(संपादक की ओर से- भारत गणराज्य अपने 70 बरस पूरे करने जा रहा है. ऐसे वक्त में पूर्व बीबीसी पत्रकार तुफ़ैल अहमद ने शुरू किया है, भारत भ्रमण. इसमें वो ये पड़ताल करने की कोशिश कर रहे हैं कि देश में लोकतंत्र जमीनी स्तर पर कैसे काम कर रहा है. तुफैल अहमद को इसकी प्रेरणा फ्रेंच लेखक एलेक्सिस डे टॉकविल से मिली. जिन्होंने पूरे अमेरिका में घूमने के बाद 'डेमोक्रेसी इन अमेरिका' लिखी थी. तुफ़ैल अहमद इस वक्त वॉशिंगटन स्थित मिडिल ईस्ट मीडिया रिसर्च इंस्टीट्यूट में सीनियर फेलो हैं. वो भारत भ्रमण के अपने तजुर्बे पर आधारित इस सीरिज में भारत की सामाजिक हकीकत की पड़ताल करेंगे. वो ये जानने की कोशिश करेंगे भारत का समाज लोकतंत्र के वादे से किस तरह मुखातिब हो रहा है और इसका आम भारतीय नागरिक पर क्या असर पड़ रहा है. तुफ़ैल की सीरीज़, 'डेमोक्रेसी इन इंडिया' की ये दसवीं किस्त है. इस सीरीज के बाकी लेख पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)
सूरत:इस सीरीज में मैं ये समझने की कोशिश कर रहा हूं कि भारत में लोकतंत्र का समाज के बर्ताव पर क्या असर पड़ रहा है. और समाज लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं पर कैसा असर डाल रहा है.
इस सीरीज की तीसरी किस्त में मैंने इस बात की चर्चा की थी कि किस तरह राजनीति और जाति के हिंसक घालमेल से भारतीय लोकतंत्र में सत्ता के लिए संघर्ष का चक्र चलता है. मैंने गौर किया कि जैन धर्म, बौद्ध धर्म, ईसाई धर्म, सिख धर्म और भक्ति-सूफी आंदोलन भारत के समाज से जाति व्यवस्था को मिटाने में नाकाम रहे हैं. सवाल ये उठता है कि क्या भारत में लोकतंत्र, जाति व्यवस्था को जड़ से उखाड़ फेंकने में कामयाब रहेगा?
हम भारतीय लोकतंत्र में दो एक साथ बह रही मगर एक-दूसरे के विपरीत धाराएं देखते हैं. एक तरफ तो भारतीय राजनीति और समाज में जाति एक बेहद अहम किरदार है. वहीं दूसरी तरफ लोकतंत्र कई इलाकों में लोगों को जात-पांत के भेदभाव से ऊपर उठाकर बराबरी का दर्जा भी दे रहा है. ऐसा हम खास तौर से गुजरात में होते देख सकते हैं.
हजारों सालों से भारत में समाज बिल्कुल बेमेल लोगों से मिलकर बनता आया है. यहां जातिवाद के आधार पर होने वाला भेदभाव ही, जैसे लोगों को एक सूत्र में पिरोता रहा है.
लेकिन, विचारों और जानकारी के आंदोलन के तौर पर लोकतंत्र ने लोगों को बारबरी और निजी अधिकारों के प्रति जागरूक किया है. लोकतंत्र ने लोगों के अंदर लोकतांत्रिक और तार्किक मूल्यों की बुनियाद डाली है, खास तौर से युवाओं में. भारत के कुछ इलाकों में हमें एक खास बदलाव पर गौर करना चाहिए. वो ये कि अब काफी अंतरजातीय शादियां हो रही हैं. हालांकि ऐसी शादियां या तो शहरों में बसे युवाओं में हो रही हैं. या फिर वो लोग ऐसी शादियां कर रहे हैं, जो पढ़ने के लिए शहर गए और फिर अपने गांव लौटे. असल में भारत में शहर ही लोकतांत्रिक सामाजिक बदलाव के अगुवा बन गए हैं. हम ने इस सीरीज की छठवीं किस्त में इसकी विस्तार से चर्चा की थी.
