छत्तीसगढ़ के लिए सुधा भारद्वाज कोई अंजाना नाम नहीं हैं. वो पिछले तीन दशकों से छत्तीसगढ़ में अलग-अलग भूमिकाओं में काम करती रही हैं. ट्रेड यूनियनों की नेता, मानवाधिकार कार्यकर्ता और अधिवक्ता के रूप में वो लगातार सामाजिक जीवन में सक्रिय रही हैं.
हम यहां सुधा के बारे में इसलिए चर्चा कर रहे हैं क्योंकि सुधा उन सात एक्टिविस्टों में शामिल हैं जिनके घरों में मंगलवार को महाराष्ट्र पुलिस ने छापेमारी की थी. इन लोगों पर पिछले वर्ष 31 दिसंबर को महाराष्ट्र के भीमा कोरगांव में हुए हिंसक संघर्ष के बाद पुलिस ने केस दर्ज किया था. इसी केस के संदर्भ में पुलिस ने सुधा समेत अन्य एक्टिविस्टों के घर पर छापेमारी कर उनमें से पांच को गिरफ्तार भी किया था.
सुधा भारद्वाज के साथ साथ चार अन्य एक्टिविस्ट भी गिरफ्तार किए गए जिनके नाम हैं, गौतम नवलखा, वरावरा राव, अरुण फरेरा और वर्नोन गोंजाल्विस. इसके अलावा फादर स्टेन स्वामी के रांची स्थित घर और अतुल तेलतुंबडे के गोवा आवास पर भी पुलिस ने छापेमारी की थी. हालांकि इन दोनों को गिरफ्तार नहीं किया गया था.
लेबर यूनियनों ने किया है विरोध
इन एक्टिविस्टों की गिरफ्तारी के बाद विरोध प्रदर्शन शुरू हो चुका है. भिलाई के लेबर यूनियन छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा के सदस्यों ने इस गिरफ्तारी की निंदा करते हुए, इसके विरोध में प्रदर्शन किया. सुधा भारद्वाज इस संगठन के साथ दशकों से जुड़ी हुई हैं. मोर्चा के सदस्यों ने सुधा की गिरफ्तारी और उनके फरीदाबाद आवास पर पुलिस के द्वारा की गयी छापेमारी की आलोचना की.
इस संस्था में सुधा को बरसों से जानने वाले कई लोग हैं, उन्हीं में से एक हैं रामचंद साहू जो कि उन्हें बचपन से टेड्र यूनियन के नेता के रूप में देखते आए हैं. साहू सरकार की कार्रवाई से नाराज हैं और कहते हैं कि 'सुधा दीदी पर लगाया गया ये आरोप पूरी तरह से फर्जी है. ये बीजेपी सरकार की एक साजिश है. सरकार चाहती है कि जो भी कर्मचारियों के हितों की बात करे, उन सभी यूनियन के नेताओं को जेल भेज दिया जाए.' सुधा के द्वारा किए गए कामों की तारीफ करते हुए साहू ने कहा कि 'इस क्षेत्र में सुधा दीदी ने श्रमिकों के वेतन को बढ़वाने में बहुत मदद की है. इसके अलावा इस क्षेत्र में श्रमिकों के कार्यस्थल को भी कार्य करने योग्य बनाने में उनका बड़ा योगदान रहा है.'
सरकार के रवैये से नाराज साहू चेतावनी देते हुए कहते हैं कि अगर जल्द ही सुधा को रिहा नहीं किया गया तो छत्तीसगढ़ के सभी वर्कर्स यूनियन सुधा के साथ किए जा रहे इस ज्यादती के विरोध में सड़कों पर उतरने के लिए बाध्य होंगे. उसी तरह से भिलाई में पिछले 29 साल से एसीसी सीमेंट जामुल में ठेके पर काम करने वाले श्रमिक राजकुमार साहू का कहना है कि भारद्वाज ने यहां के 573 कर्मचारियों को सीमेंट निर्माता कंपनी से जुड़े केसों में न्याय दिलाने का काम किया है.
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साहू का आरोप है कि सुधा की गिरफ्तारी के पीछे बीजेपी सरकार की रची गई राजनीतिक साजिश है. साहू कहते हैं कि नियोगी की हत्या में भी इन्हीं का हाथ था. यहां साहू का नियोगी से तात्पर्य शंकर गुहा नियोगी से है जो कि सीएमएम के संस्थापक थे और उनका निधन 1991 में हुआ था. साहू के अनुसार, 'नरेंद्र मोदी और रमन सिंह श्रमिकों की आवाज को दबाने की कोशिश कर रहे हैं, लेकिन हम उन्हें उनके मंसूबों को कामयाब नहीं होने देंगे और इस घटना के विरोध में बड़े स्तर पर विरोध प्रदर्शन का आयोजन करेंगे.'
