने कहा कि, 'हमारे गांव में ऐसा नहीं है. बैठकों में मैं जाती हूं, मेरे पति नहीं. जब मैं पहली बार बैठक में गई तो मेरे दिमाग में कई सवाल थे. लेकिन जब बैठक शुरू हुई, तो मुझे लगा कि मैं सब कुछ कर सकती हूं'.

चुनाव और पंचायत महिलाओं की ट्रेनिंग की जगह हैं. इनके जरिए ही समाज का राजनीतिकरण हो रहा है. मसलन रेखा मंगलदास बंदल ने राजनीति का ककहरा सियासी कार्यक्रमों में अपने पति के साथ जाकर हासिल किया. जबकि रेखा के पति के परिवार की तरफ से भी कोई राजनीति में नहीं था. आज देश के 19 राज्यों के पंचायती राज संस्थानों में महिलाओं को 50 फीसद आरक्षण दिया जाता है.

परोदी गांव के सरपंच विकास शिवाले कहते हैं कि महिलाओं को 50 प्रतिशत आरक्षण लागू होने से महिलाओं का बहुत सशक्तीकरण हुआ है. मसलन, शिवाले ने बताया कि उनकी पंचायत ने पहली बच्ची पैदा होने पर पांच हजार रुपए देने का फैसला किया. अगर उससे पहले कोई लड़का है, तो परिवार को एक हजार रुपए दिए जाते हैं.

ये पंचायत का अपना नियम हो गया. परोदी गांव के व्यापारी रविराज तेमगिरे कहते हैं कि आज पुरुष अपने खेत और मकान अपनी पत्नी के साथ साझा रजिस्ट्री करा रहे हैं. मुझे लगा कि ये इक्का-दुक्का मामला होगा. लेकिन तेमगिरे ने कहा कि ये लोकतांत्रिक जागरूकता की वजह से है. उन्होंने कहा कि, 'लोगों में नई सोच ये पैदा हुई है कि उनकी पत्नी शादी के बाद उनके गांव आई है, तो उसके नाम पर भी कुछ होना चाहिए. आज 70 प्रतिशत मर्द ऐसा कर रहे हैं'. बी.कॉम की छात्रा शीतल तेमगिरे ने बताया कि उनके पिता ने दो एकड़ खेती की जमीन उनके नाम पर दी है और उनकी मां के नाम पांच एकड़ जमीन कर दी है.

विकास शिवाले कहते हैं कि पंचायतें ये सुनिश्चित करती हैं कि मकान पति और पत्नी दोनों के नाम हो. और अगर कभी घर के बुजुर्ग की मौत हो जाती है, तो मकान उनके बेटों के साथ बेटे की मां यानी मृतक की पत्नी के नाम पर भी होता है.

इस सीरीज की चौथी किस्त में हमने बताया था कि आर्थिक अधिकारों से वंचित रहना, अकाल और किसानों की खुदकुशी इसी वजह से होती है क्योंकि स्थानीय लोग सरकार का हिस्सा नहीं होते. लेकिन शिरूर तालुका के इन गांवों में मैंने सशक्तीकरण की अचंभित कर देने वाली कहानियां सुनीं. विट्ठलवाड़ी गांव की पूर्व सरपंच अलका नाद्येश्वर राउत ने बताया कि उन्होंने किस तरह गुटखा पर पाबंदी लगाई और दुकानों को प्लास्टिक की थैलियों में सामान बेचने से रोका.

परोदी गांव की रहने वाली ज्योति लोखंडे ने कहा कि महिलाओं के समूह गर्भवती महिलाओं का पता लगाकर उनकी नियमित मेडिकल जांच कराते हैं.

सिमिलिथा गांव में एक कूड़ेदान (तस्वीर: मनीष कुमार)

रेखा का ये प्रोजेक्ट पर्यावरण के लिए है

महिलाओं में सशक्तीकरण की वजह से आई नई ऊर्जा से उत्साहित रेखा मंगलदास बंदल ने अब एक नया प्रोजेक्ट तैयार कर लिया है. इसके तहत घरों के आंगनों में आम के पांच हजार पेड़ लगाए जाएंगे. रेखा ने ये प्रोजेक्ट एक निजी कंपनी की सीएसआर यानी कॉरपोरेट सोशल रिस्पॉन्सिबिलिटी टीम की मदद से तैयार किया है. रेखा का मानना है कि ये फल वाले पेड़ होंगे, तो गांव के लोग इनका खयाल खुद-ब-खुद रखेंगे. इन पेड़ों पर लड़कियों के नाम होंगे. इससे ये होगा कि शादी के बाद लड़कियां जब अपनी ससुराल चली जाएंगी, तब भी उनकी निशानियां इन पेड़ों के रूप में रहेंगी और लोग उन्हें याद रखेंगे. हम ये मान सकते हैं कि ये लड़कियां अपने साथ बहुत से लोकतांत्रिक सबक अपने पतियों के घर लेकर जाएंगी.

हालांकि रेखा का ये प्रोजेक्ट पर्यावरण के लिए है. शिरूर तालुका में बारिश कम होती है. उम्मीद है कि पेड़ लगाने से ये परेशानी दूर होगी.

मैंने इस इलाके के लोगों में बड़े पैमाने पर लोकतांत्रिक जागरूकता देखी. फिर मैंने भारत के राष्ट्रपति के सचिव रहे पूर्व आईएएस श्रीनिवासराव सोहोनी से पूछा कि आखिर इस इलाके की महिलाओं में ऐसी क्या खास बात है, जो दूसरे राज्यों की महिलाओं में नहीं देखने को मिलती. सोहोनी ने कहा कि जिला परिषद और पंचायत समिति एक्ट 1961 और पंचायती राज एक्ट 1992 ने देश में लोकतांत्रिक प्रक्रिया को रफ्तार दी है. लेकिन महाराष्ट्र में महिलाएं परंपरागत रूप से नौ गज की साड़ी बांधती रही हैं, ताकि वो घुड़सवारी कर सकें. उन्होंने कहा कि शिवाजी ने तमाम जातियों और धर्मों के लोगों को एकजुट किया. महाराष्ट्र ने बाद में आजादी के आंदोलन में भी अहम योगदान दिया. श्रीनिवासराव सोहोनी कहते हैं कि शिवाजी की मां जीजाबाई और दूसरी मशहूर महिलाओं जैसे ताराबाई भोसले, अहिल्याबाई होल्कर और रानी लक्ष्मीबाई जैसी मराठा महिलाओं की यादें आज भी मराठी महिलाओं के जहन में ताजा हैं.

मेरे इस दौरे में हर बैठक में पुरुष भी शामिल होते रहे. मैंने उनसे पूछा कि क्या वो अपने घर की महिलाओं को बाहर जाकर चुनाव मैदान में उतरने देंगे. ज्यादातर ने हां में जवाब दिया. मैंने ये भी महसूस किया कि गांव छोटे हैं फिर भी जिस तरह जाति और धर्म के आधार पर नफरत की राजनीति हम भारत में देखते हैं, वो शिरूर के इन गांवों में नहीं देखने को मिलती. रेखा और उनसे प्रेरित महिलाओं ने ये महसूस किया है कि सरकार ने पंचायती राज संस्थाओं में महिलाओं के लिए 50 फीसद आरक्षण तय किया है. वो कहती हैं कि अब वो विधानसभा और संसद में महिलाओं के लिए 50 प्रतिशत आरक्षण की मांग करेंगी.

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