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एक्टिविस्ट्स की गिरफ्तारी: कांग्रेस का दोमुंहा व्यवहार और मीडिया का वामपंथी शोरगुल

Updated On: Aug 31, 2018 02:45 PM IST

Sreemoy Talukdar

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एक्टिविस्ट्स की गिरफ्तारी: कांग्रेस का दोमुंहा व्यवहार और मीडिया का वामपंथी शोरगुल

माओवादियों के राजद्रोह में साथ देने के कथित आरोप में वामपंथी विचारकों की गिरफ्तारी से देशभर में जबरदस्त गुस्सा है. मामला राष्ट्रीय सुरक्षा, मानवाधिकार और सरकार के खिलाफ वामपंथियों के ‘सशस्त्र संघर्ष’ की विचारधारा के तिराहे पर है. ये विवादित विषय इस गुस्से का मतलब स्वयं ही समझा देता है. हालांकि, ये मामला राजनैतिक अवसरवादिता और मीडिया के पक्षपातपूर्ण रवैये की ओर भी सवाल खड़े करता है.

इस मामले से जुड़ी सच्चाइयां जानना कोई मुश्किल बात नहीं है. ये गिरफ्तारियां पुणे पुलिस की ओर से, मुंबई, ठाणे, रांची, दिल्ली, हैदराबाद और फरीदाबाद में एक साथ की गईं. जिन लोगों को घर में ही नज़रबंद रखा गया है, उनमें वर्नन गोन्जाल्विस, अरुण फरेरा, गौतम नवलखा, सुधा भारद्वाज और वरवरा राव के नाम शामिल हैं. पुलिस रांची के पाखंडी फादर स्टेन स्वामी और गोवा के आनंद तेल्तुम्बडे के दरवाज़े भी पहुंची थी, लेकिन उन्हें गिरफ्तार नहीं किया. अब फिलहाल देश भर का फोकस सुप्रीम कोर्ट की तरफ है.

अधिकारों के लिए लड़ने वाले इन लोगों, लेखकों और वकीलों पर आरोप है कि इनके संबंध सीपीआई (माओवादी) से है, जिसे 2009 में प्रतिबंधित कर दिया गया था. उस समय की यूपीए सरकार ने इसे ‘आतंकी संगठन’ करार दिया था और इस पर धारा 41 के तहत ‘गैरकानूनी गतिविधि’ (UAPA) ठोंक दी था. संयोग से जिन पांच लोगों को गिरफ्तार किया गया, उन पर भी UAPA के कड़े कानून की ही धाराओं के तहत मामला दर्ज किया गया है. इसके अलावा पुलिस ने आईपीसी की धाराएं 153A, 505(1) (b), 117, 120 (b) और 34 भी लगाई हैं.

बुद्धिजीवियों और मीडिया के एक वर्ग ने आपातकाल का ट्रेलर बताया

पुलिस के छापों, गिरफ्तारियों, आरोपों और कोर्ट में हुए तर्क-वितर्क ने लोगों का नज़रिया इस घटना के खिलाफ वैसा ही बना दिया, जैसी कि उम्मीद की गई थी. पुलिस का कहना है कि इस साल जनवरी में, इन पांचों ने भीमा-कोरेगांव में दंगा कराने में भूमिका निभाई थी और उसका दावा है कि इन सब के संबंध प्रतिबंधित आतंकी संगठन सीपीआई (माओवादी) से है. अधिकारों की रक्षा के लिए लड़ने वालों, वामपंथी बुद्धिजीवियों और पूरे विपक्ष ने इसे तानाशाही शासन द्वारा ‘विरोध को दबाने वाला कदम’ करार दिया है.

पुलिस का दावा है कि ये गिरफ्तारियां, जनवरी में हुए भीमा-कोरेगांव दंगों की पिछले 7 महीनों की जांच का नतीजा हैं. पुलिस का दावा ये भी है कि उन्होंने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की हत्या की साज़िश का भी खुलासा किया है. हां, यह बात ध्यान देने वाली है कि पुलिस को इन आरोपों से जुड़े सारे प्रमाण अदालत में दिखाने होंगे. अगर उनके सबूत कमज़ोर हुए, तो मामला निरस्त कर दिया जाएगा.

फिलहाल, जब सुप्रीम कोर्ट इस मामले को मेरिट पर कस रहा है, ये गिरफ्तारियां वैचारिक निष्ठा और मोदी के खिलाफ तर्कहीन घृणा के बीच फंसकर रह गईं हैं. बुद्धिजीवियों और मीडिया के एक वर्ग का कहना है कि ये सब दूसरे आपातकाल का ट्रेलर है और मोदी सरकार के फासीवाद का खुला प्रदर्शन भी.

