अगर आप लखनवी या अवधी खाने के शौकीन हैं और ये सोच रहे हैं कि अगले हफ्ते की अपनी लखनवी यात्रा के दौरान कलौरी कबाब, गलावटी कबाब, सींक कबाब, कुल्छे नहारी, लखनवी बिरयानी, बंद गोश और लगन चिकन के नोश फरमाना चाहते हों तो आपके लिए ऐसा होना मुश्किल है.ऐसा इसलिए क्योंकि यूपी सरकार के ताजा आदेश के बाद राज्य में काम कर रहे अवैध बूचड़खानों को बंद कर दिया गया है. ऐसा करने के बाद इसका सीधा असर मीट की दुकानों पर पड़ रहा है, जहां हर तरफ सन्नाटा पसरा है.
हमने इस बारे में बात की लखनऊ स्थित पत्रकार और खाने के मामले के जानकार योगेश मित्र से. योगेश के मुताबिक- सरकार के इस फैसले का असर सकारात्मक असर ये है कि इससे चौपाया जानवरों की संख्या बढ़ेगी जिससे बच्चों के पोषण के लिए मिलने वाले दूध की मात्रा बढ़ जाएगी.
लेकिन, इसका एक नकारात्मक पक्ष भी है. लखनऊ के खाने में नॉनवेज का बहुत बड़ा रोल है. यहां 52 तरह की रोटियां बनती हैं. यहां का खाना इतना मशहूर है कि पाकिस्तान के पूर्व राष्ट्रपति परवेज़ मुशर्रफ भी जब भारत आते हैं तो वे लखनऊ के नॉनवेज खानों की मांग करते हैं.
सरकार के इस कदम से ऐसा नहीं है कि लोगों का खान-पान पूरी तरह से बदल जाएगा. लोगों के ईटिंग हैबिट में कोई यू-टर्न नहीं आने वाला है. ज्यादा से ज्यादा ये होगा कि जितने पैसे में वो पहले 500 ग्राम मीट लेते थे उतने में ही उन्हें 100 ग्राम मीट अब मिलेगा.
क्योंकि ये रोक सिर्फ अवैध बूचड़खानों पर लगेगी, मीट महंगा होगा, उसकी थाली में मात्रा कम जाएगी लेकिन कोई बड़ा उथल-पुथल नहीं होगा.
योगेश कहते हैं, ‘जैसे नदी के किनारे सी-फूड मिलता है और लोग वो खाने लगते हैं, वैसे ही कल अगर सी-फूड नहीं मिलेगा तो वे कुछ और खाने लग जाएंगे. यूपी में वेज-नॉनवेज खाने की जो संस्कृति है वो शौक से पैदा हुई है. जो जरूरत के साथ बदल जाती है. इस फैसले का असर मीट की खपत पर पड़ेगा और कहीं नहीं. क्योंकि कल जो टुंडे कबाब की दुकान बंद थी वो आज खुल गई है.’
मीट सिर्फ मुसलमान का खाना नहीं है
ऊर्दू की जानी-मानी साहित्यकार और शिक्षाविद रक्षंदा जलील कहती हैं कि मीट का कंज्यूमर सिर्फ मुसलमान नहीं है, हिंदू, ईसाई, पारसी और सिख सभी मीट खाते हैं. मुसलमान कसाई से सिर्फ मुसलमान लोग ही गोश्त नहीं लेते हैं बल्कि दूसरे धर्मों के लोग भी लेते हैं. हलाल का गोश्त सिर्फ मुसलमान बेचते हैं लेकिन उनसे खरीदने लाले ग्राहक दूसरे समुदायों के भी होते हैं.
अगर स्लॉटर हाउस अगर गैर-कानूनी है तो उन्हें बंद किया जाना चाहिए लेकिन हमें इस सोच से बाहर आना होगा कि इससे सिर्फ मुसलमानों के खाने-पीने पर असर पड़ेगा.
द हिंदू के पत्रकार और फूड क्रिटिक राहुल वर्मा कहते हैं, ‘नॉर्थईस्ट में बीफ प्रोटीन का मुख्य स्रोत है. वो वहां के लोगों का मुख्य भोजन है. इसलिए जब वहां बैन लगाया गया तो सबसे पहले विरोध करने वालों में महिलाओं शामिल थीं.’
राहुल कहते हैं, ‘हमारे देश के 70% लोग नॉनवेज हैं, भैंस का मीट गरीब का प्रोटीन होता है. इसे खाने वाला दलित, मुसलमान और आदिवासी भी होता है. बंगाल, महाराष्ट्र और कश्मीर के ब्राह्मण भी मीट खाते हैं. अगर यूपी के बाद पूरे देश में इसे लागू करने की कोशिश की जाती है तो सबसे ज्यादा असर आदिवासी समुदाय के लोगों को होगी. उनकी पीढ़ियों से चली आ रही खाने की परंपरा खतरे में पड़ जाएगी.’
वेजेटेरियन खाना 300 साल पुराना
राहुल बताते हैं कि, ‘वेजेटेरियन खाने की परंपरा तकरीबन तीन सौ साल पुरानी है और नॉनवेज खाने की 7वीं या 8वीं सदी से है. आलू जैसी सब्जी भी सिर्फ 150 साल पुरानी है. तमिलनाडु में बीफ खाया जाता है, तटीय इलाकों में रहने वाले लोगों, आदिवासियों और ऊंची जाति के लोग भी मीट खाते हैं. अगर इसपर पाबंदी लगी तो खाने की एक पूरी परंपरा ही असर पड़ेगा.’
दशकों से लखनऊ में रहने वालीं सूफिया किदवई कहती हैं, ‘अवैध स्लॉटर हाउस बंद करेंगे तो मीट शॉप्स बंद होंगे. ये हमारे किचन पर असर तो करेगा. अगर ऐसा हुआ तो लोग मिस तो करेंगे.’
सुफिया आगे कहती हैं, ‘लेकिन मुझे याद है कि सालों पहले दिल्ली में एक बार दो हफ्ते तक मीट नहीं मिला था हमें कोई फर्क नहीं पड़ा और बच्चों ने भी सब्जी खाना शुरू कर दिया था, हमने ऑप्शन ढूंढ लिया था.’
हालांकि, सुफिया मानती हैं कि इस फैसले का असर गरीब तबके पर फर्क पड़ेगा जो मटन या चिकन नहीं खरीद पाते हैं और ज्यादातर भैंस का मीट खाते हैं.
लेकिन, अगर ये ‘लॉ ऑफ द लैंड’ बन जाता है तो लोग अंडरहैंड तरीके का इस्तेमाल करेंगे. कुछ भी साफ नहीं है मीट तो मिल ही रहा है. मुझे ये भी लगता है कि, ‘चोरी-छिपे कुछ भी करने या खाने से क्या फायदा और क्या मजा? खाना तो खाना है, उसके लिए जान तो नहीं देंगे.’
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