हालांकि अंतरजातीय विवाह अभी भी गिने-चुने ही हो रहे हैं. और ये भारतीय समाज में किसी बड़े बदलाव का अभी संकेत नहीं कहे जा सकते. लेकिन इनकी तादाद बढ़ रही है. गुजरात के हालात चौंकाने वाले हैं. डॉक्टर जयेश शाह वडोदरा में रहने वाले लेखक और रिसर्च सलाहकार हैं. वो वडोदरा की एनजीओ सेंटर फॉर कल्चर ऐंड डेवेलपमेंट से जुड़े हैं. डॉक्टर जयेश शाह कहते हैं कि आज जाति अपनी अहमियत खोती जा रही है, खास तौर से उनके लिए जिनकी उम्र 40 बरस से कम है. शाह कहते हैं कि, 'ये सामाजिक बदलाव बहुत छोटे स्तर पर हो रहा है. आम तौर पर समाज में सियासी तौर पर जाति ही हावी है'. शायद यही वजह है कि गुजरात के चुनाव में बड़े पैमाने पर जातियों की गोलबंदी देखने को मिली.
जयेश शाह ने देखा कि गुजरात में अंतरजातीय शादियां बढ़ रही हैं. ऐसे पिछले कुछ दशकों से देखने को मिल रहा है. शाह ने इस बारे में रिसर्च की. उन्होंने इसके लिए 1980 और 2010 में रजिस्टर की गई शादियों के आंकड़ों की पड़ताल की. पिछले कुछ दशकों में आधे से भी कम ब्राह्मणों ने ब्राह्मणों में शादियां कीं. 1980 में ये तादाद 49.6 फीसद थी. वहीं 2010 में केवल 46.8 फीसद ब्राह्मणों ने ही अपनी जाति में शादियां कीं.
इसका मतलब है कि 2010 में 53.2 फीसद ब्राह्मणों ने दूसरी जातियों में शादियां कीं. ब्राह्मणों के ओबीसी यानी अन्य पिछड़ी जातियों में शादियों की संख्या अलग-अलग सालों में 8 से 9 प्रतिशत है. जबकि पिछले कुछ दशकों के आंकड़े देखें, तो, केवल दो फीसद ब्राह्मणों ने ही दलितों में शादियों कीं और केवल आधा फीसद ने आदिवासियों में शादी की.
इसी तरह जयेश शाह के आंकड़े बताते हैं कि राजपूतों के राजपूतों में शादियों की संख्या भी घट रही है. 1980 में ये तादाद 43 फीसद थी. साल 2000 में ये आंकड़ा 33.7 प्रतिशत और 2010 में और घटकर 31.1 फीसद ही रह गया. मतलब ये कि गुजरात में आज करीब 70 फीसद राजपूत अपनी जाति के बाहर शादियां कर रहे हैं.
दिलचस्प बात ये है कि हर पांचवां राजपूत ओबीसी जाति में शादी कर रहा है. असल आंकड़ा 2010 में 22.3 प्रतिशत का है. 1980 में राजपूतों के दलित जाति में शादी करने की संख्या शून्य थी. साल 2000 में 3.3 फीसद राजपूतों ने दलितों में शादियां कीं. 2010 में ये तादाद 2.7 प्रतिशत रही. राजपूतों के आदिवासियों मे शादी करने की बात करें, तो, 1980 में ये संख्या 5.4 प्रतिशत से 2010 में बढ़कर 6.2 फीसद हो गई.
1980 में गुजरात में 17 फीसद दलितों ने अपनी जाति से बाहर शादियां की थीं. 2000 में ये आंकड़ा 25 प्रतिशत और 2010 में बढ़कर 33 प्रतिशत हो गया. 1980 में जाति से बाहर शादियां करने वालों में से केवल 2 प्रतिशत दलितों ने अपने से ऊंची समझी जाने वाली जाति में शादी की थी. 2000 में 6.9 फीसद दलितों ने ऊंची जातियों में शादी रजिस्टर्ड कराई. 2010 में ये आंकड़ा 7.7 प्रतिशत पहुंच गया. आज ऊंची जाति माने जाने वाले पटेल अपनी बिरादरी से बाहर की जातियों में शादियां कर रहे हैं. पिछले कुछ दशकों में ये आंकड़ा तेजी से बढ़ा है. 1980 में 17 फीसद पटेलों ने अपनी जाति से बाहर शादी की थी. साल 2000 में ये आंकड़ा बढ़कर 22 प्रतिशत और 2010 में 28 फीसद हो गया.
अब ये आंकड़े तो गुजरात में रजिस्टर कराई गई शादियों के हैं. ये भारतीय लोकतंत्र में आए असली बदलाव के संकेत हैं. डॉक्टर जयेश शाह कहते हैं कि, 'अब केवल बड़े शहरों में ही नहीं, बल्कि गांवों और छोटे कस्बों में भी अब अंतरजातीय विवाह हो रहे हैं. आज गुजरात के समाज में जातीय बंधन कमजोर हो रहे हैं. लेकिन 2015 से जातियां, राजनीतिक तौर पर लामबंद हो रही हैं'.
