किसी जांच एजेंसी के भितरखाने कोई राज दबा हुआ हो तो देर-सबेर उसे बाहर आना ही है. केंद्रीय जांच ब्यूरो(सीबीआई) इसका कोई अपवाद नहीं है. दिल्ली के लोधी इस्टेट स्थिति सीबीआई मुख्यालय के गलियारे सड़ांध मार रहे हैं, वहां अपने ही लोगों के बीच गलाकाट जंग चल रही है. और, तकरीबन तय हो गया है कि अब यह संस्था (सीबीआई) ढह जाएगी.
जारी तनातनी की अगली कड़ी
विदेश दौरे पर गए सीबीआई के डायरेक्टर आलोक वर्मा ने हाल में केंद्रीय सतर्कता आयोग (सीवीसी) को यह खास पैगाम सुनाया है कि संस्था (सीबीआई) में सबसे बडा ओहदा उन्हीं का है और ऐतराज जताया है कि उनकी गैरमौजूदगी में सीबीआई में भारतीय पुलिस सेवा (आईपीएस) के अधिकारियों को क्यों कर प्रवेश दिया गया. आलोक वर्मा की सीबीआई में नंबर टू स्पेशल डायरेक्टर राकेश अस्थाना और सीवीसी के साथ पहले से तनातनी चली आ रही है और नया पैगाम जारी तनातनी की अगली कड़ी है.
महज दो महीने पहले आलोक वर्मा की मर्जी के खिलाफ डेप्युटी इंस्पेक्टर जेनरल और ज्वायंट डायरेक्टर स्तर के अधिकारियों को हटाया गया था. आलोक वर्मा फिलहाल विदेश की यात्रा पर हैं और अपनी गैरमौजूदगी में नए अधिकारियों की बहाली के लिए होने जा रही सीवीसी की बैठक पर उन्होंने ऐतराज जताया है. माना जा रहा है कि दरअसल ऐसा करके आलोक वर्मा ने राकेश अस्थाना के खिलाफ हमला बोला है क्योंकि उनकी गैरमौजूदगी में राकेश अस्थाना को ही सीबीआई का काम संभालना है.
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सीबीआई के भीतर जारी गैंगवार सरीखी यह जंग आलोक वर्मा के डायरेक्टर बनते ही शुरू हो गई थी. तब वर्मा ने सीबीआई में कुछ नए अधिकारियों की बहाल करने की जुगत लगाई थी. वर्मा के डायरेक्टर बनने से पहले गुजरात कैडर के आईपीएस ऑफिसर राकेश अस्थाना पूर्णकालिक एक्टिंग डायरेक्टर के रूप में सीबीआई का काम देख रहे थे. उन्होंने नए अधिकारियों को सीबीआई में रखे जाने का विरोध किया और ध्यान दिलाया कि उन अधिकारियों पिछला रिकार्ड शक के घेरे में है.
सीबीआई में नंबर टू राकेश अस्थाना के खिलाफ शिकायतों का अंबार
यूं राकेश अस्थाना को एक काबिल ऑफिसर माना जाता है, उन्होंने लालू यादव से जुड़े चारा घोटाले की जांच की थी. लेकिन सीबीआई के भीतर उनके सहकर्मी मन ही मन उनसे खुन्नस पाले हुए हैं. सहकर्मियों को लगता है कि गुजरात के नेतृवर्ग से अपनी नजदीकी के कारण राकेश अस्थाना सीबीआई में दबदबा बनाने की कोशिश करते हैं. सीबीआई में नई बहालियां अगले कुछ वक्त के लिए रुक गईं लेकिन आपस की एक जंग चालू हो गई. कुछ रहस्यमय दस्तावेज और प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) के हाथों जब्त की हुई डायरी को आधार बनाकर राकेश अस्थाना के खिलाफ सीबीआई में शिकायतों का अंबार लग गया. प्रवर्तन निदेशालय वित्त मंत्रालय के अधीन काम करता है और निदेशालय की अगुवाई फिलहाल दिल्ली कैडर के ही एक आईपीएस अधिकारी करनाल सिंह के हाथों में है. जान पड़ता है, इस मामले में आलोक वर्मा और करनाल सिंह मिलीभगत से काम कर रहे हैं.
साफ दिख रहा है कि शीर्ष स्तर पर चल रही जंग के बीच सीबीआई के भीतर दोफाड़ हो चुका है और पुलिस प्रशिक्षण के दौरान आला दर्जे के अधिकारियों तथा उनके मातहतों को जो हुनर अंडरवर्ल्ड से निबटने के लिए सिखाए जाते हैं उनका इस्तेमाल बड़ी बेशर्मी से एक-दूसरे के खिलाफ हो रहा है. अधिकारियों के साथ तकरीबन वैसा ही बरताव हो रहा है जैसा कि शतरंज की बिसात पर प्यादों के साथ होता है और दोनों धड़े उन्हें बलि का बकरा बना रहे हैं. समझ को मात करती बुझौवल सरीखी बात यह है कि आखिर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अगुवाई वाली ताकतवर सरकार इस लड़ाई पर क्योंकर लगाम नहीं कस पा रही है.