अरुंधति रॉय ने इसे इसे आपातकाल से भी ज्यादा गंभीर और खतरनाक माना है. अंग्रेज़ी अखबार ‘द हिंदू’ को दिए अपने बयान में उन्होंने कहा- 'हाल की घटनाएं जिस तरह से करवट ले रही हैं, उनके पीछे लोकतंत्र को कहीं पीछे धकेलकर देश को हिंदू राष्ट्र बनाने की कोशिश हो रही है.' अरुंधति को सरकार में फैली खलबली का अहसास है. 'सरकार को डर सता रहा है कि जनादेश धीरे-धीरे उसके हाथ से सरकता जा रहा है.' इतिहासकार रामचंद्र गुहा का मानना है कि जो कुछ भी हो रहा है, बहुत डरावना है.

वकील प्रशांत भूषण का कहना है, 'फासीवादी नुकीले दांत अब जगज़ाहिर हो गए हैं और ये आपातकाल का साफ-साफ ऐलान है. सही मुद्दों पर सरकार को घेरने वालों के खिलाफ कार्रवाई की जा रही है. सरकार किसी भी तरह के विरोध के खिलाफ है.' सोशल मीडिया पर दूसरे विश्व युद्ध के पहले जर्मनी के हालात से भारत की तुलना भी की जा रही है.

अभी निष्कर्ष पर पहुंचना मुमकिन नहीं

मुमकिन है बुद्धिजीवी ही सही हों. लेकिन फिलहाल पुलिस संदिग्धों की धर-पकड़ में लगी है और इस वक्त किसी निष्कर्ष पहुंचना मुमकिन नहीं है. जो लोग मंगलवार को पकड़े गए हैं, उन्हें इससे पहले भी पूछताछ के लिए रोका गया है या फिर उनके एक जगह से दूसरी जगह जाने पर प्रतिबंध लगाया जा चुका है. नवलखा को 2011 में श्रीनगर एयरपोर्ट पर रोक लिया गया था और शहर में घुसने नहीं दिया गया था. प्रशासन ने उन पर धारा 144 लगा दी और श्रीनगर में घुसने नहीं दिया. नवलखा पहले भी कश्मीर पर लिखे अपने लेखों की वजह से अलगाववादियों के समर्थक माना जाते रहे हैं.

तेलुगु कवि और माओवादी विचारक वरवरा राव को 2005 में गिरफ्तार किया गया था. बाद में वे बेशक बरी हो गए. उससे पहले वरवरा राव को सरकार के खिलाफ साज़िश रचने और युद्ध जैसी स्थिति लाने के आरोप में, 80 के दशक में दो साल की कैद भी हुई थी. वर्नन गोंजाल्विस को मुंबई पुलिस के आतंक निरोधी दस्ते ने 2007 में पकड़ा था. सात साल बाद उन्हें नागपुर की सेशन अदालत ने UAPA के तहत दोषी माना.

इंडियन एक्सप्रेस की एक रिपोर्ट के मुताबिक गोंसाल्विस और श्रीधर श्रीनिवासन 2007 में एक आतंकी हमले की योजना बना रहे थे, जब एटीएस ने उन्हें उनकी चॉल में पकड़ा और 9 डिटोनेटर्स और जिलेटिन की 20 छड़ें बरामद कीं. इसके अलावा एक वॉकी-टॉकी सेट, एक कम्प्यूटर और कुछ नक्सल साहित्य भी बरामद किया गया. अरुण फरेरा को भी 2007 में पुलिस ने नागपुर में एक नक्सल नेता अरुण सत्य रेड्डी के साथ पकड़ा था. UAPA के तहत 8 मामले उनके खिलाफ तब दर्ज किए गए थे. बाद में उन्हें ज़मानत मिल गई. हालांकि इन पिछली घटनाओं को आज की घटना से जोड़ा नहीं जा सकता, लेकिन एक नज़रिया तो बनता ही है.

जरूरत से ज्यादा कड़ी प्रतिक्रिया का क्या मतलब है?

उधर वामपंथी बुद्धिजीवियों की ज़रूरत से ज़्यादा कड़ी प्रतिक्रिया से ऐसा लगता है कि वे किसी भी तरह बीजेपी के सामने राजनैतिक चुनौती खड़ी करना चाहते हैं, बेशक वह राष्ट्रीय सुरक्षा की कीमत पर ही क्यों न हो. दूसरे शब्दों में कहें तो, मोदी सरकार के खिलाफ राजनैतिक विरोध कर माओवादी आतंक को जायज़ ठहराने की कोशिश की जा रही है, जो सही नहीं है.