जयेश शाह कहते हैं कि आज राजनीतिक दल युवाओं को बताते हैं कि तुम एक खास जाति के हो. वो कहते हैं कि ये नागरिकों का दोहरा चरित्र उजागर करता है. एक तरफ तो भारतीय नागरिक सामाजिक तौर पर गुजरात जाति के बंधन को तोड़ रहा है. वहीं सियासी तौर पर वो जाति व्यवस्था में खुद को जकड़ भी रहा है. भारत में लोकतंत्र का एक बड़ा गहरा असर ये है कि यहां सरकार अंतरजातीय शादियों को बढ़ावा देती है. 2013 में एक योजना शुरू की गई, जिसमें दलित से शादी करने पर सरकार की तरफ से 2.5 लाख रुपए दिए जाते थे.
बहुत सी राज्य सरकारें, अंतरजातीय शादियां करने वालों को वित्तीय मदद देती हैं. 7 मई को खबर आई थी कि महाराष्ट्र सरकार ऐसा कानून बनाने जा रही है, जो अंतरजातीय और दो संप्रदायों के बीच शादी को बढ़ावा देगा. ऐसी कोशिशों से साफ है कि बराबरी का संवैधानिक अधिकार और दूसरे लोकतांत्रिक अधिकार जनचेतना का हिस्सा बन रहे हैं, खास तौर से युवा इनसे प्रभावित हो रहे हैं. लोकतंत्र नहीं होता, तो अंतरजातीय शादियां नामुमकिन थीं.
अगड़ी जाति के लोग हों या फिर दलित, आज कोई भी भारतीय युवा जातीय पहचान नहीं चाहता. ये दिमागी इंकलाब युवाओं में लोकतंत्र की वजह से ही आ रहा है. जयेश शाह कहते हैं कि अगले बीस सालों में राजनेता हमें जाति के आधार पर नहीं बांट सकेंगे. वो कहते हैं कि बीस साल बाद जब उनका पोता बड़ा होगा, तब तक जाति व्यवस्था की बंदिशें खत्म हो चुकी होंगी. जयेश शाह की ये उम्मीद गुजरात में हकीकत बनने की पूरी संभावना है. बाकी राज्यों में आज भी जाति के आधार पर सामाजिक भेदभाव हो रहे हैं. जाति एक सियासी हथियार है. जबकि शहरों में जातीय पहचान धुंधली पड़ रही है.
ग्वालियर में एक दलित युवक ने मेरी अंतरात्मा को झकझोर दिया. जब मैंने उससे कहा कि लोकतंत्र की वजह से आज निचली जातियां ताकतवर हुई हैं, तो उसने पलटकर मुझे जवाब दिया कि, 'आप किस सशक्तिकरण की बात कर रहे हैं? हमारी पूरी जिंदगी खुद से दिमागी लड़ाई लड़ते बीतती है. हम सदियों से जो अपमान झेलते आ रहे हैं, उनसे जूझते हैं'. ए खसारिया (बदला हुआ नाम) नाम का एक युवक जो ग्वालियर में सरकारी विभाग में नौकरी करता है, उसने कहा कि दफ्तरों में दलित और ऊंची जाति के लोग साथ काम जरूर करते हैं. लेकिन दोपहर में लंच के वक्त वो अलग-अलग मेजों पर बैठते हैं.
अप्रैल 2018 में जब मैंने सुप्रीम कोर्ट के आदेश के खिलाफ आंदोलन कर रहे कई दलितों से बात की थी, तो उन सब ने कहा था कि एससी/एसटी एक्ट के तहत तुरंत गिरफ्तारी उनकी पहली मांग है. मैंने जिन लोगों से बात की थी, उनमें से ज्यादातर अपना नाम बताने से डर रहे थे. जबकि वो कोई भी विवादित बात नहीं कर रहे थे.
आर सोनी (बदला हुआ नाम) ग्वालियर के एक सरकारी विभाग में काम करते हैं. वो कहते हैं कि बुंदेलखंड इलाके में दलितों के सबसे पढ़े लिखे वर्ग से आने वाले बैंक मैनेजर भी सवर्णों की बहुतायत वाले इलाकों में किराए पर घर नहीं ले पाते. उन्हें दलित बहुल इलाकों में रहना पड़ता है.
