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बिहार आईएएस विवाद: अफसरशाही के भ्रष्टाचार में जोखिम कम फायदा ज्यादा!

बिहार की स्थिति मध्य युग की याद दिला रही है-अराजक, क्रूर, दिशाहीन ,गरीबों की जरूरत के प्रति निर्दयी.

Updated On: Mar 01, 2017 09:26 AM IST

Surendra Kishore Surendra Kishore
वरिष्ठ पत्रकार

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बिहार आईएएस विवाद: अफसरशाही के भ्रष्टाचार में जोखिम कम फायदा ज्यादा!

केंद्र सरकार के ग्रामीण विकास विभाग के सचिव एनसी सक्सेना ने 1998 में बिहार सरकार के मुख्य सचिव बीपी वर्मा को भेजे अपने एक नोट में लिखा था कि, 'चूंकि भ्रष्टाचार ब्यूरोक्रेसी के ऊपरी स्तर पर बढ़ रहा है इसलिए निचले स्तर के अफसरों को भी पैसे बनाने की छूट मिली हुई है. इसीलिए बिहार में ऐसा माना जाने लगा है कि यहां भ्रष्टाचार कम जोखिम और अधिक लाभ वाला काम है.'

5 फरवरी 1998 को एनसी सक्सेना ने लिखा कि, 'प्रशासन में सामंती प्रवृति भर गयी है. गरीबों का दमन किया जा रहा है. जबकि सरकारी सेवकों का काम सेवा करना है. कानून की भी अनदेखी की जा रही है.'

बिहार के प्रशासन में सुधार के उद्देश्य से सक्सेना ने मुख्य सचिव को ये नोट भेजा था. साथ ही उन्होंने मुख्य सचिव को लिखा कि 'आप चाहें तो इस नोट को सिविल सेवा के सदस्यों के बीच बंटवा दें. साथ ही इस नोट पर आपके और आपके सहयोगियों के विचार का मैं स्वागत करूंगा.'

ये पता नहीं चल सका कि सक्सेना को कोई जवाब मिला या नहीं. यह भी नहीं पता चला कि इस नोट पर राज्य के बड़े अफसरों ने विचार करके सुधार की दिशा में क्या कुछ किया. हां, तब की विवादास्पद राजनीतिक कार्यपालिका ने जरूर इस नोट पर सख्त एतराज किया था.

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पत्र का विरोध

बिहार सरकार के तत्कालीन वित्तमंत्री शंकर प्रसाद टेकरीवाल ने सक्सेना के पत्र को राजनीति से प्रेरित बताया था. यही नहीं उन्होंने कहा कि बिहार सरकार केंद्र सरकार से यह मांग करेगी कि वह ऐसा नोट लिखने के लिए सक्सेना के खिलाफ कार्रवाई करे.

Bihar Ias paper leak

बिहार विधानसभा के बाहर खड़े विधायक

सक्सेना के इस नोट के बाद बिहार की अफसरशाही की कार्यशैली या कार्य प्रणाली में आखिर कितना सुधार हुआ?

क्या आईएएस अफसरों ने कभी इसपर कभी विचार किया था?

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क्या ऊंची कुर्सियों पर बैठे लोक सेवकों ने खुद पहल करके नकल कर के परीक्षाएं पास करने और प्रश्न पत्र लीक करके सरकारी नौकरियां लेने वालों के खिलाफ कभी कारगर कार्रवाई की? हां, मीडिया में घोटाले की खबरें आने के बाद जरूर कार्रवाई हुई.

यदि इस काम में राज्य के नेता घोटालेबाजों का सहयोग करते रहे तो क्या आईएएस अफसरों के संगठन ने अपनी प्रतिष्ठा बचाने के लिए सड़कों पर मानव श्रृंखला बनाने का काम किया?

क्या उनलोगों ने मुख्यमंत्री से मिलकर शिकायत की जो कहा करते हैं कि हम न किसी को बचाते हैं और न ही फंसाते हैं?

नेता तो सत्ता में आते-जाते रहते हैं. अफसरों पर संविधान-कानून की रक्षा की जिम्मेदारी है. उनमें से कुछ अफसर अब भी पूरी ईमानदारी से अपना काम कर रहे हैं. पर क्या यही बात अन्य अफसरों के बारे में कही जा सकती है?

सक्सेना के नोट से यह साफ है कि अधिकतर अफसर अपना काम ठीक से नहीं कर रहे हैं. बिहार के एक ईमानदार मुख्यमंत्री ने एक बार व्यक्तिगत बातचीत में इन पंक्तियों के लेखक को बताया था कि सरकारी भ्रष्टाचार को कम करने में आईएएस अफसर मेरा सहयोग नहीं कर रहे हैं.

