मुंबई: हाल ही में पांच मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को जिस कानून के तहत गिरफ्तार किया गया है, उसके तहत सजा मिलने का औसत बहुत कम है. इस कानून का नाम है अनलॉफुल एक्टिविटीज प्रिवेंशन एक्ट 1967. नेशनल क्राइम डेटा के सबसे ताजा आंकड़े बताते हैं कि 2016 में इस कानून के तहत दर्ज जिन मुकदमों का ट्रायल पूरा हुआ, उनमें से दो-तिहाई केस में आरोपी बरी हो गए.
2016 में यूएपीए एक्ट के तहत चले 33 में से 22 मामलों (यानी 67 प्रतिशत में) या तो आरोपी बरी हो गए या छोड़ दिए गए. जबकि ऐसे ही दूसरे स्पेशल और स्थानीय कानूनों के तहत आरोपियों के बरी होने का औसत 18 फीसदी रहा है. स्पेशल एंड लोकल लॉ (एसएलएल) वैसे कानून हैं, जो पूरे देश में लागू होते हैं. यूएपीए एक्ट भी इसी दर्जे में आने वाला कानून हैं. यह आंकड़े नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के हैं.
2015 में यूएपीए एक्ट के तहत कुल 76 मुकदमों की सुनवाई पूरी हुई. इनमें से 65 मामलों में अदालत ने या तो आरोपियों को बाइज्जत बरी कर दिया या सबूतों के अभाव में छोड़ दिया. नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़ों का विश्लेषण करने पर हमें पता चला कि 2016 और उससे पहले के 3 साल में यूएपीए एक्ट के तहत जिन मुकदमों की सुनवाई पूरी हुई, उनमें से 75 प्रतिशत मामलों में मुल्जिम बरी हो गए.
1 जनवरी, 2018 को बड़ी तादाद में दलित समुदाय के लोग भीमा-कोरेगांव में जमा हुए थे. वो 200 साल पुरानी ऐतिहासिक घटना की सालगिरह मनाने के लिए जमा हुए थे. इस दौरान, समारोह का विरोध करने वालों ने दलितों पर हमला कर दिया. इसके बाद शहर में बड़े पैमाने पर हिंसा हुई. हिंसा महाराष्ट्र के दूसरे इलाकों में भी फैल गई.
पुणे पुलिस ने 5 मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को किया गिरफ्तार
28 अगस्त, 2018 को 5 मानवाधिकार कार्यकर्ताओं- सुधा भारद्वाज, गौतम नवलखा, वरवरा राव, अरुण फरेरा और वर्नोन गोंसाल्वेस को देश के अलग-अलग हिस्सों से गिरफ्तार किया गया. पुलिस का आरोप है कि उन्होंने ही पुणे के भीमा-कोरेगांव में हिंसा भड़काई थी.
हिंदुस्तान टाइम्स ने 1 सितंबर, 2018 को खबर दी कि पुणे पुलिस ने 1 सितंबर 2018 को इस मामले के आरोपियों सुधीर धवाले, रोना विल्सन, सुरेंद्र गाडलिंग, शोमा सेन और महेश राउत के खिलाफ चार्जशीट दाखिल करने के लिए अदालत से और वक्त मांगा. इन सभी को इसी साल 6 जून को यूएपीए एक्ट के तहत गिरफ्तार किया गया था. पुलिस का आरोप है कि इन सभी के माओवादियों से संबंध हैं, जो भीमा-कोरेगांव में हिंसा के लिए जिम्मेदार थे.
इन गिरफ्तार लोगों की 90 दिन की न्यायिक हिरासत 3 सितंबर, 2018 को खत्म होने वाली थी. यूएपीए एक्ट के तहत अगर जांच पूरी नहीं हुई है, तो, इन मुल्जिमों की न्यायिक हिरासत 180 दिन तक बढ़ाई जा सकती है. जबकि दूसरे मामलों में अगर 90 दिन तक चार्जशीट दाखिल नहीं होती है, तो आरोपियों को जमानत दी जा सकती है.
आखिर यूएपीए एक्ट को बेहद कठोर कानून क्यों कहा जाता है?