सेवानिवृत हो चुके श्रमिक दुखु राम साहू का कहना है कि मोदी सरकार ने जितने भी आरोप ‘सुधा दीदी’ के खिलाफ लगाए हैं वो सभी आरोप तथ्यहीन हैं. जामुल के लेबर कैंप में रहने वाले दुखु का कहना है कि उन्होंने हमेशा श्रमिकों के हितों की रक्षा के लिए केस लड़ा है. दुखु सुधा पर लगाए गए आरोपों के विरोध में प्रदर्शन करने की चेतावनी देते हुए सरकार से उन्हें जल्द से जल्द रिहा करने की भी मांग कर रहे हैं.
जन्म अमेरिका में लेकिन कार्यक्षेत्र चुना भिलाई को
जाने-माने अर्थशास्त्री रंगनाथ भारद्वाज और कृष्णा भारद्वाज की बेटी सुधा भारद्वाज का जन्म अमेरिका में 1961 में हुआ था. 1971 में वो भारत आ गईं. उनकी माता कृष्णा भारद्वाज का दिल्ली के जवाहर लाल नेहरू विश्विद्यालय में इकोनॉमिक्स विभाग शुरु कराने में बड़ा योगदान रहा है. वहां आज भी उनकी मां की याद और सम्मान में वार्षिक लेक्चर का आयोजन किया जाता रहा है. सुधा ने खुद भी अपनी पढ़ाई आईआईटी-कानपुर से की है लेकिन उनकी समाज के पिछड़े वर्गों के लिए काम करने की रुचि उनके अपने कॉलेज के दिनों से रही है. उन्होंने दिल्ली की झुग्गियों में अपना जीवन बसर करने वाले लोगों के लिए काफी काम किया है.
भारद्वाज ने 18 साल की उम्र में अपनी अमेरिकी नागरिकता त्याग दी थी. इसके बाद दिए एक इंटरव्यू में उन्होंने कहा था कि उन्हें अपने देश में काम करने के लिए वापस लौटने को लेकर उनके मन में किसी तरह की कोई उलझन नहीं थी. उस समय सुधा ने कहा था कि 'गरीबों के गुजर बसर करने वाले जगहों पर काम करके मुझे लगा कि अगर मैं इनके लिए कुछ भी कर पाई तो मेरा जीवन सफल हो जाएगा. मुझे अपने देश में काम करना था और अपने देश के लोगों के बीच में काम करना था.'
इस लेखक ने भी दस साल पहले सुधा से बिलासपुर के नेहरूनगर स्थित उनके किराए वाले मकान पर मुलाकात की थी. उस समय वो 10x10 फीट के एक छोटे से कमरे में रहती थीं और उनके पास फर्नीचर के नाम पर चार कुर्सियां और एक चारपाई थी. सामान के नाम पर कुछ किताबें और कपड़े थे लेकिन आराम से जुड़ी कोई वस्तु नहीं थी. शहरी जीवन की जरूरतों का सामान्य सामान टीवी, फ्रिज और कूलर भी उनके घर में नहीं था.
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पढ़ाई खत्म करने के बाद भारद्वाज ने छत्तीसगढ़ के दुर्ग जिले में काम करना शुरू किया. इसी दौरान वो सीएमएम के संस्थापक शंकर गुहा नियोगी के संपर्क में आईं. उस समय मोर्चा दल्ली राजहारा के आयरन मिल्स के मजदूरों के अधिकारों की लड़ाई लड़ रहा था. उस समय उनको पता चला कि छत्तीसगढ़ के गरीबों की हालत, दिल्ली जैसे शहरों में झुग्गियों में जीवन बसर करने वाले गरीबों से भी ज्यादा खराब है. इसके बाद उन्होंने अपना जीवन इसी क्षेत्र के लोगों को ऊपर उठाने के लिए देने का फैसला कर लिया और उन्होंने छत्तीसगढ़ को अपना कार्यक्षेत्र बना लिया. जल्द ही उन्हें सीएमएम का सचिव बना दिया गया.
कानूनी मदद देने के साथ-साथ मनोबल भी बढ़ाती हैं
28 सितंबर 1991 को नियोगी की हत्या गोली मार कर दी गई. भारद्वाज और उनके अन्य सहयोगियों ने कर्मचारियों के हितों के लिए संगठन का नेतृत्व करने का फैसला कर लिया. इसके बाद सगंठन ने अपने दायरे का विस्तार किया और दल्ली राजहरा के आयरन मिल्स के बढ़ते हुए पूरे राज्य को अपना कार्यक्षेत्र बना लिया.