इस संदर्भ में सक्सेना के नोट की चर्चा आज भी मौजूं है. सक्सेना ने ये भी लिखा था कि 'ईमानदार अफसर काम में मन नहीं लगा रहे हैं. क्योंकि उन्हें ऊपर से संरक्षण मिलने की कोई उम्मीद नहीं है. जो महत्वपूर्ण पदों पर हैं, वे बिहार सरकार को अपनी निजी संपत्ति मान रहे हैं.'

सक्सेना ने आगे लिखा, 'स्वार्थ के लिए स्टेट का निजी इस्तेमाल बिहार का चलन हो गया है. बिहार के अनेक अफसर अंग्रेजीदां राजनेता बन चुके हैं. वे भ्रष्ट हैं और संकीर्ण स्वार्थ से प्रेरित हैं. वे सब कम समय में मिलने वाले फायदे को पाने के लिए ज्यादा सक्रिय हैं.'

सक्सेना ने यह भी लिखा कि, 'अफसरों में कोई कार्य संस्कृति नहीं है. जन कल्याण की कोई चिंता नहीं. राष्ट्र के निर्माण की कोई भावना नहीं है. राष्ट्रीय लक्ष्य या आधुनिक भारत के मूल्य की कोई धारणा मन में नहीं है. वे लालची और धन लोलुप बन गये हैं. उनमें प्रतिबद्धता, क्षमता और ईमानदारी का नितांत अभाव है. अफसरशाही शोषकों का औजार बन चुकी है.'

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मध्य युग की याद

बिहार की स्थिति मध्य युग की याद दिला रही है- अराजक, क्रूर, दिशाहीन ,गरीबों की जरूरत के प्रति निर्दयी. इसके साथ ही सक्सेना ने यह भी लिखा कि बिहार के बड़े अफसरों और उगाही करने वाले राजनेताओं, इंस्पेक्टरों और बाबुओं में फर्क करना असंभव हो गया है.

यह सच है कि नब्बे के दशक के उस दौर में स्थिति कुछ वैसी ही थी जैसा सक्सेना ने लिखा. साल 2005 में नीतीश कुमार के सत्ता संभालने पर बदलाव आया. विकास और कल्याण के अनेक काम हुए पर फिर भी कोई आदर्श स्थिति नहीं बन सकी.

समय बीतने के साथ पुराने दिनों की झलक मिलने लगी, घोटाले होने लगे.ताजा घोटाला-भर्ती घोटाला है. हाल ही में स्टूडेंट डाटाबेस मैनेजमेंट इन्फॉर्मेशन सिस्टम के तहत ब्योरा एकत्र किया गया तो पता चला कि सरकारी प्रारंभिक विद्यालयों में नामांकित बच्चों की संख्या 12 लाख घट गयी. उससे पहले बच्चों की संख्या बढ़ा-चढ़ाकर दिखायी जाती रही ताकि उन्हें मिलने वाली सरकारी सुविधाओं की लूट हो सके.

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इस लूट को रोकने की जिम्मेदारी आईएएस अफसरों की नहीं थी?

गत जनवरी में जमुई के विशेष भू-अर्जन अधिकारी आलोक कुमार के आवास की तलाशी से पता चला कि उन्होंने 18 साल की नौकरी में सवा छह करोड़ रुपए की नकदी बटोरी. क्या बड़े अफसरों की मदद,सांठगांठ या अनदेखी के बिना ऐसी लूट संभव थी?

यह आम धारणा है कि सिस्टम में छेद के कारण ही शिक्षा-परीक्षा भर्ती में भारी गड़बडि़यां हो रही हैं. पटना में नक्शे का विचलन करके यदि बड़े पैमाने पर अपार्टमेंट और मार्केट बन गये तो उसके लिए सत्ताधारी नेता अधिक जिम्मेदार हैं या बड़े अफसर? या दोनों?

डिलवरी सिस्टम को फूलप्रूफ बनाने के काम में लगने की जगह बड़े अधिकारी एक ऐसे अफसर के लिए सड़कों पर उतर रहे हैं जिस अधिकारी के खिलाफ पहली नजर में भ्रष्टाचार के सबूत मिले हैं.

क्या अपने एक सहकर्मी की गिरफ्तारी से नाराज अफसर बिहार सरकार के ऐसे किसी एक दफ्तर का पता बता सकते हैं, जहां बिना रिश्वत के आम लोगों के काम हो जाते हैं?

बता देंगे तो जनता की बड़ी सेवा होगी.

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