अब तक बहस इस बात पर हो रही थी कि वरिष्ठ पत्रकार मृणाल पांडे ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के जन्मदिन के मौके पर गधे के चित्र का इस्तेमाल कर जो तंज कसा था, वो ठीक है या नहीं. समूची पत्रकार बिरादरी अपनी अपनी प्रखर विचारधारा के साथ इस मामले के पक्ष और विपक्ष में खड़ी थी. मुकाबले का कोई नतीजा सामने आया भी नहीं था कि एक वीडियो ने पत्रकार बिरादरी के बीच एक नई बहस छेड़ दी.
वीडियो अर्णब गोस्वामी का है, जिसमें वो 2002 के दंगों का जिक्र करते हुए ये बता रहे हैं कि किस तरह से गुजरात दंगों के दौरान उनकी गाड़ी को दंगाइयों ने सीएम आवास के पहले रोक लिया और वो जान पर खेलकर रिपोर्टिंग की अपनी जिम्मेदारी निभाते हुए किस्मत से बच निकले.
इस वीडियो पर किसी को आपत्ति नहीं थी. होगी भी क्यों ? 2002 के दंगों की कवरेज में ऐसा वाकया हुआ होगा, इसमें किसी को क्यों संदेह होगा? लेकिन पूरा मामला तब पलट गया जब इस वीडियो पर अर्णब गोस्वामी के पुराने सहयोगी रह चुके राजदीप सरदेसाई की नजर गई. अर्णब गोस्वामी के पत्रकारिता वाले जीवन के इस सनसनीखेज सच को राजदीप सरदेसाई ने झूठ का पुलिंदा करार दिया है.
राजदीप सरदेसाई ने कहा कि अर्णब के साथ ये वाकया कैसे हो सकता है, जब उन्होंने 2002 के गुजरात दंगों की कवरेज की ही नहीं. एक संपादक का झूठ एक दूसरे संपादक ने पूरी दुनिया के सामने ला दिया. पत्रकारिता के उसूलों की धज्जियां तो उड़नी ही थी.
अर्णब गोस्वामी और राजदीप सरदेसाई एनडीटीवी में साथ काम करते थे. एक ही टेलीविजन चैनल में अर्णब गोस्वामी पद के क्रम में राजदीप सरदेसाई से नीचे थे. राजदीप इस बात को लेकर इतने मुखर होकर इसलिए बोल रहे हैं क्योंकि उन्होंने खुद गुजरात दंगों की रिपोर्टिंग की थी. इसलिए उस वाकये का उन्हें पता है. फिलहाल अर्णब गोस्वामी रिपब्लिक टेलीविजन के एडिटर इन चीफ हैं जबकि राजदीप सरदेसाई इंडिया टीवी ग्रुप के कंसलटिंग एडिटर. अब अर्णब गोस्वामी को अपने झूठ का बचाव करना मुश्किल हो रहा है.
Wow! My friend Arnab claims his car attacked next to CM Res in Guj riots! Truth:he wasn't covering Ahmedabad riots!! https://t.co/xOe7zY8rCp
— Rajdeep Sardesai (@sardesairajdeep) September 19, 2017
वीडियो की सच्चाई सामने आने के दूसरे दिन यूट्यूब से उसे डिलीट कर दिया गया. लेकिन तब तक एकदूसरे से प्रतिद्वंद्विता की लड़ाई में सच्चाई के साथ खड़े होने का दावा करने वाले कुछ पत्रकारों ने इस सनसनीखेज वीडियो को सुरक्षित रख लिया था. राजदीप सरदेसाई इस झूठ के लिए अर्णब की ओर से माफी की मांग कर रहे हैं. जबकि मामले को दो पक्षों की आपसी प्रतिद्वंद्विता से जोड़कर इसे रफा-दफा करने की कोशिश भी चल रही है.
ये संपादकों पर उनके पाठकों और दर्शकों का भरोसा डगमगाने वाली घटना है. अपने तथ्यों को लेकर इतने सख्त संपादकों का अपने पत्रकारिता जीवन का झूठ इसके लगातार गिरते स्तर का एक पायदान भर है. अब तक पत्रकारों को उनके राजनीतिक पक्ष के बचाव के लिए तर्कों से ज्यादा कुतर्कों और इस कोशिश में तथ्यों के मनमाफिक चुनाव के लिए जाना जाता था. अब तथ्यों से हटकर बात झूठ तक जा पहुंची है. अपनी व्यक्तिगत छवि निर्माण के लिए इस स्तर का झूठ संपादकों पर ही नहीं बल्कि पत्रकारिता जैसी संस्था पर चोट पहुंचाने वाला है. इसका बचाव करना मुश्किल है.
Fekugiri has its limits, but seeing this, I feel sorry for my profession. https://t.co/xOe7zY8rCp
— Rajdeep Sardesai (@sardesairajdeep) September 19, 2017
अर्णब गोस्वामी का ये एक पुराना वीडियो है. वीडियो की तारीख के बारे में अब तक पता नहीं चल पा रहा है. कहा जा रहा है कि ये वीडियो असम मे दिए एक भाषण का है और उस वक्त वहां कांग्रेस की सरकार थी. भाषण में अर्णब गोस्वामी गुजरात दंगों का जिक्र करते हुए कहते हैं -
'अचानक हमारी एंबेसडर कार को रोक दिया गया. हमारी कार पर त्रिशूलों से हमला किया गया. कार की खिड़कियां तोड़ दी गईं. ये जिंदगी की वो सच्चाई है, जो मैंने अपनी आंखों से देखी है. हमारे धर्म को लेकर सवाल पूछे जाने लगे. ये मुख्यमंत्री आवास से महज 50 मीटर दूर हुआ. ये कैसे हुआ, मुझे नहीं पता. मैंने कहा- हम पत्रकार हैं लेकिन त्रिशूल लहराने वाले हमसे सिर्फ हमारे धर्म के बारे में पूछते रहे. राहत की बात ये थी कि हमारे बीच कोई अल्पसंख्यक समुदाय से नहीं था. हमारे पास प्रेस आईकार्ड थे, लेकिन ड्राइवर के पास नहीं था. मेरा ड्राइवर डरा हुआ था. मैंने नफरत को करीब से देखा. वो लोग उसे मार देते लेकिन उसकी कलाई पर एक धार्मिक टैटू था.’
