राजधानी दिल्ली में सीलिंग की कार्रवाई तेज होने से जहां कारोबारी अपने द्वारा निर्वाचित सरकार के तंत्र की मार से बदहवास हैं वहीं निगम पार्षद, विधायक, सांसद और मंत्री बेबस तमाशा देख रहे हैं. बीजेपी इसके लिए सुप्रीम कोर्ट में राजधानी के मास्टर प्लान-2021 में प्रस्तावित संशोधन खारिज होने को ढाल बना रही है.
सुप्रीम कोर्ट ने रिहायशी इलाकों में नियम विरुद्ध कारोबार करने की कथित गैरकानूनी हरकत के कारण डीडीए और नगर निगमों को सीलिंग का आदेश दिया है. इन दो पाटों के बीच अपने पुरुषार्थ और पूंजी से कारोबार करने वाले कारोबारी पिस रहे हैं. विडंबना यह है कि इस फसाद की जड़ दिल्ली विकास प्राधिकरण यानी डीडीए अपने मातहत होने के बावजूद केंद्र सरकार बेबसी जता रही है.
गौरतलब है कि दिल्ली में मास्टर प्लान लागू करने वाली दोनों ही प्रमुख एजेंसियों डीडीए और दिल्ली के तीन नगर निगमों पर बीजेपी का शासन है. साथ ही दिल्ली सरकार भी गृहमंत्रालय को जवाबदेह उपराज्यपाल की ही ताबेदार है. साल 1957 में केंद्रीय शहरी विकास मंत्रालय के तहत गठन के बाद से ही डीडीए, दिल्ली के नियोजित विकास के बजाए अनियंत्रित विकास का जिम्मेदार है.
क्या है सीलिंग करने की वजह?
दिल्ली के नियोजित विकास के लिए 1962 में बने पहले मास्टर प्लान को ही डीडीए आजतक लागू नहीं कर पाया जबकि अब मास्टर प्लान 2021 में संशोधन किया जा रहा है. इसी वजह से अवैध कारोबार या रिहायश के नाम पर दिल्ली वालों के घर और कारोबारों को लगातार तोड़फोड़ अथवा सीलिंग या फिर पुनर्वास का दंश झेलना पड़ रहा है. इस विभीषिका में साल 1996 के बाद से पर्यावरण संरक्षण के नाम पर सुप्रीम कोर्ट के सक्रिय होने से तेजी आई है.
हालांकि इन कार्रवाइयों को वैचारिक स्तर पर दिल्ली से कामगारों को भगाकर राजधानी को अभिजात नगरी बनाने की कोशिश भी बताया जा रहा है. इसके पीछे तर्क यह है कि यदि दिल्ली को प्रदूषण और अव्यवस्था से मुक्त करना ही ध्येय है तो दिल्ली में सबसे अधिक प्रदूषण और कॉलोनियों में अव्यवस्था तो वाहन फैलाते हैं फिर उनका रजिस्ट्रेशन क्यों नहीं बंद किया जा रहा?
साल 1962 के मास्टर प्लान के तहत दिल्ली के विभिन्न भागों में 1,000 एकड़ क्षेत्र में कुल 8,000 उद्योग-धंधे आंके गए थे. इनमें से अधिकतर बंटवारे के बाद पश्चिमी पंजाब, सिंध आदि क्षेत्रों से लुटे-पिटे आए विस्थापितों द्वारा अपने पैरों पर खड़े होने के लिए पुनर्वास कॉलोनियों में ही लगाए गए थे. इनके लिए विभिन्न रिहायशी कॉलोनियों के आसपास पुनर्वास के लिए 1981 की शहरी सीमा के तहत कुल 5761 एकड़ क्षेत्र में औद्योगिक संरचना बनाने की जरूरत आंकी गई थी.
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ताज्जुब यह है कि 1984 तक भी डीडीए इन उद्योग-धंधों का पुनर्वास नहीं कर पाया था जबकि 1990 में पुन: निर्धाारत मास्टर प्लान में इनकी अनुमानित संख्या एक लाख आंकी गई थी. इतना ही नहीं डीडीए ने तब तक कुल कितने क्षेत्र में औद्योगिक और कारोबारी संरचना बनाई इसकी सही जानकारी संसद की प्राक्कलन समिति भी उससे नहीं ले पाई.
प्राक्कलन समिति की तत्कालीन रिपोर्ट के अनुसार दिल्ली में दो दशक में तमाम एजंसियों ने कुल 2148 एकड़ क्षेत्र में औद्योगिक संरचना विकसित की थी और उसमें 2700 एकड़ अकेले डीडीए ने विकसित की थी. चकरा गए न डीडीए का कमाल देखकर! डीडीए ने कुल विकसित भूमि से भी 552 एकड़ अधिक भूमि में औद्योगिक संरचना विकसित कर दी!
डीडीए ने किया कछुए की गति से काम
फिर भी डीडीए दो दशक में महज 3300 उद्योग-धंधों का पुनर्वास ही कर पाया! यह बात दीगर है कि उसी दौरान दिल्ली में सैकड़ों अवैध बस्तियां कुकुरमुत्ते की तरह उग आईं जिनमें बेहद प्रदूषणकारी उद्योग-धंधे भी शामिल थे. यह पूर्वी दिल्ली में विश्वास नगर से लेकर उत्तर पश्चिम के मुंडका गांव तक फैल गए थे.