यूएपीए एक्ट को अक्सर जुल्मी कानून कहा जाता है. बॉम्बे हाईकोर्ट की वकील सूसन अब्राहम कहती हैं कि, 'यूएपीए एक्ट की सबसे खतरनाक बात यह है कि इस कानून के खात्मे की कोई मियाद नहीं है. जबकि इससे भी क्रूर कानून कहे जाने वाले टाडा और पोटा कानूनों में भी सनसेट क्लॉज था यानी एक वक्त के बाद उनके लागू होने की मियाद खत्म हो जाती थी. लेकिन यूएपीए एक्ट में ऐसा नहीं है.' अब्राहम, भीमा-कोरेगांव केस के एक आरोपी वर्नोन गोंसाल्वेस की पत्नी हैं.
'सनसेट क्लॉज' किसी भी कानून में वो प्रावधान होता है, जिसके तहत कोई भी कानून एक तय मियाद के बाद लागू होना खत्म हो जाता है. अब्राहम कहती हैं कि यूएपीए एक्ट स्थायी कानून है. जबकि टाडा और पोटा में सनसेट क्लॉज था. इसीलिए हर 2 साल बाद इन कानूनों को फिर से संसद की मंजूरी के लिए भेजा जाता था.
यूएपीए एक्ट के साथ एक और बात है कि इसमें अग्रिम जमानत का प्रावधान नहीं है. सूसन अब्राहम कहती हैं कि, 'यूएपीए एक्ट के तहत जमानत मिलना मुश्किल है, क्योंकि आपको साबित करना होता है कि प्राथमिक तौर पर आप के खिलाफ कोई मामला नहीं बनता.' इस कानून के तहत जांच एजेंसी के पास चार्जशीट दाखिल करने के लिए 6 महीने का वक्त होता है.
बॉम्बे हाईकोर्ट के सीनियर वकील मिहिर देसाई कहते हैं कि, 'यूएपीए एक्ट लोगों को सजा दिलाने के लिए नहीं है. इसका इस्तेमाल लोगों को हिरासत में लेने के लिए किया जाता है. हो सकता है कि आगे चल कर आरोपी बरी हो जाएं. लेकिन लंबी कानूनी प्रक्रिया के चलते वक्त बर्बाद होता है और लोगों की निजी जिंदगी तबाह हो जाती है. आम मुकदमों में दोष साबित करना पुलिस की जिम्मेदारी होती है. मगर, यूएपीए एक्ट के तहत आरोपियों को खुद को बेकसूर साबित करना पड़ता है.'
पिछले 3 साल में यूएपीए एक्ट के तहत 2700 से ज्यादा केस दर्ज हुए हैं. जबकि 2016 तक इस कानून के तहत दर्ज 3548 मामलों की जांच अधूरी है.
एनसीआरबी के आंकड़ों के मुताबिक, 2016 में यूएपीए एक्ट के तहत 922 केस दर्ज किए गए थे. यह 2014 में 976 के मुकाबले 5 फीसद कम है, जबकि 2015 के 897 मामलों से 3 प्रतिशत ज्यादा. 2016 तक पिछले 3 साल में 2700 से ज्यादा मुकदमे यूएपीए एक्ट के तहत देश भर में दर्ज किए गए हैं.
2016 में इनमें से सबसे ज्यादा 327 यानी 35 फीसदी केस मणिपुर में दर्ज किए गए थे. जबकि 2014 में मणिपुर मे यूएपीए एक्ट के तहत 630 केस दर्ज किए गए थे. यूएपीए एक्ट के तहत दर्ज 216 केस के साथ असम दूसरे नंबर पर और 161 मामलों के साथ 2016 में जम्मू-कश्मीर तीसरे नंबर पर था. यह सभी राज्य उग्रवाद या आतंकवाद से पीड़ित हैं. 2016 में जिन 3962 मामलों की जांच होनी बाकी थी, उनमें से 76 फीसदी में पुलिस के पास पहले से ही जांच का बड़ा बोझ था. 2016 में यूएपीए एक्ट के तहत दर्ज 3548 मुकदमों की जांच अधूरी थी. यानी ये कुल मामलों का 89.6 फीसदी था. केस की सुनवाई पूरी होने या न होने का प्रतिशत हम हर साल साल जितने केस की जांच पूरी हो चुकी है, उसके आधार पर लगाते हैं.
