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NRC में राज्य की पूर्व CM का नाम नहीं: यह तथ्य जितना हास्यास्पद, उतना ही चिंताजनक भी

किसी जमाने में राज्य कांग्रेस की सबसे बड़ी और चर्चित नेता रहने वाली, कुछ समय के लिए ही सही पर असम की सीएम रहने वाली सैयदा का नाम ही एनआरसी में नहीं है

Updated On: Aug 04, 2018 06:22 PM IST

Kumari Prerna

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NRC में राज्य की पूर्व CM का नाम नहीं: यह तथ्य जितना हास्यास्पद, उतना ही चिंताजनक भी

देश के हर अखबार, टीवी चैनल और वेबसाइट पर पिछले कई दिनों से एनआरसी का मुद्दा सुर्खियां बटोर रहा है. हर जगह बहस छिड़ी हुई है कि कौन असली नागरिक हैं और कौन घुसपैठीया? 'घुसपैठियों सावधान! जाग उठा है हिंदुस्तान' जैसे पोस्टर वॉट्सऐप ग्रुप से लेकर फेसबुक पर शेयर किए जा रहे हैं. ऐसे में एनआरसी से जुड़े जिस मुद्दे पर हम यहां बात करने वाले हैं वो बेहद ही चौंकाने वाला है.

शनिवार सुबह को यह खबर चली कि असम की पहली महिला मुख्यमंत्री 'सैयदा अनवरा तैमूर' का नाम भी एनआरसी की लिस्ट में शामिल नहीं है. इस लिस्ट के अनुसार वो भी भारत की नागरिक नहीं हैं. सहमति दर्ज करिए कि ये तथ्य चौंकाने वाला था. आपके राज्य का कोई पूर्व मुख्यमंत्री, राज्य छोड़िए आपके देश का ही नागरिक नहीं है. इस पर एक विस्तृत चर्चा करेंगे. इसके पूर्व हाल ही जारी किए गए एनआरसी का बैकग्राउंड जान लीजिए.

असम में एनआरसी का बैकग्राउंड

असम और गैर-कानूनी प्रवासियों का पुराना इतिहास रहा है. 1950 के फरवरी-मार्च के महीने में असम के कई इलाकों में काफी सांप्रदायिक घटनाएं घटी. इस दौरान इन जिलों में भारी संख्या में शरणार्थी भी आए. तत्कालीन जवाहर लाल नेहरू सरकार के 1951 के अनुमान के मुताबिक उस समय तक असम में लगभग 5 लाख शरणार्थी घुस चुके थे. इसी समय बिहार और बंगाल के भी कई लोग रोजगार की तलाश में असम को अपना ठिकाना बनाने लगे. ऐसे में असम के मूल निवासियों में बाहरी लोगों के प्रति विरोध की प्रवृत्ति जगने लगी थी और राज्य में यह एक राजनीतिक मुद्दा बनने लगा था. इसे लेकर थोड़ी बहुत आवाज भी उठती रही लेकिन इस मुद्दे ने खास तूल नहीं पकड़ा.

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फिर साल 1971 के दौरान जब पूर्वी पाकिस्तान यानी आज के बांग्लादेश में पाकिस्तानी सेना ने दमनकारी कार्रवाई शुरू की तो करीब 10 लाख लोगों ने बांग्लादेश सीमा पारकर असम में शरण ली. बांग्लादेश में जब हिंसा की घटनाओं में कमी आई और माहौल थोड़ा शांत हुआ तो भारत में रह रहे कई शरणार्थी वापस अपने देश लौट गए, लेकिन अभी भी ऐसे लाखों लोग थे जो असम में ही रुके रहे. 1971 के बाद भी बाहरी लोगों का राज्य में आना लगा रहा. शरणार्थियों की बढ़ रही तादाद देखकर वहां के मूल निवासियों में डर की भावना पैदा होने लगी और इसी डर से एक शक्तिशाली आंदोलन का जन्म हुआ. इसकी शुरुआत युवाओं और असम के छात्रों ने की थी.

आंदोलन के नेताओं ने दावा किया कि राज्य की जनसंख्या का 31 से 34 प्रतिशत हिस्सा बाहर से आए लोगों का है

नेताओं ने केंद्र सरकार के सामने यह मांग रखी कि 1961 के बाद राज्य में आए बाहरी लोगों को उनके राज्य या उनके देश वापस भेज दिया जाए. इसी बीच राज्य में करीब एक साल (1982-1983) तक चले राष्ट्रपति शासन के बाद 1983 में दोबारा चुनाव का ऐलान किया गया. कांग्रेस ने पूर्ण बहुमत के साथ अपनी सरकार बनाई और राज्य के मुख्यमंत्री बनें हितेश्वर सैकिया.

Assam accord 1985

Assam accord 1985

इसी बीच देश की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की 1984 में हत्या हो गई और प्रधानमंत्री के पद पर बैठे राजीव गांधी. तब राजीव ने राज्य में बढ़ रही हिंसा की घटनाओं, नरसंहार और अस्थिरता की स्थिती को देखते हुए आंदोलनकारियों के साथ समझौता किया. समझौते में 1951 से 1961 के बीच आए सभी लोगों को पूर्ण नागरिकता और वोट देने का अधिकार देने का फैसला किया गया. वहीं जो लोग 1971 के बाद असम में आए थे, उन्हें वापस उनके देश भेजने की बात कही गई.