सिर्फ वैचारिक सिद्धांतों के आसरे सरकार से लड़ा नहीं जा सकता. लड़ने के लिए फंड और दूसरी तरह की मदद ज़रूरी होती है. सरकार के खिलाफ हथियार उठाने वाले दोषी हैं तो लोगों की देखरेख की ज़िम्मेदारी संभालने वाले भी कम गुनहगार नहीं हैं. मुद्दा सिर्फ राजनैतिक दलों के बीच कहा-सुनी का ही नहीं है, उससे कहीं आगे का है. इसीलिए मौजूदा विवाद में कांग्रेस के रुख से मौकापरस्ती और पाखंड की बू आती है. गिरफ्तारियों के बाद राहुल गांधी का बौद्धिक तौर पर बेईमानी भरा ट्वीट देखिए. खासकर तब, जब उनकी यूपीए सरकार ने भी माओवादी समर्थकों को गिरफ्तार किया था.

गिरफ्तारियों पर कांग्रेस नेता सलमान खुर्शीद का दावा है कि पूरे देश में विरोध पर रोक लगाने जैसा वातावरण तैयार हो रहा है. ये दिखाता है कि कांग्रेस के नेता और खासतौर पर पार्टी के अध्यक्ष राहुल गांधी ‘सेलेक्टिव एमनीसिया’ से पीड़ित हैं. उन्हें पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के वो बयान याद दिलाने होंगे, जिसमें उन्होंने माओवादी आतंक के खतरों से देश को आगाह किया था. 2010 में जब यूपीए-2 की सरकार को एक साल पूरे हुए, तो तब के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कहा, 'मैं पिछले तीन साल से कह रहा हूं कि नक्सलवाद सबसे बड़ा भीतरी खतरा है, जो देश झेल रहा है.'

राष्ट्रीय सुरक्षा के मुद्दे पर कांग्रेस का बदला हुआ स्टैंड

इस मुद्दे पर, जो बात कांग्रेस अध्यक्ष के रुख को धूर्तता के घेर में लाती है, वो है राष्ट्रीय सुरक्षा पर उनका बदला हुआ स्टैंड. 2010 में नागरिक अधिकारों के लिए लड़ने वाले बिनायक सेन को, माओवादियों की मदद करने के आरोप में अदालत ने देशद्रोह का दोषी पाया था. सेन को 14 मई 2007 को बिलासपुर से गिरफ्तार किया गया था. सितंबर, 2009 में कोबाड गांधी को दिल्ली से गिरफ्तार किया गया था. उस वक्त कोबाड की गिरफ्तारी को बहुत बड़ी सफलता बताया गया था और कहा गया था कि माओवादियों के आंदोलन को इससे बहुत बड़ा झटका लगेगा.

जैसा कि बताया गया है, फरेरा को भी 2007 में माओवादियों के साथ रिश्ते के आरोप में गिरफ्तार किया जा चुका है. बाद में बेशक वे चंद्रपुर के सेशन कोर्ट से छूट गए और 2011 में छूट गए. हालांकि उन्हें जेल से बाहर आते ही फिर गिरफ्तार कर लिया गया. टाइम्स ऑफ इंडिया की एक रिपोर्ट के मुताबिक बाद में उन्हें ज़मानत पर रिहा कर दिया गया. कांग्रेस के इस पाखंड के चीथड़े सोशल मीडिया पर खूब उड़े. फिलहाल तो ऐसा नहीं लगता कि कांग्रेस ये समझेगी कि भारतीय राजनीति में घोर वामपंथियों के साथ खड़े होकर वो बड़ी गलती कर रही है. माओवाद का खतरा बहुत बड़ा है और उनके उग्र हिंसक आंदोलनों से अब तक हज़ारों जानें जा चुकी हैं.

जैसा कि 2006 में ‘द इकॉनमिस्ट’ ने लिखा था, 'माओवाद का खतरा एक चुपचाप पल रहे खतरे की मानिंद है, जो शहर में रहने वालों को दिखता नहीं. बावजूद इसके, भारत के 602 ज़िलों में से 170 ज़िले इसके शिकार हैं. उत्तर में नेपाल सीमा से लेकर दक्षिण में कर्नाटक तक आतंक का ये ‘लाल गलियारा’ फैला हुआ है. नक्सल प्रभावित कुछ इलाके तो बहुत गरीब हैं और कुछ तो ऐसे हैं जो जंगली इलाके हैं और वहां भोले-भाले आदिवासी रहते हैं. कुछ राज्यों में तो नक्सली इतने असरदार हैं कि इन्होंने राज्य की कानून-व्यवस्था को हाशिए पर कर रखा है और कहीं-कहीं तो ‘राज्य’ की जगह खुद ले रखी है. ऐसी चुनौतियों से देश लड़ने को तैयार भी है.'

