देश की राजधानी दिल्ली में अफसरशाही महीनों से सांकेतिक हड़ताल पर है और राजनेता सियासी ड्रामा कर रहे हैं. देश के सभी राज्यों में सिस्टम सुधारने की बजाए अफसरों के दम पर नेताओं की राजशाही बरकरार है तो फिर बाहरी टैलेंट से सिस्टम में बदलाव कैसे होगा?
यूपी में कप-प्लेट उठाने वाली नौकरशाही और नेताओं की राजशाही
पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने बंगले पर तोड़-फोड़ के लिए माफी मांगने की बजाए धमकाते हुए कहा है कि ‘कप-प्लेट उठाने वाले अफसर, राजनीतिक इशारे पर उन्हें बदनाम करने की कोशिश कर रहे हैं'. उत्तर प्रदेश में मायावती के मुख्यमंत्रित्व काल में गैर-आईएएस को कैबिनेट सेक्रेटरी बनाए जाने की अजब परंपरा के बाद नौकरशाहों की रीढ़ ही टूट गई तो फिर अखिलेश या अन्य नेताओं के बेतुके बयानों पर आपत्ति कौन करे?
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अफसरों की कारस्तानी के बगैर, सरकारी विभागों से मायावती के बंगले पर 86 करोड़ और अखिलेश यादव के बंगले पर 42 करोड़ के खर्च संभव नहीं था. सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद बंगले तो खाली हो गए पर गैर-कानूनी खर्चों पर अफसरों की जवाबदेही का सिस्टम कब बनेगा? अंग्रेजों द्वारा औपनिवेशिक ढांचे की सुरक्षा के लिए बनाई गई नौकरशाही अब राजनीतिक दुरभिसंधि की वजह से अक्षमता, भ्रष्टाचार, कामचोरी और असंवेदनशीलता का पर्याय बन गई, जिसका बाहरी टैलेंट के गंगा जल से शुद्धिकरण कैसे हो सकता है?
दिल्ली में अफसरों की हड़ताल और नेताओं का सियासी ड्रामा
उत्तर प्रदेश और अन्य राज्यों की तर्ज पर केजरीवाल भी दिल्ली की नौकरशाही पर अराजक नियंत्रण चाहते हैं जिसके लिए पूर्ण राज्य की मांग का ड्रामा किया जा रहा है. जेटली और गडकरी से माफी मांगकर सियासी मुनाफे के लिए केजरीवाल ने भ्रष्टाचार के एजेंडे की बलि चढ़ा दी पर अफसरों के साथ उनकी ऐंठ बरकरार है. दिल्ली के मुख्य सचिव को आप विधायकों द्वारा धमकाना और मारना आईपीसी के तहत अपराध है, जिसके लिए मुख्यमंत्री द्वारा माफी मांगने की बजाए धरने की सियासत करना राजनीतिक पतन की पराकाष्ठा ही मानी जाएगी.
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अधिकारी एसोसिएशन का कहना है कि मुख्यमंत्री केजरीवाल ना तो ऑफिस और ना ही विधानसभा जाते हैं तो फिर अफसरों के ऊपर हड़ताल की तोहमत क्यों? सवाल यह है कि नौकरशाही यदि सही तरीके से काम कर रही है तो फिर बीजेपी नेताओं को सचिवालय में कब्जा करके चालीस फीट का बैनर लहराने की अनुमति क्यों दी जा रही है? दिल्ली में टि्वटर के माध्यम से पत्राचार और सोशल मीडिया के माध्यम से सरकार चल रही है तो फिर अफसरों के टैलेंट की जरूरत ही क्या है?
नौकरशाही में आरक्षण का सुलगता सवाल
नौकरियों में आरक्षण की व्यवस्था संविधान के साथ लागू हो गई, पर प्रमोशन में आरक्षण की व्यवस्था 1955 से शुरू हुई. सुप्रीम कोर्ट द्वारा 2006 में नागराज मामले में जारी दिशा-निर्देशों का पालन किए जाने की बजाय केंद्र और राज्य में आरक्षण की राजनीति से नौकरशाही को बांटने की कोशिश खतरनाक हो सकती है. सन 2011 की जनगणना के सामाजिक आंकड़ों को जारी करके इस विवाद को स्वस्थ तरीके से खत्म करने की बजाए अफसरशाही को जातिगत आधार पर नियंत्रित करने की विद्वेषकारी राजनीति से लोकतांत्रिक व्यवस्था की टूटन और बढ़ सकती है. निजी क्षेत्र का टैलेंट तो अल्पकालिक दौर में व्यवस्था की सड़ांध से ही जूझता रहेगा तो फिर परिवर्तन कैसे आएगा?
सीधी भर्ती की बजाए सिस्टम का सुधार क्यों नहीं
सरकार द्वारा ज्वाइंट सेक्रेटरी रैंक पर विशेषज्ञों की सीधी भर्ती को भगवाकरण से जोड़ने वालों को कानून और परंपरा दोनों की जानकारी नहीं है. 25 साल पहले रूसी मोदी को एयर इंडिया प्रमुख और आर. वी. शाही को ऊर्जा सचिव बनाया गया था और उसी परंपरा में मोदी सरकार द्वारा वैद्य राजेश कोटेचा को आयुष मंत्रालय का सचिव बनाया गया. मनमोहन सिंह, मोंटेकसिंह अहलुवालिया और नंदन नीलेकणी को कांग्रेस के दौर में उच्च पदों में प्रतिस्थापित किया गया तो फिर संयुक्त सचिव पद में विशेषज्ञों की सीधी भर्ती पर विवाद क्यों?
मसूरी की आईएएस अकादमी में यह मशहूर है कि यूपीएससी के माध्यम से सरकार में आए बेहतरीन टैलेंट, सिस्टम की सड़ांध का शिकार होकर लाचार और नाकारा बन जाते हैं. आईएएस अधिकारियों को संविधान के अनुच्छेद-312 और 320 के तहत संवैधानिक संरक्षण है लेकिन काम करने के लिए उन्हें सिस्टम का सपोर्ट नहीं मिलता. सरकार के कार्यकाल के आखिरी दौर में तीन साल के कॉन्ट्रैक्ट पर निजी क्षेत्र के विशेषज्ञों की सीधी भर्ती का फैसला राजनीतिक तौर पर भले ही फायदेमंद हो, लेकिन उनसे सिस्टम की सड़ांध कम करने की उम्मीद कैसे की जाए?
(लेखक सुप्रीम कोर्ट में वकील हैं)
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