बाबरी मस्जिद कांड में सुप्रीम कोर्ट की डिवीजन बेंच ने लखनऊ की विशेष अदालत को इस मामले का दो साल में ट्रायल पूरा करके फैसला सुनाने का आदेश दिया है. सुप्रीम कोर्ट ने ये आदेश, इलाहाबाद हाई कोर्ट के फैसले को चुनौती देने वाली सीबीआई की याचिका पर दिया था. इलाहाबाद हाई कोर्ट ने लालकृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी, उमा भारती और दूसरे आरोपियों पर लगे साजिश के आरोप खारिज कर दिए थे.
आदेश सुनाते वक्त सुप्रीम कोर्ट के सामने इलाहाबाद हाई कोर्ट का 8 दिसंबर 2011 का आदेश भी था. इसमें हाई कोर्ट ने रायबरेली के स्पेशल जज को मामले की रोजाना सुनवाई का आदेश दिया था. सुप्रीम कोर्ट ने स्पेशल कोर्ट के काम पर नाराजगी जताते हुए कहा था कि निचली अदालत ने हाई कोर्ट के आदेश का ठीक से पालन नहीं किया. क्योंकि अब तक सौ से भी कम लोगों की गवाही दर्ज हुई है.
अगर कोई आदमी भारत की न्यायिक व्यवस्था को नहीं जानता तो उसे लगेगा कि ट्रायल पूरा करने के लिए दो साल का वक्त पर्याप्त है. जबकि ये मामला बीस से भी ज्यादा साल से अदालत में चल रहा है.
लेकिन अगर हम अदालत में लटके मामलों पर नजर डालें तो हैरान करने वाली तस्वीर सामने आती है.
कुछ आंकड़ों पर गौर फरमाइए-
उत्तर प्रदेश में हर जज के पास 2513 मुकदमे लंबित हैं. राज्य में अदालतों में दस साल या इससे ज्यादा वक्त से लटके मुकदमों की कुल तादाद, 6 लाख 31 हजार 290 है. और ये हाल तब है जब यूपी के बारे में कहा जाता है कि यहां मुकदमों का निपटारा दूसरे राज्यों के मुकाबले जल्दी हो जाता है.
मामले में सुनवाई टालने से बचने के लिए सुप्रीम कोर्ट ने सीबीआई से कहा कि गवाहों की गैरमौजूदगी की वजह से मुकदमे की सुनवाई नहीं टलनी चाहिए. सुप्रीम कोर्ट ने रायबरेली और लखनऊ में अलग-अलग चल रहे मुकदमों की भी इकट्ठे सुनवाई का आदेश दिया.
सुप्रीम कोर्ट के आदेश का ये मतलब नहीं कि आरोपी, गवाहों से सवाल-जवाब नहीं कर पाएंगे. आरोपियों के पास गवाहों को दोबारा कठघरे में बुलाने का अधिकार भी है. अगर गवाहों को फिर से बुलाकर उनसे सवाल जवाब हुआ. अगर नए आरोपियों की तरफ से दिग्गज वकीलों ने गवाहों को कठघरे में खड़ा किया, तो जाहिर है मुकदमे के निपटारे में और वक्त लगेगा.
बहुत कठिन है डगर पनघट की
दोबारा गवाही के अलागा ट्रायल कोर्ट को ये भी सुनिश्चित करना होगा कि दूसरे सरकारी गवाहों के बयान भी जल्द दर्ज हों. इसके बाद 48 में से जिंदा बचे आरोपियों से उनके खिलाफ जमा सबूतों को लेकर सवाल जवाब होंगे, ताकि वो अपना बचाव कर सकें. इसके बाद हर आरोपी को ये अधिकार होगा कि वो अपनी तरफ से गवाह पेश कर सकें. इसके बाद आखिरी बहस होगी, जिसमें सीबीआई के वकील और सारे आरोपियों के वकील अपना-अपना पक्ष रखेंगे.
अगर अदालत आरोपियों को दोषी ठहरा भी देती है, तो, हर आरोपी अपनी सजा कम करने के लिए बहस कर सकता है. अगर मुकदमे की सुनवाई सुप्रीम कोर्ट के तय किए वक्त में पूरा करने के लिए इसमें से कोई प्रक्रिया नहीं पूरी की जाती, तो वो आरोपियों के साथ नाइंसाफी होगी.