इस वीडियो के वायरल होने के बाद पत्रकार राजदीप सरदेसाई ने ट्वीट किया- ‘वाह, मेरे दोस्त अर्णब दावा कर रहे हैं कि गुजरात दंगों के दौरान मुख्यमंत्री आवास के पास उनकी कार पर हमला हुआ लेकिन सच ये है कि वो अहमदाबाद में हुए दंगों को कवर ही नहीं कर रहे थे.’ इसके बाद अर्णब गोस्वामी को उनके इस झूठ के लिए उन पर सोशल मीडिया पर हमले होने लगे.
बात जब निकली तो जिस घटना का जिक्र अर्णब गोस्वामी कर रहे थे उसके बारे में दिलचस्प जानकारी मिली. पता चला कि अपने ऊपर बीती जिस सनसनीखेज घटना का जिक्र अर्णब गोस्वामी कर रहे थे, दरअसल वो राजदीप सरदेसाई के साथ हुई थी. इस घटना के बारे में राजदीप ने अपनी एक किताब में भी लिखा है. राजदीप सरदेसाई ने एक के बाद एक ट्वीट कर मामले को दबाने छिपाने से इनकार कर दिया. राजदीप ने कहा कि 'फेंकूगीरी की भी कोई सीमा होती है. इस वीडियो को देखने के बाद मैं अपने पेशे को लेकर शर्मिंदा हूं.'
ये अजीब बात है कि राजनेताओं पर सवालों की बौछार फेंकने वाले संपादक और टेलीविजन के नामी चेहरे अपने व्यक्तिगत जीवन में स्तरहीनता की कोई फिक्र नहीं करते. ऐसी ही घटनाओं की वजह से आम लोगों को यकीन पत्रकारिता से टूटता जा रहा है. एक के बाद एक ऐसी घटनाएं पत्रकारिता पर आम लोगों के यकीन पर चोट पहुंचाती है.
अर्णब गोस्वामी के टेलीविजन की बहसों पर कोई राय बनाए बिना भी कहा जा सकता है कि इस मामले में अर्णब गोस्वामी का किसी भी तरह से बचाव नहीं किया जा सकता. हालांकि कोशिशें इसकी भी हुई है. ट्विटर पर मामले ने जब तूल पकड़ा तो फिल्म अभिनेता अनुपम खेर अर्णब के बचाव में आ गए. अनुपम खेर ने राजदीप सरदेसाई के एक ट्वीट पर पलटवार करते हुए लिखा, ‘देश जानना चाहता है कि आपकी जब अनगिनत रिपोर्टें गलत साबित हुईं तो आपने कितनी बार इस्तीफा देकर पत्रकारिता छोड़ी थी?’
ये राजदीप के उस ट्वीट के जवाब में लिखा या जिसमें राजदीप सरेदसाई ने अर्णब गोस्वामी पर निशाना साधते हुए ट्वीट किया था, “अब मैं सीधा सवाल पूछना चाहता हूं. देश जानना चाहता है कि अगर उनकी स्टोरी गलत साबित हुई तो क्या अर्णब पत्रकारिता छोड़कर इस्तीफा देंगे?” इसके बाद आए एक कमेंट के जवाब में राजदीप ने लिखा, “बहुत सही कहा सर. मैं खुद को सबसे पवित्र नहीं समझता. लेकिन हममें से कुछ लोग गलती करने पर माफी मांगते हैं, बेशर्मी नहीं दिखाते. बस इतना ही.”
हो सकता है कि कुछ लोग इसे राजदीप और अर्णब के बीच का मामला मानकर इसे ज्यादा तवज्जो न दें. हर बार ऐसे मामले में तुम्हारी कमीज मेरे से सफेद कैसे वाला मामला हो जाता है. पत्रकारिता में एक चलन सा चल पड़ा है कि जब भी किसी बड़े पत्रकार या संपादक के किसी टिप्पणी पर चर्चा की बात आती है तो इसे राजनीति के सत्ता पक्ष और विपक्ष का रंग देकर मुद्दे को विमर्श से बाहर कर दिया जाता है. मृणाल पांडे की एक राजनीतिक टिप्पणी पर यही हुआ. सब अपने-अपने पक्ष में लामबंद हो गए और बात सही या गलत ही रह ही नहीं गई.
अर्णब गोस्वामी का मामला इससे भी एक कदम आगे का है. अगर एक पत्रकार या संपादक के पक्ष का पता चल जाए तो जनता फिर भी उनके पक्ष को ध्यान में रखते हुए किसी मुद्दे पर उनके विश्लेषण पर कोई माकूल राय बना सकती है. लेकिन अगर संपादक या पत्रकार निरा झूठ बोलने पर उतर आएं तो फिर खबरों की दुनिया पर यकीन करने की कहां गुंजाइश रह जाएगी. ये स्तरहीनता की पराकाष्ठा होगी. सोशल मीडिया के इस दौर में ये बातें छिपाई भी नहीं जा सकती. पत्रकारिता पर वैसे भी काफी सवाल उठ रहे हैं. सवालों का ये बवंडर मीडिया पर जनता के यकीन को धूल में न मिला दे.
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