राफेल जेट सौदे में बैंक गारंटी के वित्तीय प्रभाव को लेकर रक्षा मंत्रालय का कहना है कि इससे सरकार को बचत हुई है क्योंकि बैंक गारंटी के मद में दिए जाने वाले शुल्क का भुगतान नहीं हुआ. लेकिन सीएजी (नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक) तथा भारत की तरफ से सौदे की बातचीत करने वाली टीम (आईएनटी) को यह तर्क मंजूर नहीं. दरअसल, इन दोनों ही का मानना है कि बैंक गारंटी के मद में दिए जाने वाले शुल्क के कारण दस्सॉ एविएशन को फायदा हुआ है.
सौदे की बातचीत करने वाले तीन सदस्यीय भारतीय दल (आईएनटी) का कहना है कि फ्रांस की सरकार ने एयरक्राफ्ट पैकेज के लिए जो अंतिम बोली लगाई थी, अगर उसमें बैंक गारंटी को शामिल न करें तो कुल रकम मिलवां लागत (अलाइन्ड कॉस्ट) की तुलना में हद से हद 2.35 डॉलर कम होती है. (मिलवां लागत में बैंक गारंटी के मद में लिया जाने वाला शुल्क शामिल है.)
बैंक गारंटी ना होने पर आपत्ति जताते हुए आईएनटी के सदस्यों ने कहा है कि टीम ने अग्रिम भुगतान, स्टेज पेमेंट, परफार्मेंस बॉन्ड तथा वारंटी और MTBF बॉन्ड के संदर्भ में बैंक गारंटी के वाणिज्यिक असर को जानने के लिए आकलन किया था. इसके लिए स्टेट बैंक ऑफ इंडिया की पार्लियामेंट शाखा से सलाह ली गई. मानकर चला गया कि सरकारी क्षेत्र के किसी बैंक की सालाना कमीशन रेट 2 प्रतिशत की होगी जिसमें कन्फर्मेशन चार्ज भी शामिल है. इस सोच के साथ आकलन करने पर बैंक गारंटी का वाणिज्यिक प्रभाव प्रतिशत पैमाने पर 7.28 फीसद का आता है.
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कुल प्रॉक्यूरमेंट कॉस्ट(उपार्जन लागत) 7890 मिलियन यूरो की मानें तो 7.28 फीसद के हिसाब से बैंक गारंटी के वाणिज्यिक असर के मद में राशि 574 मिलियन यूरो की निकलती है, बशर्ते कीमतों में होने वाले सामयिक बढ़वार की गिनती ना की जाय. इस तरह, बैंक गारंटी के वाणिज्यिक असर पर ध्यान दें तो पता चलता है कि दस्सॉ एविएशन तथा एबीडीए ने खरीद-प्रक्रिया में मिलवां लागत की जो वाणिज्यिक कीमत बतायी थी उसकी तुलना में फ्रांस की सरकार का बताया मूल्य 5.3 प्रतिशत ज्यादा है.'
सीएजी ने जो सवाल उठाए हैं उसपर रक्षा मंत्रालय ने बस इतना भर कहा है, 'मंत्रालय को सौदे में बचत हुई है क्योंकि बैंक गारंटी के मद में शुल्क का भुगतान नहीं किया गया. सीएजी ने इस तर्क को खारिज कर दिया क्योंकि इसमें कोई तुक बात नहीं हैं. रिपोर्ट से यह स्पष्ट नहीं होता कि आखिर मंत्रालय इस निष्कर्ष तक कैसे पहुंचा कि बैंक गारंटी ना हो तो इससे भारत सरकार को फायदा पहुंचेगा जबकि दस्सॉ एविएशन को वास्तव में फायदा पहुंचाया जा रहा था.
अगर हम यह ख्याल करें कि 36 राफेल विमानों की खरीद के लिए जो अन्तर-शासकीय समझौता हुआ उसमें दस्सॉ ने 2007 में चली सौदे की बातचीत में अग्रिम भुगतान के मद में 15 फीसद की बैंक गारंटी की शामिल किया था, परफार्मेंस गारंटी और वारंटी के मद में 5 फीसद के हिसाब से बैंक गारंटी मानी गई थी, तो यह मुद्दा और भी ज्यादा गंभीर हो जाता है. अगर विक्रेता सौदे की शर्तों का उल्लंघन करता है तो माना जाता है कि बैंक गारंटी अब स्वतः और प्रत्यक्ष ढंग से अमल में आ गई है.
विमानों की बिक्री से संबंधित 2015 के प्रस्ताव में फ्रेंच विक्रेता ने ऐसा नहीं किया, उसने फायनेंशियल और परफॉर्मेंस बैंक गारंटी नहीं दी. चूंकि विमान के फ्रेंच विक्रेता को अग्रिम भुगतान के तौर पर 60% फीसद रकम दी जानी थी सो विधि एवं न्याय मंत्रालय ने सलाह दी कि प्रस्तावित सौदे की कीमत के एतबार से फ्रांस की सरकार कोई गारंटी दे या फिर सॉवेरन गारंटी हासिल की जाए. लेकिन फ्रांस की सरकार और दस्सॉ एविएशन इस पर राजी नहीं हुए. बस फ्रांस के प्रधानमंत्री के हस्ताक्षर वाला एक लेटर ऑफ कंफर्ट सौदे के बाबत मुहैया कराया गया.
इस पर 2016 के सितंबर महीने में रक्षा मामलों से संबंधित मंत्रिमंडलीय समिति ने मोहर लगाई. फ्रांस की सरकार एस्क्रो अकाउंट (एक विशेष किस्म की वित्तीय युक्ति जो बड़ी खरीद में सौदे के स्थायित्व के लिए अहम होती है) के लिए सहमत नहीं हुई क्योंकि उसे लगा कि जो गारंटियां पहले दी जा चुकी हैं वो अपने दायरे के एतबार से बहुत बड़ी तथा अप्रत्याशित हैं.
आखिरकार सौदे से संबंधित अन्तरशासकीय समझौते के अनुच्छेद 5 में आपसी सहमति से यह लिखा गया कि अग्रिम भुगतान सीधे फ्रेंच वेंडर (विक्रेंता) के बैंक खाते में किया जाएगा और ये खाते फ्रांस की सरकार के नियंत्रण में आने वाले बैंकों में होने चाहिए ताकि विमान की आपूर्ति से जुड़े नियमों के क्रियान्वयन तथा पालन पर फ्रांस की सरकार कारगर ढंग से निगरानी रख सके.
इस पहल को असंगत मानकर सीएजी ने आलोचना की है. सीएजी का मानना है कि सौदे में नियमों का उल्लंघन होता है तो भारत की सरकार को अग्रिम भुगतान की रकम की वापसी के लिए बहुत लंबी और जटिल कानूनी लड़ाई लड़नी पड़ेगी.
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सीएजी का कहना है, 'अगर सौदे में किसी शर्त का उल्लंघन होता है तो भारतीय पक्ष (रक्षा मंत्रालय) को पहले मध्यस्थता के जरिए मामला फ्रेंच विक्रेता के साथ सुलझाना होगा. अगर मध्यस्थता के जरिए होने वाला फैसला भारत के पक्ष में रहता है और फ्रेंच विक्रेता (वेंडर) इस फैसले को नहीं मानता (यानि तयशुदा राशि का भुगतान नहीं करता) तो फिर भारतीय पक्ष को तमाम तरह के कानूनी नुक्तों का सहारा लेना होगा, तभी फ्रांस की सरकार फ्रेंच विक्रेता (वेंडर) की तरफ से भारत को सौदे की रकम की वापसी करेगी.'
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