मुकदमे की सुनवाई तय वक्त पर पूरी करने में सीबीआई के वकील का रोल सबसे अहम होगा. स्पेशल जज, मामले को तय वक्त में सुन लें, ये सरकारी वकील की काबिलियत पर निर्भर करेगा. क्योंकि आरोपियों के वकील तो मामले को लटकाने के लिए तरह-तरह के तर्क लेकर आएंगे. इन तर्कों को खारिज करने की जिम्मेदारी सीबीआई के वकील की ही होगी. पहले ही आरोप तय करने के मामले में सुप्रीम कोर्ट के तय किए वक्त के हिसाब से एक हफ्ते की देर हो चुकी है. सुप्रीम कोर्ट ने 22 अप्रैल को आदेश सुनाया था. इस आदेश को निचली अदालत तक पहुंचाने के लिए पांच दिन का वक्त सुप्रीम कोर्ट ने दिया था.
इसमें भी लालकृष्ण आडवाणी के वकील ने देर करने की कोशिश की थी. आडवाणी इस मामले के 12 ने आरोपियों में से हैं. उनके वकील ने अदालत में आडवाणी को आरोप से मुक्त करने की अर्जी दी थी. जबकि सुप्रीम कोर्ट ने साफ आदेश दिया था कि आईपीसी की धारा 120B के तहत इन पर आपराधिक साजिश के आरोप तय होने चाहिए.
सीबीआई पर रहेगी नजर
सीबीआई पर पहले सरकार के तोते की तरह काम करने के आरोप लग चुके हैं. लेकिन सुप्रीम कोर्ट का आडवाणी को मुकदमे का सामना करने का आदेश देना और फिर आरोप तय होने से कम से कम ये संदेश तो नहीं जा रहा. सीबीआई की तरफ से सुप्रीम कोर्ट में पेश हुए सहायक महाधिवक्ता ने अदालत से सभी बीजेपी नेताओं को ट्रायल का सामना करने का आदेश देने की गुजारिश की. सीबीआई के वकील ने सुप्रीम कोर्ट से ये भी कहा कि इलाहाबाद हाई कोर्ट ने इन लोगों पर से आरोप हटाने की निचली अदालत के फैसले को बरकरार रखकर गलत किया. अब देखना होगा कि सीबीआई के वकील यही तीखापन, सुनवाई के दौरान बरकरार रख पाते हैं या नहीं.
हाल ही में यूपी सरकार पर मुख्यमंत्री को मुकदमे की सुनवाई से बचाने का आरोप लगा है. सरकार ने 2007 के गोरखपुर दंगों के दौरान योगी आदित्यनाथ पर भड़काऊ भाषण देने का आरोप लगाया था. लेकिन मौजूदा सरकार ने उन पर मुकदमा चलाने की इजाजत देने से इनकार कर दिया.
लोग पहले ही बाबरी मस्जिद मामले में सरकार के रोल पर सवाल उठा रहे हैं. क्योंकि सरकार ने कारसेवकों के खिलाफ केस की सुनवाई का नोटिफिकेशन नहीं जारी किया था.
सुप्रीम कोर्ट ने कारसेवकों पर केस चलाने की इजाजत राज्य सरकार से लेने में नाकाम रहने पर सीबीआई को फटकार लगाई थी. सीबीआई ने राज्य सरकार के फैसले को चुनौती भी नहीं दी. अब सुप्रीम कोर्ट की तय की हुई मियाद में ट्रायल पूरा करने में राज्य सरकार के रोल पर भी निगाहें रहेंगी. सुप्रीम कोर्ट के सामने ये बात भी आई थी कि सुनवाई के दौरान कई जजों तबादला भी हुआ था.
सीबीआई की विशेष अदालत में 1992 की घटना के गवाहों को पेश करने की जिम्मेदारी स्थानीय पुलिस की होगी, जो राज्य सरकार के अधीन है. ऐसे में मौजूदा बीजेपी सरकार की नीयत पर नजर रहेगी.
बाबरी मस्जिद ढहाने के इस मुकदमे से बीजेपी के मार्गदर्शक मंडल का भविष्य तय होगा. 2019 के चुनाव में इन नेताओं का रोल, मुकदमे की सुनवाई से ही तय होगा. ये मुकदमा भारत के तमाम मुकदमों की सुनवाई के लिए रोल मॉडल भी बन सकता है. उम्मीद है कि ये मुकदमा निराश नहीं करेगा. वरना ये भी देश की अदालतों में लटके पड़े लाखों मामलों की फेहरिस्त में शामिल हो जाएगा. ऐसे कई मुकदमें अभी अदालतों में लटके हैं, जिन्हें तय वक्त पर पूरा करने का आदेश सुप्रीम कोर्ट या हाई कोर्ट ने दिया था.
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