2016 में यूएपीए एक्ट के तहत 1488 मुकदमों की सुनवाई अदालतों में लटकी हुई थी. इनमें से 232 मामलों का ट्रायल उसी साल शुरू हुआ था. जबकि बाकी के मामले लटके ही रहे. जिन मामलों में मुकदमा शुरू हुआ, उनमें से 33 में सुनवाई पूरी हुई. इनमें से 22 में आरोपी छूट गए. केवल 11 मामलों में सजा हुई.
यूएपीए एक्ट के तहत सजा मिलने का प्रतिशत 2016 में 33 फीसदी था. जबकि दूसरे स्पेशल ऐंड लोकल लॉ में मुल्जिमों को सजा मिलने का प्रतिशत 82 फीसदी था. 2016 में यूएपीए एक्ट के तहत 97.8 फीसदी मामले सुनवाई के लिए लटके थे, जबकि बाकी कानूनों के तहत सुनवाई का इंतजार कर रहे मुकदमों की तादाद 82 प्रतिशत थी.
यूएपीए एक्ट के तहत 'गैरकानूनी गतिविधियां' हैं क्या?
इस कानून के तहत पूरे अधिकार केंद्र सरकार को दिए गए हैं. इस कानून की धारा 3 की उप-धारा 1 के मुताबिक अगर केंद्र सरकार को यह लगता है कि कोई गतिविधि गैरकानूनी है, तो वो सरकारी गजट के तहत उसे गैरकानूनी घोषित कर सकती है.
यूएपीए एक्ट के तहत 'गैरकानूनी गतिविधि' वो है जो, 'भारत की संप्रभुता और अखंडता पर सवाल उठाता है, उसमें विघ्न डालता है या विघ्न डालने का इरादा रखता है.' यह कानून भारत के किसी भी हिस्से के अलग होने के दावों के खिलाफ है. यह कानून भारत से नाखुशी रखने वालों के भी खिलाफ है. अब खत्म हो चुके 1986 के टेररिस्ट ऐंड डिसरप्टिव एक्ट यानी टाडा और 2002 के पोटा कानून में भी गैरकानूनी गतिविधियों की यह परिभाषा शामिल थी.
टाडा कानून को 1995 में खत्म हो जाने दिया गया. वहीं पोटा कानून में 2004 में बदलाव किए गए. सूसन अब्राहम कहती हैं कि, 'टाडा और पोटा में बदलाव इसलिए किए गए क्योंकि जनता के बीच यह राय बन रही थी कि दोनों कानूनों का दुरुपयोग हो रहा है. लेकिन यूएपीए एक्ट के बारे में ऐसा नहीं किया जा सकता.'
यह कानून 1967 में बना था. 2004, 2008 और 2012 में इस में खत्म हो चुके कानूनों के प्रावधान भी जोड़े गए. 2004 तक यूएपीए एक्ट के तहत गैरकानूनी गतिविधि वो थी जो भारत की अखंडता में विघ्न डालती थी, जो देश के किसी हिस्से को अलग कर सकती थी. लेकिन 2004 में इस कानून में संशोधन कर के आतंकी गतिविधि को भी गैरकानूनी गतिविधि करार दे दिया गया.
2012 में यूएपीए एक्ट में फिर से संशोधन कर के आतंकी गतिविधि की परिभाषा का दायरा बढ़ाया गया. अब देश की आर्थिक सुरक्षा यानी खाद्य सुरक्षा, संपत्ति की सुरक्षा और वित्तीय स्थिरता के खिलाफ काम करना भी गैरकानूनी गतिविधि है. इसके अलावा नकली नोट चलाना और आतंकी गतिविधियों में शामिल संगठन के लिए पैसे उगाहना भी यूएपीए एक्ट के तहत गैरकानूनी ठहरा दिया गया.