सरकार के एजेंडे को पहुंच सकता है नुकसान
शायद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से बेहतर कोई और नहीं जानता कि सीबीआई के बेलगाम और आपराधिक होने की सूरत में सरकार के एजेंडे को किस कदर नुकसान पहुंच सकता है. यूपीए के शासन के वक्त सीबीआई का इस्तेमाल गुजरात में मोदी के खिलाफ सियासी बदला लेने की नीयत से हुआ, साथ ही बीजेपी के अध्यक्ष अमित शाह और सूबे के कुछ अधिकारियों को झूठे मामलों में फंसाया गया.
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यूपीए सरकार की छत्रछाया में सीबीआई ने अमित शाह पर दबाव डाला. सोहराबुद्दीन एन्काउंटर मामले (2005) में मोदी की संलिप्तता की झूठी बात उनसे जबर्दस्ती कबूलवाना चाहा. लेकिन शाह इस दबाव के आगे नहीं झुके जो उनके धीरज और मोदी के प्रति निष्ठा का सबूत है. गुजरात सरकार को घुटने टेकने पर मजबूर करने के लिए सीबीआई ने सिर्फ इसी एक मामले का इस्तेमाल किया हो ऐसी बात नहीं. साल 2004 में पुलिस मुठभेड़ में इशरत जहां और उसके साथी मारे गए. इस मामले में भी सीबीआई ने सूबे के राजनीतिक नेतृत्व को अपनी जांच के घेरे में लेने की हरचंद कोशिश की.
सच तो ये है कि अभियान की योजना खुफिया विभाग (इंटेलीजेंस ब्यूरो) की देखरेख में बनी और उसी की निगरानी में योजना को अमली जामा पहनाया गया लेकिन इसके बावजूद सीबीआई ने कांग्रेस की तरफ से छोड़ी गई खिसियानी बिल्ली सरीखा पंजामार बरताव किया. उस वक्त जो लोग सत्ता के गलियारे में थे वे इस बात की ताईद करेंगे कि अहमद पटेल का आवास उन दिनों एक तरह से सीबीआई के मुख्यालय में तब्दील हो चुका था और वहां आला दर्जे के अधिकारी गुजरात के सियासी नेतृवर्ग के पांव में फंदे डालने की रणनीति तैयार करने के लिए बैठकबाजी किया करते थे.
सीबीआई को खबरों में बने रहने की लत
नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने की संभावनाओं के बलवती होने तक बैठकबाजी का यह चलन जारी रहा. उभरते हुए नए राजनीतिक समीकरण के बीच सीबीआई के आला अफसरान मोदी और शाह के खिलाफ बदले की नीयत से चलायी जा रही जांच को रोकने के लिए मजबूर हुए. लेकिन बाघ जैसे अपनी जगह नहीं बदलता वैसे ही सीबीआई भी सियासी फिसलनों वाली जगहों पर पंजा मारने से बाज नहीं आ रही. शीर्ष स्तर के नेताओं, नौकरशाहों और यहां तक कि न्यायपालिका के लोगों से जुड़े घोटालों की जांच के कारण सालों से सीबीआई खबरों में बनी चली आ रही है और जान पड़ता है कि सीबीआई को खबरों में बने रहने की लत लग गई है.
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सीबीआई के आला दर्जे के अधिकारियों के एक तबके ने सियासी पटकथा पर असर डालने की आदत पाल ली है. इसके लिए वे एक्टिविस्ट मिजाज के वकीलों को चुनिंदा लीक्स के मार्फत सूचनाएं फराहम करते हैं. दरअसल, यह कहना गलत नहीं होगा कि सीबीआई ने तकरीबन ‘समानान्तर सत्ता-प्रतिष्ठान’ की भूमिका अख्तियार कर ली है. मजे की बात ये है कि सीबीआई की तरह प्रवर्तन निदेशालय भी समान रूप से इस बीमारी की चपेट में है. गौर कीजिए कि ईडी अपने ही बॉस वित्त सचिव हसमुख अधिया के खिलाफ किस तरह मोर्चा खोले हुए है जबकि अधिया को लोग उनकी ईमानदारी और काबिलियत के लिए जानते हैं.
यूपीए सरकार के आखिरी दिनों की तरह ही इन संस्थाओं के आला अफसरों और इनके सियासी सरपरस्तों की खुफिया बैठकें ‘समानान्तर सत्ता-प्रतिष्ठान’ का असर कायम करने की रणनीति तैयार करने के लिए शुरु हो चुकी हैं. शेक्सपीयर के शब्दों के सहारे यह कहना गलत नहीं होगा कि हिंदुस्तान की नौकरशाही के भितरखाने ‘कुछ ना कुछ अब सड़कर सड़ांध’ मारने लगा है. देश के इतिहास में अबतक के सबसे ज्यादा ताकतवर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अगर निदान नहीं कर पाते तो यह रोग एक ना एक दिन हमारी राजव्यवस्था को ही ले डूबेगा.
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