सरकार द्वारा छोटे किसानों को सालाना 6,000 रुपए नकद देने की योजना के ऐलान को एक समझदारी भरे कदम के तौर पर देखा जा रहा है, जिसका मई में राजनीतिक फायदा मिलेगा. बजट में घोषित यह योजना दो अन्य घटनाक्रम के बाद आई है. पहली, एक रिपोर्ट है जिसे सरकार ने दबा दिया है, जो बताती है कि इस समय बेरोजगारी 45 वर्षों में सबसे अधिक है. दूसरा यह कि कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने न्यूनतम आय गारंटी की बात की है.
किसानों के लिए ऐसी योजना भारत में पहले से ही मौजूद है. तेलंगाना में किसानों को सालाना 8,000 रुपए दिए जाते हैं. मोदी सरकार की योजना उन किसानों के लिए है जिनके पास 2 हेक्टेयर (मतलब लगभग 5 एकड़) से कम खेत है. ऐसा किसान अगर तेलंगाना में होता तो वह पहले से ही 40,000 रुपए पा रहा होता. ओडिशा में हर किसान को 5,000 रुपए नकद मिलते हैं.
इसके अलावा, छोटे किसानों को बुवाई के पांच सीजन के लिए मदद के तौर पर 25,000 रुपए मिलते हैं और हर भूमिहीन परिवार को तीन चरणों में 12,500 रुपए मिलते हैं. दोनों योजनाओं के आलोचक हैं, जिनका कहना है कि निर्धारण में (कैसे तय किया जाएगा कि कौन भूमिहीन है और कौन छोटा किसान है?) कठिनाई के कारण इन्हें लागू करना मुश्किल होगा और जाहिर है कि संसाधन की कमी तो है ही. फिर भी ऐसा लगता है कि यह ऐसी चीज है जिसका हर राज्य सरकार अनुसरण करने जा रही है, विशेषकर तब जबकि केंद्र भी ऐसा कर रहा है और इसे राजनीतिक रूप से बहुत फायदेमंद माना जा रहा है.
यह विचार कि राज्य से सीधे नकद हस्तांतरण के बिना व्यक्ति जिंदगी नहीं गुजार सकते हैं, भारत तक सीमित नहीं है और असल में इस विचार की उत्पत्ति विदेश में हुई है. यूनाइटेड किंगडम में बेरोजगार जोड़ों को सरकार से प्रति सप्ताह 114 पाउंड (प्रति माह 42,000 रुपए) मिलते हैं. जिन परिवारों के पास घर नहीं है या तंगहाली में रह रहे हैं, उन्हें भारी सब्सिडी वाले काउंसिल होम्स में सरकारी घर दिया जाता है. संयुक्त राज्य अमेरिका में भी बेरोजगारी लाभ और फूड स्टैंप दिए जाते हैं.
स्विट्जरलैंड में जून 2016 में मतदाताओं ने सबके लिए बुनियादी आय गारंटी योजना शुरू करने के प्रस्ताव को खारिज कर दिया था. यह वैसी ही योजना थी जिसका राहुल गांधी ने वादा किया है. जनमत संग्रह में 77% स्विस जनता ने एक ऐसी योजना के खिलाफ वोट दिया, जो उनमें से प्रत्येक को बिना शर्त मासिक आय देती, चाहे उनके पास जॉब या कोई अन्य आय हो या ना हो.
योजना के समर्थक प्रत्येक वयस्क को 2,500 स्विस फ्रैंक प्रति माह (1.8 लाख रुपए प्रति माह) और प्रत्येक बच्चे को 625 स्विस फ्रैंक (45,000 रुपए प्रति माह) दिए जाने की मांग कर रहे थे. समर्थकों का तर्क था कि बढ़ते ऑटोमेशन का मतलब जल्द ही यह होगा कि पश्चिमी देशों में इंसानों के लिए ज्यादा नौकरियां नहीं रह जाएंगी. विरोधियों का तर्क था कि इस तरह की योजना स्विट्जरलैंड में लाखों प्रवासियों को आकर्षित करेगी.
पाठकों को यह जानने में दिलचस्पी होगी कि इस विचार के लिए स्विस राजनेताओं के बीच बहुत कम समर्थन था और एक भी संसदीय पार्टी इसके पक्ष में नहीं थी. यह स्थिति भारत से काफी अलग है, जहां हमारे पास स्विट्जरलैंड जितना पैसा नहीं है, फिर भी सभी दल नकद में पैसा देना चाहते हैं. कुछ दिनों पहले फिनलैंड ने दो साल के एक प्रयोग को खत्म कर दिया है, जिसमें 28 से 58 साल के बीच के 2,000 बेरोजगार लोगों को मासिक 560 यूरो (45,000 रुपए) का भुगतान किया जा रहा था.
यह पता लगाने के लिए कि गारंटीशुदा आय क्या असर डालती है, इन लोगों को जॉब मिल जाने पर भी पैसा मिलना जारी रखा जाना था. स्पेन के शहर बार्सिलोना (जहां बेरोजगारी बहुत अधिक है) और नीदरलैंड के यूट्रेच्ट भी इसी तरह के प्रयोग कर रहे हैं.
दुनिया भर में, भारत से लेकर यूरोप तक, एक यूनिवर्सल बेसिक इनकम के विचार को आवाज मिल रही है. वामपंथी और उदारवादियों दोनों का मानना है कि यह गरीबी और असमानता को कम कर सकता है. दक्षिणपंथी इसे जनकल्याण के ज्यादा कारआमद और नौकरशाही के कम दखल वाले कदम के रूप में देखते हैं.
नरेंद्र मोदी इस वादे के साथ सत्ता में आए थे कि वो मनरेगा जैसी योजनाओं, जिसे उन्होंने मनमोहन सिंह की विफलता का जिंदा स्मारक कहा था, पर रोक लगाएंगे. लेकिन इस बजट में मोदी ने मनरेगा के आवंटन को लगभग 10% बढ़ा दिया है, जो दर्शाता कि इस पर अब उनके विचार बदल गए हैं.
हकीकत यह है कि दुनिया भर में जॉब घट रहे हैं और आगे भी घटते रहेंगे, खासकर उस तरह के जॉब्स जैसे लोग चाहते हैं. कई विशेषज्ञ अगले डेढ़ दशक के भीतर अधिकांश विकसित अर्थव्यवस्थाओं में बड़े पैमाने पर बेरोजगारी बढ़ने की भविष्यवाणी कर रहे हैं. इसका मतलब है कि यूनिर्सल बेसिक इनकम आय पर अधिक से अधिक जोर देना होगा.
पश्चिम की तुलना में भारत में समस्या ज्यादा गहरी है. हम पश्चिम की प्रति व्यक्ति आय (औसत स्विस औसत भारतीय की तुलना में 30 गुना ज्यादा कमाता है) से बहुत पीछे हैं. और इसलिए दुनिया के किसी भी देश के मुकाबले बहुत जल्द बहुत ज्यादा लोगों को बहुत ज्यादा धन का सहारा देने की जरूरत पड़ेगी.
इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि हमारे पास एक बुद्धिमान प्रधानमंत्री (जैसे कि मौजूदा) हैं या दुनिया भर में सम्मानित एक आला शिक्षा प्राप्त अर्थशास्त्री (मनमोहन सिंह). यह एक ढांचागत समस्या है जिससे हम बच नहीं सकते और हमारे यहां आने वाले चुनाव में ज्यादा से ज्यादा पार्टियां इस बारे में बात करेंगी.
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