दुर्ग जिले के जामुल गांव स्थित एसीसी के सीमेंट फैक्ट्री में काम करने वाले कई मजदूर सुधा भारद्वाज के मुरीद हैं. उन्हीं में से एक हैं जनकराम साहू. साहू इस क्षेत्र की सीमेंट फैक्ट्रियों में काम कर रहे सभी मजदूरों की बढ़ी हुई तनख्वाह का श्रेय सुधा को देते हैं. साहू सुधा की तारीफ करते हुए कहते हैं कि 'सुधा के प्रयासों की वजह से ही सबको सम्मानजनक वेतन या मजदूरी मिलने लगी है. पहले सीमेंट कंपनियां यहां पर मजदूरों का शोषण करती थी लेकिन सुधा के नेतृत्व में लड़ी गयी लड़ाई के बाद अब ये समाप्त हो चुका है.'
छत्तीसगढ़ में मजदूरों और गरीबों की लड़ाई लड़ने के दौरान सुधा को महसूस हुआ कि लेबर मूवमेंट के दौरान कानूनी मामलों में खर्च लगातार बढ़ता जा रहा है. इससे निपटने के लिए सुधा ने एक बार फिर से ऐकेडमिक्स का रुख किया. उन्होंने अधिवक्ता की डिग्री के लिए 40 वर्ष की उम्र में अपने आप को इनरोल कराया. इससे वो इन इलाकों में रह रहे जरtरतमंद आदिवासियों, श्रमिकों और किसानों को कानूनी सलाह देने में सक्षम हो गईं.
इसके बाद इस एक्टिविस्ट ने ‘जनहित’ नाम के एक ट्रस्ट का गठन किया. ‘जनहित’ में समाज के अलग-अलग पिछड़े वर्गों के मामलों को हाथों में लिया गया और उनके लिए लड़ाई लड़ी गई वो भी बिल्कुल मुफ्त में. ‘जनहित’ अब तक जनहित से जुड़े हुए अलग अलग न्यायिक स्तरों पर 300 केसों को लड़ चुका है जिसमें सुप्रीम कोर्ट भी शामिल है.
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क्या भीमा कोरेगांव एक बहाना है?
सोशल एक्टिविस्ट सोनी सोरी के मुताबिक, सुधा बस्तर के आदिवासियों के लिए मां के समान हैं. सोरी के मुताबिक, 'जब 2011 में मुझे गिरफ्तार किया गया था तो वो मुझसे मिलने जेल में आती थीं. उन्होंने मेरे सभी केसों को, डिस्ट्रिक्ट कोर्ट से लेकर हाईकोर्ट तक लड़ा. उन्होंने मेरी अनुपस्थिति में मेरे परिवार को हरसंभव मदद करने की कोशिश की, यहां तक कि मेरे बच्चों की देखभाल भी की.'
सोरी बताती हैं कि केवल सुधा ही थीं जो कि उनसे जेल में मिलने आती थी और वो कभी खाली हाथ नहीं आती थी. हमेशा खाने और कपड़ों को लेकर आने के साथ-साथ वो लड़ाई जारी के लिए सोरी का मनोबल बढ़ाने की कोशिश करती थी और उसे संविधान पर भरोसा रखने के लिए कहती. भावुक सोरी बताती हैं कि 'वो मेरे साथ उस समय खड़ी थीं जिस समय मेरा परिवार, सिस्टम और सरकार सभी मेरे खिलाफ खड़े थे.'
सोरी एक और वाकये का जिक्र करते हुए बताती हैं कि एक बार सुधा को पुलिस द्वारा नक्सली करार दी जा चुकी किशोरी के जेल में बंद होने की जानकारी मिली. उन्होंने उसके बारे में जानकारी इकट्ठा की और उसका केस कोर्ट में तब तक लड़ा जब तक कि उसे रिहा नहीं कर दिया गया. इतना ही नहीं उन्होंने उस किशोरी की मदद अपने बच्चे की तरह से की और अब वो लड़की अपना शादीशुदा जीवन हंसी-खुशी बिता रही है.
कलादास बहारिया छत्तीसगढ़ के दुर्ग के एक मजदूर संघ के लीडर हैं. उन्होंने भारद्वाज के साथ काफी काम किया है, वो कहते हैं कि 'उनपर जो आरोप लगाए गए हैं उस पर हम किसी भी सूरत में भरोसा नहीं कर सकते. इसके पीछे निश्चित रूप से साजिश है.'
सुधा भारद्वाज ने अपनी पूरी संपत्ति को मजदूर संगठनों को दान कर दिया है और वो अब भी किराए के मकान में रहती हैं. उनका दिल्ली में एक पैतृक घर है जिसे उन्होंने किराये पर दे दिया है. इस किराए से मिलने वाली राशि हर माह सीएमएम के खाते में चली जाती है.