बाद में 'आतंकी गतिविधियों से हुए फायदों' को भी कानून के दायरे में कर दिया गया. इसके तहत कोई संपत्ति अगर भारत विरोधी गतिविधियों में इस्तेमाल हुई हो या होने वाली हो, तो भी यूएपीए एक्ट के तहत कार्रवाई की जा सकती है. इस कानून के तहत अदालत या जांच एजेंसी को यह हक है कि वो आरोपी को सजा होने से पहले ही उसकी संपत्ति जब्त कर सकती है.
2016 में यूएपीए एक्ट के तहत दर्ज केसों को 'सरकार के खिलाफ अपराध' करार दिया गया. जबकि भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) के तहत वो पहले से ही अपराध की श्रेणी में आते थे.
मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के खिलाफ मामलों पर बहस क्यों?
मई 2014 में दिल्ली यूनीवर्सिटी (डीयू) के प्रोफेसर जीएन साईंबाबा को यूएपीए एक्ट के तहत गिरफ्तार किया गया था. उन पर प्रतिबंधित संगठन भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी माओवादी से महाराष्ट्र के गढ़चिरौली में संपर्क साधने के जुर्म में गिरफ्तार किया गया था. 2017 में प्रोफेसर साईंबाबा को उम्रकैद की सजा हुई. बहुत से लोगों ने साईंबाबा को सजा का विरोध किया क्योंकि वो 90 फीसदी विकलांग हैं.
माओवादी नेता कोबद गांधी के खिलाफ 2009 में यूएपीए एक्ट के तहत केस दर्ज किया गया था. कोबद गांधी को यूएपीए एक्ट की धाराओं 20 और 38 के तहत दर्ज आरोपों (प्रतिबंधित संगठन का सदस्य होने और इसके लिए काम करने) से बरी कर दिया गया था. हालांकि कोबद गांधी को जून 2016 में आईपीसी के तहत धोखाधड़ी, फर्जीवाड़े और नकली पहचान रखने के जुर्म में सजा हुई थी. 2017 में कोबद गांधी को जमानत मिलने के कुछ दिन के बाद ही झारखंड पुलिस ने दोबारा गिरफ्तार कर लिया था.
पिछले दो वर्षों में पर्यावरण कार्यकर्ता थिरुमुरुगन गांधी जैसे लोगों को भी यूएपीए एक्ट के तहत गिरफ्तार किया गया है. थिरुमुरुगन गांधी को अगस्त 2018 में गिरफ्तार किया गया था. वो चेन्नई और सलेम के बीच बन रहे 8 लेन के कॉरिडोर के प्रोजेक्ट के खिलाफ मुहिम में सक्रिय रूप से भाग ले रहे थे. वो तमिलनाडु के थूथुकुड़ी में स्थित स्टरलाइट कॉपर प्लांट के खिलाफ प्रदर्शन करने वालों पर गोली चलाने के खिलाफ मुहिम में भी शामिल थे.
सूसन अब्राहम कहती हैं कि साईबाबा के मामले में तो प्रोफेसर पर लगे किसी भी आरोप को सबूतों से साबित नहीं किया जा सका. सूसन कहती हैं कि, 'प्रोफेसर साईंबाबा की एक ही गलती थी कि वो ऑपरेशन ग्रीन हंट के खिलाफ देशव्यापी और अंतरराष्ट्रीय मुहिम का हिस्सा थे. उनके खिलाफ केस दिल्ली में दर्ज हुआ था. इनमें से किसी भी मामले का ताल्लुक गढ़चिरौली से नहीं था. कुछ ऐसा ही जेएनयू के छात्र हेम मिश्रा के साथ हुआ. उसे गिरफ्तार तो छत्तीसगढ़ से किया गया, मगर उस पर जो आरोप थे, वो गढ़चिरौली से जुड़े थे. सुप्रीम कोर्ट कहता है कि किसी घटना से ताल्लुक का मतलब यह नहीं कि कोई मुल्जिम बन जाता है. फिर भी इन लोगों को सजा हुई.'
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