क्या संबंधित राज्यों के हाईकोर्ट उच्च न्यायपालिका का अभिन्न हिस्सा हैं? यदि हां, तो सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश कुरियन जोसेफ का ये दावा कि उच्च न्यायपालिका में भ्रष्टाचार के आरोप निराधार हैं, आश्चर्यजनक है.
बीते 30 नवंबर को सेवानिवृत्त हुए न्यायमूर्ति जोसेफ ने एक साक्षात्कार में कहा, 'मैं कभी भी सहमत नहीं हूं कि उच्च न्यायपालिका में भ्रष्टाचार है. यदि निचली न्यायपालिका में ऐसा है, तो यह राज्य की चिंता है. उच्च न्यायपालिका में भ्रष्टाचार की कोई सूचना मेरे पास तो कभी नहीं आई है.'
न्यायमूर्ति जोसेफ सुप्रीम कोर्ट के उन चार न्यायाधीशों के समूह का हिस्सा थे, जिन्होंने 12 जनवरी, 2018 को एक प्रेस कॉन्फ्रेंस कर सुप्रीम कोर्ट के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा पर कुछ खास न्यायाधीशों को महत्वपूर्ण केस सौंपने का आरोप लगाया था और दीपक मिश्रा के नेतृत्व में सुप्रीम के कामकाज पर गंभीर संदेह जताए थे.
द टाइम्स ऑफ इंडिया से बात करते हुए, जोसेफ ने यह भी कहा, 'सीजेआई दीपक मिश्रा को बाहर से नियंत्रित किया जा रहा था और राजनीतिक पूर्वाग्रहों के साथ न्यायाधीशों को केस सौंपे जा रहे थे.' उनके आरोप पर बहस तो हो सकती है लेकिन यह सबसे ज्यादा आश्चर्यजनक है कि क्या जस्टिस जोसेफ को सच में ये पता नहीं है कि दीपक मिश्रा कहां से नियंत्रित हो रहे थे और उच्च न्यायपालिका में भ्रष्टाचार नहीं है.
2007 में द एशियन एज में प्रकाशित एक लेख में, जस्टिस वीआर कृष्णा अय्यर ने कहा, 'भ्रष्टाचार और गिरावट उच्च न्यायालयों में जारी है और इस प्रवृत्ति को खत्म करना आज बेहद जरूरी है.'
प्रसिद्ध कानूनविद फली नरीमन ने अपनी पुस्तक 'द स्टेट ऑफ द नेशन' में लिखा है, 'भ्रष्टाचार का पाप सिर्फ राजनेताओं, मंत्रियों और नौकरशाहों तक ही सीमित नहीं है. भारत में यह राज्य के सभी अंगों में घुसपैठ कर रहा है, थोड़े अंतर के साथ. जहां मीडिया अधिकारियों (मानहानि के सामान्य कानून द्वारा लगाए गए प्रतिबंधों के अलावा) के गलत काम को उजागर करने को स्वतंत्र है, वहीं उच्च न्यायपालिका के न्यायाधीशों के बीच अच्छे आचरण की कथित चूक पर सवाल नहीं पूछ पाता. हमारे न्यायाधीश अवमानना के कानून के तहत पूर्णत: सुरक्षित हैं. ये एक ऐसा कानून है, जिसकी व्याख्या न्यायाधीशों द्वारा खुद के लिए की जाती है.'
आरोपों की लंबी लिस्ट
कानूनी दिग्गजों के इन अवलोकनों के अलावा 'उच्च न्यायपालिका' के न्यायाधीशों के खिलाफ कथित भ्रष्टाचार के मामले भी रिकॉर्ड है:
1) 2016 में, राज्यसभा के 61 सदस्यों ने आंध्र प्रदेश/तेलंगाना उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति सीवी नागार्जुन रेड्डी को हटाने के लिए प्रस्ताव लेकर आए. उनके खिलाफ अनुसूचित जाति के सदस्यों के खिलाफ अत्याचार और आय से अधिक संपत्ति के आरोप थे. मई 2017 में, राज्यसभा के 54 सदस्यों ने उनके खिलाफ न्यायिक प्रक्रिया में कथित हस्तक्षेप और जूनियर दलित न्यायाधीश के खिलाफ जातिवादी दुर्व्यवहार को रोकने के लिए प्रस्ताव लाए. दोनों ही बार, महाभियोग की कोशिशें असफल साबित हुईं.