पुलिस के लिए बहुत आसान है उन जैसे लोगों को माओवादी से संबंधों के मामले में फंसाना
राज्य के सामाजिक संगठनों के एक ग्रुप ‘छत्तीसगढ़ बचाओ आंदोलन’ के आलोक शुक्ला कहते हैं कि 'भारद्वाज एक ऐसी शख्सियत हैं जो कि दिखावे से भरे हुए और नाटकीय समाज में लोगों को विस्मित करती हैं. अगर भारद्वाज में पिछले दो दशकों में कुछ बदलाव हुआ है तो वो है उनकी उम्र. समाज की निचली पायदान पर बैठे हुए व्यक्ति को उसके हक और अधिकार दिलाने की उनकी लड़ाई ने उन्हें थोड़ा उम्रदराज जरूर बना दिया है लेकिन उम्र उनके मनोबल को कमजोर नहीं कर सकी है.'
उन्हें जानने वाले उन्हें भले ही कुछ और समझते हों लेकिन पुलिस का एक वर्ग और सरकार को लगता है कि 57 वर्षीय इस बुजुर्ग महिला के माओवादियों से संबंध हैं. वैसे ये नई बात नहीं है सीएमएम के संस्थापक नियोगी पर भी ये आरोप लगे थे कि वो माओवादियों के समर्थक हैं लेकिन वो जीवनपर्यंत इससे इंकार करते रहे.
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अभी भारद्वाज पीपल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज (पीयूसीएल) की महासचिव हैं. ये लोकतांत्रिक अधिकारों से जुड़ी एक संस्था है जिसका गठन जयप्रकाश नारायण ने 1976 में किया था. वो स्टेट लीगल सर्विसेज ऑथोरिटी से भी जुड़ी हुई हैं. वो फर्जी इनकाउंटर से जुड़े मामलों में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के संपर्क में भी है.
इसके अलावा भारद्वाज ने उस मामले में भी राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग का ध्यान दिलाने में अहम भूमिका निभाई थी जिसमें अधिकारियों ने सलवा जुड़ुम से जुड़े मामले में मारे गए 7 निर्दोष आदिवासियों की जांच में ढ़ुलमुल रवैया अपनाया था. ये मामला 2007 का था जिसमें सलाव जुड़ुम कार्यकर्ताओं ने सुकमा जिले के कोंडासांवली गांव में आदिवासियों के घरों में लूटपाट करने के बाद सात आदिवासियों की हत्या कर दी थी.
पीयूसीएल से जुड़े एक एडवोकेट शिशिर दीक्षित ने रायपुर के एक हिंदी अखबार को बताया कि भीमा कोरेगांव जांच के नाम का इस्तेमाल महज सुधा भारद्वाज को गिरफ्तार करने के लिए किया गया है. ऐसा इसलिए किया जा रहा है क्योंकि सरकार कोंडासांवली जैसे कई और संवेदनशील मामलों पर पर्दा डालने का काम कर रही है.
पीयूसीएल की स्टेट काउंसिल मेंबर प्रियंका शुक्ला का कहना है कि 'क्योंकि भारद्वाज सड़केगुडा जांच आयोग से सक्रियता से जुड़ी हुई थीं, उन्होंने कोंडासांवली में आदिवासियों की हत्या जैसे मामलों को उठाया था और मीना खाल्को के फर्जी इनकाउंटर को जिस तरह से लोगों को बताया था उससे अधिकारी वर्ग और सरकार उनकी उपस्थिति से खुद को आरामदायक स्थिति में महसूस नहीं कर पा रही थी. ऐसे में आने वाले महत्वपूर्ण चुनावों से पहले उन्हें निशाना बनाने की कवायद की गई है लेकिन इसका मकसद लोगों का ध्यान वास्तविक मुद्दों से हटाने के अलावा कुछ और नहीं है.'
पीयूसीएल के प्रेसीडेंट डा लखन सिंह का कहना है कि 'सरकार एक एक्टिविस्ट पर नक्सली होने का ठप्पा लगाने में जरा भी देर नहीं करती. अगर उस एक्टिविस्ट ने उसके माफिया से गठजोड़ का विरोध किया हो, आदिवासियों के अधिकार की लड़ाई लड़ी हो या फर्जी इनकाउंटरों के खिलाफ आवाज उठाई हो. विरोधियों पर माओवादी का लेबल लगाना पुलिस के लिए ज्यादा मुश्किल काम नहीं है और सुधा भारद्वाज पुलिस की इसी योजना का शिकार हुई हैं.'
(101reporters.com के सदस्यों और फ्रीलांस पत्रकारों सौरभ शर्मा और तमेश्वर सिन्हा से मिले इनपुट के साथ)
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