पुलिस के मुताबिक साजिश के पुख्ता सबूत मिले हैं

पुलिस का कहना है कि भीमा-कोरेगांव दंगे से ठीक एक दिन पहले, 31 दिसंबर 2007 को पुणे में हुई यलगार परिषद में जो भाषण हुए थे, वही अगले दिन की हिंसा की वजह साबित हुए. एक और बड़ा डर है, और वह ये कि माओवादी उग्रवाद कहीं दलित आंदोलन को हाइजैक न कर लें क्योंकि माओवादियों को वहां एक ऐसा मौका दिख रहा है, जिसे केंद्र में बैठी कथित दक्षिणपंथी सरकार के खिलाफ भड़काया जा सकता है.

रिपोर्ट्स के मुताबिक, मंगलवार को हुई गिरफ्तारियां, जून में गिरफ्तार किए गए पांच माओवादियों से मिले सुरागों और जनवरी से चल रही जांच का नतीजा हैं. सुधीर धवले, रोना विल्सन, शोमा सेन, महेश राउत और सुरेंद्र गाडलिंग फिलहाल पुणे के यर्वदा जेल में हैं.

मुंबई मिरर ने जांच कर रही टीम के एक अफसर का बयान कुछ इस तरह छापा था, 'हालांकि सारे ‘तथ्य’ फिलहाल हम नहीं बता सकते, लेकिन जून में पांचों माओवादियों की गिरफ्तारी के बाद हमें पता चला कि इससे पहले गिरफ्तार किए गए लोगों से भी उन पांचों के रिश्ते हैं. मंगलवार को पकड़े गए लोगों से हमें एक साज़िश के पुख्ता सबूत मिले हैं.'

आशंका है कि जिन ‘तथ्यों’ की बात की गई है, वे शायद ऐसे भी हो सकते हैं, जो प्रधानमंत्री मोदी की हत्या की साज़िश की ओर इशारा करते हों. माना जा रहा है कि मोदी की हत्या, ‘राजीव गांधी हत्याकांड’ की तरह किए जाने की साज़िश हो रही थी. पुणे सेशन कोर्ट में पुलिस ने दावा किया है कि जून में जो पांच लोग धरे गए थे, उनमें से एक के घर से तलाशी में इसी आशय की एक चिट्ठी मिली थी. आखिरी बात, इस मुद्दे पर मीडिया के पक्षपाती रुख की. जो वामपंथी बुद्धिजीवी गिरफ्तार किए गए हैं, बावजूद इसके कि उनके साथ लोगों का नैतिक, सामाजिक, कानूनी और यहां तक कि राजनैतिक समर्थन भी है, सरकार के ऊपर असीमित हमले हुए हैं. वकील उनके लिए आधी रात को भी अदालत में खड़े होने को तैयार हैं. उनकी गिरफ्तारी के कुछ ही घंटों के भीतर उनकी मदद के लिए देश के सबसे बड़े वकीलों में से कुछ ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाज़ा खटखटा दिया था.

इसके बावजूद मीडिया ने उन पांचों को ऐसे ‘दयनीय विरोधियों' की तरह दिखाया, जिन्हें शायद उनकी विचारधारा की वजह से प्रताड़ित किया जा रहा है. ‘कवि,’ ‘लेखक’, ‘विचारक’ जैसे शब्दों का इस्तेमाल कर गुस्सा भड़काने की कोशिश की गई और एक हिंसक विचारधारा को बुद्धिजीवी जामा पहनाने का प्रयास भी हुआ. लेकिन यही रुख तब और कुछ हो जाता है, जब ‘गेरुए आतंक’ का मामला सामने आता है. सनातन संस्था जैसी संस्थाओं के किसी एक सदस्य की गिरफ्तारी के एक घंटे के भीतर ही मीडिया, जज, जूरी और जल्लाद की भी भूमिका निभाने लगता है और आरोपी को दोषी भी साबित कर देता है. यही नहीं, दोषी साबित करने का सिलसिला ऊपर तक चलता है और मोदी के दरवाज़े ही जाकर रुकता है. ये बात साबित करती है मुख्यधारा का मीडिया कैसे राजनैतिक विचारधाराओं से प्रभावित है.

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