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1985 में लागू हुए इस समझौते की समीक्षा का काम 1999 में केंद्र की बीजेपी सरकार ने शुरू किया. सरकार ने इसके लिए पर्याप्त फंड भी जारी किए लेकिन ये कवायद ठंडे बस्ते में चली गई. बाद में मनमोहन सरकार के अंतर्गत साल 2005 में यह फैसला लिया गया कि एनआरसी को अपडेट किया जाना चाहिए. यह प्रक्रिया लंबे समय तक चली. इस प्रक्रिया के दौरान असम के कई हिस्सों में विरोध प्रदर्शन भी हुए.

बाद में कई दाव-पेचों के बाद 2015 में सुप्रीम कोर्ट के निर्देश और निगरानी में यह काम शुरू हुआ और बीते 1 जनवरी को इसका पहला ड्राफ्ट जारी किया गया. इस लिस्ट में तक़रीबन 1.9 करोड़ लोगों के नाम शामिल थे, जबकि आवेदन करने वालों की संख्या 3.29 करोड़ थी. फिर इसका दूसरा ड्राफ्ट 30 जुलाई 2018 को जारी किया गया, जिसमें 2.89 करोड़ लोगों के नाम शामिल थे. 40 लाख लोगों के नाम का प्रमाणीकरण अब भी बाक़ी है.

पूरा विवाद अब इसी के इर्द-गिर्द तैर रहा है

विपक्ष से लेकर असम के लाखों लोग भी एनआरसी के इस लिस्ट को गलत करार दे रहे हैं. लोगों का मानना है कि इसमें कई त्रुटियां है. सरकार भी इन त्रुटियों को सुधारने के लिए तैयार है, इसलिए ही शायद उसने इस बात की घोषणा पहले ही कर दी कि इस ड्राफ्ट को फाइनल ड्राफ्ट न समझा जाए. जिन लोगों का नाम लिस्ट में नहीं है, उन्हें अपनी बात रखने का पूरा समय दिया जाएगा, लेकिन सरकार की ये बात जितनी जायज है, उतनी ही जायज लोगों की नाराजगी भी है.

आम नागरिक से लेकर असम की पूर्व मुख्यमंत्री भी हैं हतप्रभ

एनआरसी की लिस्ट को कैसे तैयार किया गया कि आम नागरिक तो अभी तक  लिस्ट में अपना नाम न पाकर हतप्रभ थे ही, अब पूर्व मुख्यमंत्री भी हैं. 'सैयदा अनवरा तैमूर' असम की पहली महिला मुख्यमंत्री हैं. या यूं कहें की देश की पहली मुस्लिम महिला मुख्यमंत्री. उनके बाद अब तक असम को दोबारा कोई महिला मुख्यमंत्री नसीब नहीं हुई. वैसे विस्तार में जाएं तो असम ने कभी भी किसी महिला मुख्यमंत्री का एक पूरा कार्यकाल नहीं देखा है.

SYEDA ANWARA TAIMUR

SYEDA ANWARA TAIMUR

अनवरा (बतौर मुख्यमंत्री) का कार्यकाल भी मुश्किल से 7 महीनों (6 दिसंबर 1980 से 30 जून 1981) तक चला था. फिर राज्य के मुख्यमंत्री के पद पर दोबारा कोई महिला नही बैठ सकी. वैसे इतिहास तो यह भी बताता है कि स्वतंत्रता आंदोलन में राज्य की महिलाओं ने बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया था. इनमें सैयदा का नाम भी शामिल है. लेकिन फिर स्वतंत्रता के बाद राज्य में विरले ही कोई महिला नेतृत्व करती नजर आई.

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बता दें कि राज्य की 126 सीटों पर 1952 से लेकर साल 2016 तक हुए चुनावों में महिला विधायकों की संख्या एक ही बार 14 तक पहुंची थी. ये साल 2011 की बात है. फिर 2016 में हुए विधानसभा चुनाव में तो केवल 8 महिलाएं ही राज्य विधानसभा तक पहुंच सकी. राज्य की राजनीति में महिलाओं की यह स्थिती को देखते हुए सैयदा इन सब से थोड़ी दूर होने लगीं. हालांकि अभी तक उन्होंने आधिकारिक तौर पर राजनीति से सन्यास नहीं लिया है.

साल 2011 में ही उन्होंने कांग्रेस छोड़कर असम की एक अल्पसंख्यक पार्टी 'ऑल इंडिया यूनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट' से खुद को जोड़ लिया था. हालांकि यह कदम केवल नाम का था. सैयदा की दिलचस्पी अब राजनीति में नहीं बची और न ही उनकी उम्र अब उन्हें यह इजाजत देती है. वर्तमान में वह अपने बेटे के साथ ऑस्ट्रेलिया में हैं. एनआरसी की लिस्ट में नाम न पाकर वो जल्द ही भारत लौटने वाली हैं.

असम की एनआरसी लिस्ट में राज्य की ही एक पूर्व मुख्यमंत्री का नाम न होने का तथ्य जितना हास्यास्पद है, उतना ही चिंताजनक भी. देश की आजादी की लड़ाई से लेकर कांग्रेस की महिला मोर्चा का नेतृत्व करने वाली, किसी जमाने में राज्य कांग्रेस की सबसे बड़ी और चर्चित नेता रहने वाली, राज्य की कुछ समय के लिए ही सही पर मुख्यमंत्री रहने वाली सैयदा देश की नागरिक नहीं हैं? इस तथ्य पर सवाल के साथ ही पूर्णविराम भी.

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