वित्त मंत्री अरुण जेटली एक मास्टर कवर स्ट्रोक से उन आयकर दाताओं के सबसे बड़े समूह को न्याय और राहत दे सकते हैं, जो अपने को सबसे ठगा हुआ महसूस करते हैं.
इस बार के आम बजट में 'स्टैंडर्ड डिडक्शन' को फिर से लागू करके वित्त मंत्री लाखों करोड़ों नौकरी पेशा और उनके परिजनों की दुआएं बटोर सकते हैं. जिसकी नोटबंदी के फैसले के बाद मोदी सरकार को सख्त जरूरत है.
2005 से पहले तक वेतन भोगियों को 'स्टैंडर्ड डिडक्शन' की सुविधा मिलती थी. 2005-2006 के आम बजट में तत्कालीन वित्त मंत्री पी चिदंबरम ने कर मुक्त आय की सीमा बढ़ाकर एक झटके में 50 हजार रुपये से बढ़ाकर एक लाख रुपए सालाना कर दी और आयकर के ब्रैकटों में भी खासा विस्तार किया. इससे तकरीबन 1.4 करोड़ आयकर दाताओं को फायदा पहुंचा.
लेकिन उन्होंने दूसरे हाथ से उन्होंने एक और काम किया जिससे वेतनभोगी जमता को नुकसान हुआ. उन्होंने वेतन भोगियों के लिए 'स्टैंडर्ड डिडक्शन' को यह तर्क देते हुए समाप्त कर दिया कि उच्च छूट सीमाओं को देखते हुए और इनकम टैक्स ब्रैकटों को बढ़ाने से अब अलग से पर्सनल अलाउंस की आवश्यकता नहीं रह गयी है.
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इस वजह से उन्होंने बढ़ती हुई अंतरराष्ट्रीय प्रक्रिया के अनुरूप 'स्टैंडर्ड डिडक्शन' को हटाने का प्रस्ताव दिया. उस वक्त 'स्टैंडर्ड डिडक्शन' की सुविधा के तहत केवल वेतन भोगियों को कुल वेतन का 40% या 30 हजार रुपए, जो भी कम हो, उसकी छूट इनकम टैक्स के कैल्कुलेशन में मिलती थी.
5 लाख रुपए सालाना या उससे अधिक कमाने वाले वेतन भोगियों को 20 हजार रुपए सालाना का 'स्टैंडर्ड डिडक्शन' मिलता था. 2005 में कर मुक्त आय सीमा 50 हजार रुपए सालाना थी. 30 हजार के 'स्टैंडर्ड डिडक्शन' के मिलने से वेतन भोगियों के इनकम टैक्स फ्री आय की सीमा एक तरह से 80 हजार रुपए सालाना हो जाती थी.
लेकिन इनकम टैक्स फ्री आय की सीमा एक लाख रुपए सालाना कर देने से असल में वेतन भोगियों को 20 हजार रुपए सालाना ही इनकम टैक्स फ्री आय का लाभ ही मिला. जबकि अन्य इनकम टैक्स दाताओं को 50 हजार रुपए सालाना इनकम टैक्स फ्री आय का लाभ मिला और उनकी अन्य सुविधाएं भी पहले जैसी ही रहीं.
चिदंबरम का यह फैसला न्यायशास्त्र के समता की अवधारणा के खिलाफ था जो कहता है कि कानून के समक्ष सब बराबर हैं यानी कानून सबके लिए बराबर है.
क्या है 'स्टैंडर्ड डिडक्शन'
इनकम टैक्स की धारा 80सी में निवेश पर इनकम टैक्स में छूट अब भी मिलती है जैसे पीपीएफ, इक्विटी म्युचुअल फंड, जीवन बीमा, मेडिकल बीमा, नेशलन पेंशन स्कीम और एजुकेशन लोन के आदि पर. लेकिन इस पर इनकम टैक्स पर छूट पाने के लिए इनकम टैक्स डिपार्टमेंट को इन सबका कागजी सबूत देना पड़ता है. इसके बाद ही किसी को यह छूट पाने का हकदार माना जाता है.
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लेकिन 'स्टैंडर्ड डिडक्शन' में किसी निवेश या खर्च का सबूत देने की जरूरत नहीं होती है. इसके लाभार्थी से आय स्तर, यानी किसकी कितनी आय सालाना है, का भी भेद नहीं किया जाता है. जैसे किराए से होने वाली आय में मिलने वाला 'स्टैंडर्ड डिडक्शन' है. लेकिन 2005-06 से वेतन भोगियों को मिलनेवाली मानक कटौती समाप्त हो गयी.
कई देशों में अब भी मिलती है यह कटौती
इसको समाप्त करते हुए पी चिदम्बरम ने कहा था कि बढ़ती हुई अंतरराष्ट्रीय प्रक्रिया के अनुसरण कर उन्होंने यह फैसला किया है जो पूरी तरह सच नहीं है.