2) सौमित्र सेन का मामला सभी जानते है. कलकत्ता उच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश को अदालत द्वारा नियुक्त रिसीवर (वकील) के रूप में अपनी कस्टडी में 33.23 लाख रुपए का दुरुपयोग करने और 1983 के एक केस में कोलकाता अदालत के समक्ष तथ्यों को गलत तरीके से प्रस्तुत करने का दोषी पाया गया था. जब उन्होंने इस्तीफा दिया था, उससे पहले ही राज्यसभा ने उनके खिलाफ महाभियोग का प्रस्ताव लाया था.
3) सीबीआई ने भ्रष्टाचार के मामले में पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश निर्मल यादव पर आरोप लगाए थे. 2008 में उसी अदालत की जस्टिस निर्मलजीत कौर के निवास पर गलती से 15 लाख रुपए का एक बैग पहुंचाया गया था. यह बैग कथित रूप से निर्मल यादव के लिए था. सेवानिवृत यादव अब जांच का सामना कर रहे हैं.
4) सिक्किम उच्च न्यायालय के पूर्व मुख्य न्यायाधीश पीडी दिनाकरन पर अपने गृह नगर अराकोणम में भारी संपत्ति और जमीन जमा करने के आरोप थे, जो उनकी ज्ञात आय के मुकाबले ज्यादा थी. उनके पास तमिलनाडु भूमि सुधार के तहत तय सीमा से अधिक जमीन थी. राज्यसभा के सभापति ने भ्रष्टाचार के आरोपों को देखने के लिए ज्यूडिशियल पैनल बनाया था. लेकिन दिनाकरन ने कार्यवाही शुरू होने से पहले ही जुलाई 2011 में इस्तीफा दे दिया था.
5) वी रामास्वामी सर्वोच्च न्यायालय के पहले न्यायाधीश थे, जिनके खिलाफ महाभियोग प्रस्ताव लाया गया था. उन पर पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के रूप में अपने कार्यकाल के दौरान अपने आधिकारिक निवास पर 'अत्याधिक खर्च' करने का आरोप लगा था. 1993 में उनके हटाने के लिए प्रस्ताव आया लेकिन मतदान के दौरान यह प्रस्ताव लोकसभा में गिर गया.
6) 2003 में जब शमित मुखर्जी दिल्ली उच्च न्यायालय के न्यायाधीश थे, तब सीबीआई ने डीडीए के करोड़ों रुपए के भूमि घोटाले में उनकी कथित भूमिका के लिए उन्हें गिरफ्तार किया था. 2008 में, दिल्ली की एक अदालत ने मुखर्जी और चार अन्य लोगों के खिलाफ आरोप तय किए थे.
ये चन्द ऐसे मामले हैं जो प्रकाश में आए. इसलिए इनके खिलाफ कार्रवाई हो सकी. इसके अलावा, कथित भ्रष्टाचार के कई और मामले हैं, जिनके बारे में कभी भी बात नहीं की जाएगी, क्योंकि अवमानना का कानून इन मामलों को हाइलाइट करने वाले व्हिस्लब्लोअर को भयभीत करते हैं.
वकीलों की महत्वपूर्ण भूमिका
नरीमन ने अपनी पुस्तक में लिखा है, 'उच्च न्यायपालिका (या इसके सदस्यों में से किसी एक के गलत काम) में न्यायिक भ्रष्टाचार को उजागर करने में भारतीय मीडिया की भूमिका नगण्य है. हमें 'न्यायिक भ्रष्टाचार' (या भ्रष्टाचार की व्याप्त धारण) को सामने लाने और खत्म करने के लिए विभिन्न उपाय करने होंगे. सबसे पहले, हमें (कुछ) सदस्यों को शर्मिंदा करने की कोशिश करनी चाहिए. यह काम हम कैसे कर सकते हैं? यह काम वकीलों को ही करना है. उन्हें सिर्फ अतीत की शर्मनाक कृत्यों को ही उजागर नहीं करना है बल्कि संस्थान (न्यायपालिका) की बेहतरी के लिए ये काम करना होगा और ऐसी सफाई करनी होगी जिससे संस्थान पारदर्शी बने.'
सर्वोच्च न्यायालय को किसी भी 'बाहरी' प्रभाव से बचाने की जस्टिस जोसेफ की चिंता सराहनीय है. लेकिन अपने भीतर की सड़ांध, जो भ्रष्टाचार से शुरू हो कर भ्रष्टाचार पर ही खत्म होती है, से भी संस्थान को बचाने की कोशिश करनी चाहिए. और, इसकी बेहतर शुरुआत यही हो सकती है कि बजाए क्लीन चिट देने के, उच्च न्यायपालिका में बढ़ रही विकृति को स्वीकार किया जाए.
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