प्राक्कलन समिति की रिपोर्ट के 16 साल बाद सन् 2000 में जब सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर उद्योग-धंधों के औद्योगिक क्षेत्रों और व्यावसायिक केंद्रों में पुनर्वास की जरूरत पड़ी तो तत्कालीन शहरी विकास मंत्री जगमोहन ने दिल्ली में एक लाख उद्योग-धंधों के पुनर्वास की जरूरत बताई. उनमें रिहायशी इलाकों में चल रहे हल्के उद्योग और सेवा क्षेत्र के धंधे भी शामिल थे. इनके लिए रिहायश के आसपास ही 192 एकड़ क्षेत्र में व्यावसायिक परिसर और 50 वर्गमीटर के फ्लैटवाले परिसर विकसित करने पर जोर दिया गया.
उन फ्लैटों में सेवा क्षेत्र के धंधे जैसे टीवी, कूलर, एसी, फोन, घरेलू उपकरण, मेकैनिक, दर्जी, ड्राईक्लीनर, मोची, पेस्ट कंट्रोल, आटा-दाल मसाला चक्की, जिम, डॉक्टरों के क्लीनिक, दवा दूकान, पेंट, हार्डवेयर, पुताई वाले, साइबर कैफे, घरेलू सामान संबंधी दूकानें आदि को जगह मिलनी थी. इस तरह कुल 70 प्रकार के घरेलू धंधों को रिहायशी सुविधाओं पर बोझ न डालते हुए वहीं चलाने की अनुमति दी गई.
अन्य 100 किस्म के उद्योग-धंधों को शहरीकृत गांवों में चलाने की छूट दी गई. साथ ही नियोजित व्यावसायिक केंद्रों में 150 किस्म के उद्योग-धंधों को दिल्ली के मास्टर प्लान 2021 के तहत मंजूरी दी हुई है. इसके बावजूद उन इलाकों में ही सीलिंग हो रही है जहां लोगों ने अपने घर के निचले हिस्से में ही कारोबार जमा रखा है.
70 के दशक से ही हो रही है सीलिंग
उद्योग-धंधों की सीलिंग और पुनर्वास की कार्रवाई दिल्ली में सत्तर के दशक से ही जारी है. सबसे पहले पुरानी दिल्ली में से उद्योग-धंधों को विस्थापित किया गया. उसके बाद उत्तर प्रदेश की दिल्ली से लगी सीमा पर 1975 में नोएडा बना तो पहाड़गंज और भागीरथ प्लेस से रेडियो और टीवी के कारखानों को वहां भेजा गया. उसी दौरान सब्जी मंडी को आजाद मार्केट और दरियागंज क्षेत्र से आजादपुर मंडी में भेजा गया. तभी आपात काल में तुर्कमान गेट और शांतिवन के पास बनी कच्ची बस्तियों और काम-धंधों को सीलमपुर सहित दिल्ली के विभिन्न क्षेत्रों में पुनर्वास बस्तियों में भेजा गया.
उद्योग-धंधों को हटाने की सबसे बड़ी कार्रवाई 1996 में एम सी मेहता की पर्यावरण संरक्षण संबंधी जनहित याचिका पर सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस कुलदीप सिंह के आदेश से शुरू हुई. सुप्रीम कोर्ट ने शुरू में बेहद कड़ा रूख अपनाते हुए दिल्ली की विभिन्न एजंसियों को आनंद पर्वत सहित दिल्ली भर में अवैध यानी नॉन कंफर्मिंग क्षेत्र के हजारों उद्योग-धंधों को तत्काल बंद करने को कहा.
बिना किसी विकल्प और मोहलत के गिरी इस गाज से जाहिर है कि दिल्ली सरकार सहित लाखों कामगार भी हतप्रभ रह गए. लेकिन जब उन्हीं कामगारों ने सुप्रीम कोर्ट और दिल्ली के मुख्यमंत्री की घेरेबंदी कर दी तो सबकी आंखें खुलीं और बाकायदा पुनर्वास योजना बनी. यह बात दीगर है कि कामगारों को अदालत के आदेश के बावजूद कारोबारियों से निर्धारित मुआवजा नहीं मिला.
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इसके तहत प्रदूषण फैलाने वाले उद्योगों को दिल्ली से बाहर जाने को कहा गया. बवाना में विशाल औद्योगिक क्षेत्र बनाया गया जिसमें करीब 16,000 औद्योगिक इकाइयों की गुंजाइश निकाली गई. इसे दिल्ली मेट्रो से जोड़ा गया है. हालांकि हाल में बवाना में पटाखा इकाई में आग में 17 मजदूरों की मौत ने उनके प्रबंध में कोताही की भी पोल खोल दी है.
उद्योग-धंधों के पुनर्वास के लिए 1996 में शुरू हुई योजना 20 साल बाद 1916 में ही समाप्त घोषित की गई है. इसके तहत बवाना-1 और बवाना-2, नरेला, बादली, पटपड़गंज, झिलमिल और ओखला सहित दिल्ली के विभिन्न औद्योगिक क्षेत्रों में 27,984 इकाइयों का पुनर्वास किया गया है.
औद्योगिक क्षेत्र तो रोहिणी और द्वारका में भी बनने थे मगर डीडीए उनमें भी चूक गया. उसकी विफलता की ज्वलंत मिसाल बिड़ला मिल और डीसीएम यानी दिल्ली क्लॉथ मिल आदि की जमीनों पर फ्लैटनुमा इकाइयां बनाने में कोताही है. इनकी करीब 150 हेक्टेयर जमीन का अधिग्रहण करके उस पर साल 1962 में पास दिल्ली के पहले मास्टर प्लान के अनुसार यह निर्माण होना था मगर आज तक डीडीए उस पर अमल नहीं कर पाया.
अब देखना यही है कि केंद्र सरकार खुद दिल्ली के कारोबारियों को अध्यादेश लाकर सीलिंग के कहर से निजात दिलाएगी अथवा अपने असहयोग की शिकार दिल्ली की केजरीवाल सरकार से शीला दीक्षित सरकार की तरह कानून पारित करने को कहेगी.
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