बोफोर्स घोटाले का जिन्न एक बार फिर बोतल से बाहर आ गया है. स्वीडन सरकार ने भारत के पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी को बचाने के लिए बोफोर्स दलाली कांड की जांच रोक दी थी. इस बात का खुलासा अमेरिकी खुफिया एजेंसी सीआईए की एक रिपोर्ट में हुआ है. 1988 की इस सीआईए रिपोर्ट को दिसंबर 2016 में सार्वजनिक किया गया है.
इस रिपोर्ट में यह भी बताया गया है कि जब भारत सरकार यह सौदा कर रही थी तब उसे बोफोर्स के दागदार इतिहास की जानकारी थी. लेकिन भारत सरकार ने इसे नजरअंदाज किया. भारत का बोफोर्स घोटाला 1987 में उजागर हुआ था. जबकि बोफोर्स के खिलाफ दलाली के आरोपों की जांच स्वीडन में 1984 से ही जांच चल रही थी.
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रिपोर्ट में कहा गया, ‘ स्टॉकहोम (स्वीडन) राजीव गांधी को बचाना चाहता था. बोफोर्स तोप सौदे में हुए लेन-देन के बाद दलाली के कलंक से गांधी और नोबल इंड्स्ट्रीज दोनों बचना चाहते थे. नोबल इंड्स्ट्रीज ने 1985 में बोफोर्स का अधिग्रहण किया था.’
स्वीडन गए थे राजीव गांधी
सीआईए ने अपनी पुरानी रिपोर्ट में बताया, ‘स्वीडन ने राजीव गांधी स्टॉकहोम दौरे के तुरंत बाद ही जनवरी 1988 में बोफोर्स दलाली की जांच को स्थगित कर दिया था.’ स्वीडन का दावा था कि लाख कोशिशों के बावजूद स्विस बैंक से उसे बैंक खातों की जानकारी नहीं मिली. जिसके कारण वह दलाली दिए जाने के सबूत जुटा पाने में नाकाम रही.
सीआईए की इस रिपोर्ट के ताजा खुलासे के बाद नरेंद्र मोदी सरकार को कांग्रेस पर हमला करने का मौका मिल गया है. उत्तरप्रदेश, उत्तराखंड, पंजाब, गोवा और मणिपुर में होने वाले चुनाव के पहले कांग्रेस के लिए इस मुद्दे पर बचाव करना मुश्किल साबित होगा. पिछले साल बिहार में मिली सफलता के बाद कांग्रेस को इन चुनावों में बेहतर प्रदर्शन की उम्मीद है.
सबूतों के अभाव में इस पूरे घोटाले की सही तस्वीर उभरकर नहीं आ पाई. लेकिन सीआईए ने अपनी रिपोर्ट में और भी कई रोचक हालातों का जिक्र किया.
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रिपोर्ट में स्वीडन की सरकार और वहां के हथियार निर्माताओं की एक चिंता का जिक्र किया गया. इन दोनों को लगता था कि दुनिया के अशांत इलाकों वाले देशों में हथियार निर्यात करने की पाबंदी से उन्हें नुकसान हो सकता है. सीआईए की रिपोर्ट में यह भी बताया गया कि इसी डर की वजह से सरकार ने हथियार निर्माताओं के विवादित लेन-देन से मुंह फेर रखा था. लेकिन 1984 में बोफोर्स कांड ने सरकार को जांच शुरू करने पर मजबूर कर दिया.
बलि का बकरा
सरकार ने अपनी जान बचाने के लिए बोफोर्स को बलि का बकरा बनाया. इस मामले की भी जांच को इतनी धीमे किया गया कि लोगों का इस पर से ध्यान हट जाए. लेकिन ‘पीस एंड आर्बीट्रेशन सोसायटी’ जैसे स्टॉकहोम के कुछ संगठनों की वजह से यह केस जिंदा रहा. 1985 में नोबल इंडस्ट्रीज के बोफोर्स का अधिग्रहण करने के बाद बोफोर्स मामला एक बार लोगों की नजर में आ गया.
यही वक्त था जब केस पर से सरकार का निंयत्रण जाता रहा.
इस समझौते में हथियार दोबारा निर्यात करने का सारा दोष बोफोर्स के सिर मढ़ा जाना था. इसके अलावा दो अन्य के खिलाफ केस चलाया जाए. कार्लबर्ग ने मामले के मुख्य जांचकर्ता राबर्ट अल्गर्नान से यह समझौता किया था. बाद में अल्गर्नान ने आत्महत्या कर ली. अल्गर्नान को डर था कि इस समझौते की वजह से डील न रोक पाने का सारा दोष उनके सिर मढ़ दिया जाएगा.
अल्गर्नान की हत्या करने का आरोप एक ईरानी खुफिया एजेंट पर भी लगा जिसे सीआईए ने सिरे से खारिज कर दिया. रिपोर्ट में मुताबिक अल्गर्नान ने आत्महत्या की थी.
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बोफोर्स मामले में स्वीडन की सरकार ने दो लोगों को दोषी ठहराया. लंडबोर्ग और स्कीमिट्ज पर बोफोर्स घोटाले में स्वीडन के कानून के उल्लंघन का आरोप लगा. यह वही दो हथियार के सौदागर हैं जिन पर दोष मढ़ने का सौदा नोबल इंडस्ट्रीज के मुखिया कार्लबर्ग ने स्वीडन सरकार से किया था.
बोफोर्स घोटाले पर सीआईए की पूरी रिपोर्ट यहां पढ़ें:
SWEDEN'S BOFORS ARMS SCANDAL by Firstpost on Scribd
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