आज भी मलेशिया, इंडोनेशिया, जर्मनी, यूनाइटेंड किंगडम, फ्रांस, जापान, थाईलैंड आदि देशों में वेतन से जुड़े खर्चों के लिए नौकरी पेशा लोगों को 'स्टैंडर्ड डिडक्शन' की सुविधा प्राप्त है. आज के नॉलेज युग में कर्मचारियों को अपनी दक्षता और कुशलता को अपडेट रखने के लिए किताबों, इंटरनेट और ट्रेनिंग की आवश्यकता होती है.
सही मायनों में यह खर्च आधिकारिक प्रकृति के हैं. यह कोई निजी उपभोग के खर्च नहीं हैं. वेतन भोगियों को छोड़कर बाकी सभी आय कर चुकाने वाले को आय अर्जन से जुड़े तमाम खर्च पर कटौती की सुविधा प्राप्त है चाहें वे कारोबारी हों या प्रोफेशनल.
ये आयकर दाता टेलीफोन, यातायात पेट्रोल डीजल, स्टेशनरी, डाक खर्च, इंटरनेट चार्ज, दैनिक चाय-पान खर्च आदि जैसे तमाम खर्च हिसाब में डाल कर अपनी कर योग्य आय को कम कर लेते हैं जो कानूनी तौर पर वैध है.
लेकिन नौकरीपेशा लोगों को आय अर्जन के खर्चों पर छूट प्राप्त नहीं है. यह न्याय शास्त्र के समता अवधारणा की घोर अवहेलना भी है और वेतन भोगियों के साथ घोर जुल्म भी.
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वेतन भोगियों का दर्द तब और बढ़ जाता है, जब वे देखते हैं कि कारोबारी या प्रोफेशनल जैसे वकील, डॉक्टर, सीए आदि निजी उपभोग के तमाम खर्चों को कारोबारी खर्च दिखा कर अपनी कर योग्य को खास घटा लेते हैं.
परिजनों के मोबाइल, कंप्यूटर, लैपटॉप , वाहन, एसी आदि खर्चों को भी व्यावसायिक खर्चों को डालने की बात खुला रहस्य है. इन पर यह लोग डिप्रिसिएशन का भी बेजा लाभ उठाते हैं.
डिप्रिसिएशन का लाभ उठाने के लिए ही कारोबारी इकाइयां और प्रोफेशनल हर तीन-चार साल में गाड़ियां, कंप्यूटर, लैपटॉप और मोबाइल बदल लेते हैं. ऐसी नई वस्तुओं पर डिप्रिसिएशन का लाभ ज्यादा मिलता है, जो इनकी कर योग्य आय को खासा घटा देती है.
वित्त मंत्री के सामने है सुनहरा मौका
पिछले साल पहली बार 15 साल के इनकम टैक्स के आंकड़े को सार्वजनिक किया गया था. इसके अनुसार देश में वर्ष 2012-13 में कुल 2.87 करोड़ रिटर्न दाखिल किए गए. इनमें 1.62 करोड़ लोगों ने कोई टैक्स नहीं दिया.
इनकम टैक्स देने वालों की संख्या थी 1.25 करोड़ यानी देश की कुल आबादी का महज 1%. इनमें 90 लाख से अधिक लोग वेतन भोगी थे. पर यह वर्ग ही सबसे ज्यादा अन्याय का शिकार है.
वित्त मंत्री आगामी बजट में इस 'स्टैंडर्ड डिडक्शन' को बहाल कर नौकरीपेशा लोगों को इस अन्याय से मुक्ति दिला सकते हैं.
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उनके लिए सबसे सुकून की बात यह है कि विश्व प्रसिद्व टैक्स सलाहकार कंपनियों ने भी 'स्टैंडर्ड डिडक्शन' की बहाली की पुरजोर वकालत की है.
कर सुधारों पर बनी ईश्वर कमिटी ने भी 'स्टैंडर्ड डिडक्शन' की बहाली की सिफारिश की है. वित्त मंत्री के सामने नौकरी पेशा लोगों और उनके परिजनों की दुआएं बटोरने का स्वर्णिम अवसर है. इस फैसले से कोई विशेष बोझ भी सरकारी खजाने पर नहीं बढ़ेगा.
इसके अलावा अरुण जेटली अपने चिर प्रतिद्वंद्वी और प्रखर आलोचक पी. चिदम्बरम से, वेतन भोगियों के दिल में अजेय बढ़त भी हासिल कर लेंगे. वेतन भोगियों के जेहन में अब पी चिदम्बरम की छवि खलनायक की बनी हुई. उन्होंने तब न केवल 'स्टैंडर्ड डिडक्शन' में बत्ती लगायी थी, बल्कि उनके भत्तों को भी आयकर के मकड़जाल में फंसा दिया था.
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