लोकसभा में राष्ट्रपति के अभिभाषण पर चर्चा का जवाब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने दिया. इस दौरान पीएम मोदी ने कांग्रेस और विपक्ष पर जमकर हमला बोला. साथ ही संसद में बजट सत्र में पीएम मोदी ने लोकसभा में एक कविता का जिक्र भी किया. सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की इस कविता की कुछ पंक्तियां प्रधानमंत्री ने लोकसभा में कही. वो पंक्तियां कुछ इस तरह से थी...
जब कभी झूठ की बस्ती में, सच को तड़पते देखा है तब मैंने अपने भीतर किसी, बच्चे को सिसकते देखा है
अपने घर की चारदिवारी में, अब लिहाफ में भी सिहरन होती है जिस दिन से किसी को ग़ुर्बत में, सड़कों पर ठिठुरते देखा है
हालांकि ये तो कविता की चंद लाइनें हैं. लेकिन अब आपको पढ़ाते हैं वो पूरी कविता जिसका पीएम ने जिक्र किया था...
‘जब कभी झूठ की बस्ती में, सच को तड़पते देखा है तब मैंने अपने भीतर किसी, बच्चे को सिसकते देखा है
माना तू सबसे आगे है, मगर न बैठ यहां अभी जाना है मैंने दो चार कदम पर मंजिल से, लोगों को भटकते देखा है
धन, दौलत, रिश्ते, शोहरत, मेरी जान भी कोई चीज नहीं मैंने इश्क की खातिर ख़ुल्द से भी, आदम को निकलते देखा है
ये हुस्न ओ आब तो ठीक है लेकिन, गुरुर क्यूं तुमको इस पर है मैंने सूरज को हर शाम इसी, आसमां में ढ़लते देखा है
अपने घर की चारदिवारी में, अब लिहाफ में भी सिहरन होती है जिस दिन से किसी को ग़ुर्बत में, सड़कों पर ठिठुरते देखा है
पहले छोटी छोटी खुशियों को, सब मिल कर साथ मनाते थे अब छोटे छोटे आंगन में, रिश्तों को सिमटते देखा है
तुम आज भी मेरे अपने हो, शायद इंसान हो और जमाने के वरना मौसमों से पहले हमने, अपनों को बदलते देखा है
किस बात पे तू इतराता है, यहां वक्त से बड़ा तो कुछ भी नहीं कभी तारों से जगमग आसमां में, सितारों को टूटते देखा है’
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