ग्वालियर में एक और दलित युवा ने मुझे बताया कि ऊंची जाति के लोगों की मानसिकता में कोई बदलाव नहीं आया है. इस युवक ने कहा कि, 'लोग फूलन देवी पर बनी फिल्म का लुत्फ लेते हैं. फिल्म में जब उसके कपड़े उतारे जाते हैं, तो लोग खुश होते हैं, क्योंकि वो दलित है. वहीं जब संजय लीला भंसाली पद्मावत बनाते हैं, तो इसे रानी पद्मावती का अपमान बताकर लोग सड़कों पर उतर आते हैं क्योंकि पद्मावती ऊंची यानी राजपूत जाति से थी'. इस युवक ने कहा कि दिक्कत ये है कि पढ़े-लिखे सवर्ण भी ये मानने को तैयार नहीं हैं कि दलितों के साथ-भेदभाव होता है.
ग्वालियर की जिला अदालत में एक वकील ने कहा कि वकील भी जातीय आधार पर बंटे हुए हैं. इस वकील ने कहा कि, 'मैंने खुद एक सवर्ण वकील को ये कहते सुना कि अब सवर्ण युग आ गया है'. इस वकील ने मुझे बताया कि मध्य प्रदेश हाई कोर्ट की किसी भी बेंच में एक भी दलित जज नहीं है. निचली अदालतों में भी पांच फीसद जज भी दलित या आदिवासी नहीं हैं. उसने कहा कि सत्ताधारी दल के लोग हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में केवल ऊंची जाति के जजों की नियुक्ति को ही मंजूरी देते हैं.
मई महीने में दलितों से भेदभाव की कई खबरें आईं. केंद्रीय मंत्री उमा भारती को एक दलित के साथ खाना खाने से इनकार करने पर माफी मांगनी पड़ी. अलीगढ़ जिले के लोहगढ़ गांव में रहने वाले दलित रजनीश कुमार उस वक्त चौंक पड़े, जब सुबह 11 बजे उनके यहां यूपी के मंत्री सुरेश राणा पहुंचे. राणा अपने साथ होटल से मंगवाया गया खाना लेकर आए थे. वहीं 4 मई को यूपी की बेसिक शिक्षा मंत्री अनुपमा जायसवाल उस वक्त विवाद में घिर गईं, जब उन्होंने कहा कि दलितों के घर जाने वाले मंत्री बहादुरी से उन घरों में मच्छरों का सामना करते हैं.
जयपुर में मेरी मुलाकात डॉक्टर ओमप्रकाश सिरावी से हुई. डॉक्टर सिरावी राजस्थान यूनिवर्सिटी के डॉक्टर आम्बेडकर स्टडीज़ सेंटर के निदेशक हैं. मैंन उनसे इस बारे में पूछा, तो डॉक्टर सिरावी ने कहा कि, 'गांवों में खाना भले ही एक हो, लेकिन दलित और गैर दलित अलग बैठकर खाते हैं. असल बदलाव तब आएगा, जब दलित भी सवर्णों के घर जाकर खाना खा सकेंगे'. डॉक्टर सिरावी ने ये भी कहा कि ग्रामीण इलाकों में दलितों के बीच शिक्षा का स्तर बेहद कमजोर है. इसी वजह से वो देश भर के ग्रामीण इलाकों में स्कूलों के मिड-डे मील के बंटवारे में भेदभाव के शिकार होते हैं.
जाति आज भी भारतीय समाज की बुनियाद में है. हालांकि इसमें बदलाव आ रहा है. गुजरात में हो रहे अंतरजातीय विवाह इसकी मिसाल हैं, आज भी जातिवाद एक तल्ख हकीकत है. ये सरकारी दफ्तरों, अदालतों और पंचायतों में दिखता है. लेकिन अच्छे बदलाव भी आ रहे हैं. दबे-कुचले लोग अब जोर-शोर से अपनी आवाज उठा रहे हैं. शहरी इलाकों में अंतरजातीय शादियां हो रही हैं. गुजरात के कुछ हिस्सों में तो शहरों के साथ-साथ गांवों में भी अंतरजातीय शादियां हो रही हैं. शहरों में युवा आज दूसरों की जाति की परवाह नहीं करते. आज जातिवाद का जहर भारतीय राजनीति से समाज में घुल रहा है. इसकी वजह है कि तमाम सियासी दल चुनाव के दौरान लोगों को उनकी जाति याद दिलाते हैं.
जयेश शाह कहते हैं कि एक या दो दशक बाद राजनेताओं को समाज के सामने सरेंडर करना पड़ेगा.
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