बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटी (बीएचयू) के साथ उदारता का भाव जुड़ा हुआ है. गेट से अंदर जाते ही एक विशाल परिसर दिखता है, मानो शिक्षा का एक पूरा संसार उसमें समाया हुआ हो. सर सुंदरलाल अस्पताल से शुरु करके आईआईटी होते हुए विश्वविद्यालय के आखिरी सिरे यानी डेयरी फार्म तक ड्राइविंग करते हुए कोई जाए तो वह बीएचयू के संस्थापक पंडित मदन मोहन मालवीय की विराट प्रतिभा को याद करके आश्चर्य में डूब जाएगा.
लेकिन हाल में यौन-दुर्व्यवहार के आरोप और लड़कियों के विरोध-प्रदर्शन के बाद उनके खिलाफ जिस तरह से जोर-जबरदस्ती का बरताव हुआ और वाइस-चांसलर गिरीश चंद्र त्रिपाठी ने जिस बेहयाई से इस बरताव को जायज ठहराने की कोशिश की उसे देखते हुए लगता है कि बीएचयू में कहीं ना कहीं बहुत कुछ बड़ी बुरी हालत में है. विश्वविद्यालय दशकों से भीतर ही भीतर सड़ रहा था और उसकी सड़ांध हाल के समय में सबसे जहरीली रूप में सामने आई है.
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विरोध का सम्मानजनक इतिहास
विश्वविद्यालय में पढ़ने वाली लड़कियों ने किसी बात पर सियासी रुख अपनाया है तो इसमें कोई नई बात नहीं है. बीएचयू से कई छात्राएं मशहूर स्टूडेंट लीडर बनकर उभरी हैं- इस विश्वविद्यालय की गौरवशाली विरासत में यह भी शामिल है. बीएचयू के परिसर में हमेशा ही छात्रों के बीच मेलजोल का एक सुरक्षित परिवेश रहता आया है. सादगी और अनुशासन का जीवन जीने वाले अपने-अपने विषयों के प्रकांड विद्वान इस विश्वविद्यालय के परिसर में छात्रों के आदर्श हुआ करते थे. उनकी विद्वता को देखकर सहज ही किसी का सिर श्रद्धा और आश्चर्य से उनके आगे झुक जाया करता था. लेकिन 1980 के दशक में इस विश्वविद्यालय में कहीं ना कहीं भारी गड़बड़ी पैदा हुई.
जुगाड़ से हुई हैं कई नियुक्तियां
आज ये विश्वविद्यालय प्रकांड विद्वानों के 'नाकाबिल और उद्दंड' उत्तराधिकारियों का एक पुनर्वास स्थल बनकर रह गया है. यह जानने के लिए आपको ज्यादा मेहनत करने की जरूरत नहीं. बस उन लोगों के रिकॉर्ड निकाल लीजिए जिनकी शिक्षक या कर्मचारी के रूप में बीते कुछ सालों में नियुक्ति हुई है. आपको दिख जाएगा कि इनमें ज्यादातर वही लोग हैं जिनके नाते-रिश्तेदार या फिर पुरखे कभी इस विश्वविद्यालय के प्रतिष्ठित पदों पर विराजमान थे.
मिसाल के लिए प्रॉक्टॉरियल बोर्ड के एक अहम सदस्य ने जुगाड़ के दम पर अपने चार वारिसों को विश्वविद्यालय के शिक्षक के रूप में सेट कर रखा है. और ध्यान रहे कि यह कोई अपवाद नहीं है. आईआईटी और मेडिकल कॉलेज को छोड़ दें तो इस विश्वविद्यालय के किसी भी विभाग में चले जाइए, शिक्षकों की नियुक्ति के मामले में आपको ऐसी ही कहानी मिलेगी.
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आखिर ये ‘नाकाबिल वारिस’ बीएचयू में कैसे चले आते हैं? अगर कोई एजेंसी बीएचयू में शिक्षक के रूप मे नियुक्त लोगों के अकेडमिक रिकॉर्ड खंगाले तो पता चलेगा कि इनमें से ज्यादातर हाईस्कूल और इंटरमीडिएट के इम्तिहान में फिसड्डी साबित हुए थे. लेकिन विश्वविद्यालय में घुसते ही उनके एकेडमिक रिकॉर्ड में एकदम से उछाल आ जाता है और इनमें से कई तो यूनिवर्सिटी के टॉपर्स भी बन जाते हैं. बीएचयू-कैंपस में आपको ऐसी कहानियों की भरमार मिलेगी.
जातिवाद की सड़ांध
जाहिर है, अगर कैंपस में शिक्षक समुदाय जाति की लकीर पर बंटा नजर आता है तो इसमें कोई अचरज की बात नहीं. वाइस-चांसलर ब्राह्मण हो तो उसे राजपूत कर्मचारी के कोप का सामना करना पड़ेगा या वाइस-चांसलर राजपूत हो तो उसके साथ ब्राह्मण और भूमिहार जाति के शिक्षक सहयोग की भावना से पेश नहीं आएंगे. छात्रों और शिक्षकों के बीच ओबीसी और एससी लॉबी भी है और शिक्षा-व्यवस्था में सेंधमारी करने के लिए जोर-जबरदस्ती का सहारा लेने में यह लॉबी भी पीछे नहीं है.
दरअसल, लगता तो यह है कि जाने-अनजाने हर कोई बीएचयू की प्रतिष्ठा को धूल मिलाने में लगा है. हालिया घटना में शिक्षकों के एक समूह ने आग बुझाने का नहीं बल्कि अपने पूर्वाग्रहों के हिसाब से चलते हुए आग लगाने का काम किया. और वाइस-चांसलर ने, जो आरएसएस के संयुक्त महासचिव कृष्ण गोपाल से अपनी नजदीकी के कारण खुद को बड़ा खास समझते हैं, पूरे घटनाक्रम से बड़ी बेपरवाही से निपटारा किया.
प्रशासन का उपेक्षित रवैया
कैंपस के भीतर के लोग बताते हैं कि विश्वविद्यालय में बाहरी लोगों का आना-जाना है और इस कारण हाल के दिनों में कैंपस में महिलाओं से छेड़खानी की घटनाएं हुई हैं. छात्राओं ने शिकायत की तो प्रॉक्टोरियल बोर्ड और वाइस-चांसलर के दफ्तर की ओर से बड़ा उपेक्षा भरा रवैया अपनाया गया. जिस घटना की वजह से लड़कियों को धरना-प्रदर्शन करना पड़ा वह वीसी के आवास से बस पचास यार्ड की दूरी पर हुई थी.
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जाहिर है, घटना से सख्ती से निपटा जाना चाहिए था, लड़कियों को भरोसा दिलाया जाना चाहिए था कि आगे से ऐसी घटनाएं नहीं होंगी. लेकिन विश्वविद्यालय के प्रशासन ने तो दोष लड़कियों के ही मत्थे मढ़ दिया कि उन्हीं की वजह से छेड़खानी की घटनाएं होती हैं.
वीसी को एक बार इस नाकाबिलियत के अड्डे को भी देखना चाहिए था
लड़कियों की शिकायत पर विश्वविद्यालय-प्रशासन ने जो रवैया अपनाया वह अपने आप में बड़ा अहम है. संस्थान का संचालन कर रहे लोगों की मानसिकता इस रवैये से एक बार फिर उजागर हुई. कहा यह गया कि अगर लड़कियां हॉस्टल लौटने में इतनी देरी करेंगी कि शाम के सात बज जाए तो उनके साथ छेड़खानी की घटना होने की आशंका रहेगी, सो दोष छात्राओं का है.
दिलचस्प बात यह है कि ऐसे दकियानूसी विचार रखने के बावजूद विश्वविद्यालय प्रशासन में शामिल कोई भी अपने पर शर्मिंदा नजर नहीं आता. यही वजह रही जो वाइस-चांसलर ने विमेन्स कॉलेज जाने की जहमत नहीं उठाई जबकि कॉलेज उनके आवास से बहुत नजदीक है. अगर वे विमेन्स कॉलेज जाते तो खुद ही देख लेते कि गर्ल्स-हॉस्टल के खराब प्रबंधन को लेकर लड़कियां क्यों बार-बार शिकायत कर रही हैं. लेकिन ‘नाकाबिलियत का अड्डा' बन चले इस विश्वविद्यालय के वाइस-चांसलर ने बतौर मुख्य अभिभावक ऐसा होने नहीं दिया.
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बीएचयू का पूर्व-छात्र होने के नाते यहां के प्रशासन और शिक्षा के स्तर में आती लगातार गिरावट को लेकर मुझे बड़ा दुख होता है. विश्वविद्यालय में धरना-प्रदर्शन या फिर उत्पात की घटना कोई पहली बार नहीं हुई. 1980 के दशक में विश्वविद्यालय को कई दफे अनियत काल के लिए बंद करना पड़ा था क्योंकि तब छात्रों के विरोध-प्रदर्शन में अपराधियों की घुसपैठ होने लगी थी. लेकिन तब अपराधियों को चिन्हित कर उन्हें परिसर से निकाल बाहर किया गया था, कैंपस में अमन-चैन का माहौल कायम करने में कामयाबी मिली थी. बीजेपी की आत्मा अपनी जगह अखंड कायम है लेकिन हाल की घटना से संकेत मिलता है कि बीएचयू की आत्मा को एक घातक जड़ता ने जकड़ लिया है.
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