हाल ही में इलाहबाद हाईकोर्ट की एक टिप्पणी आई जिसमें उसने तीन-तलाक को असंवैधानिक बताते हुए कहा कि कोई भी पर्सनल-लॉ संविधान से ऊपर नहीं है. हाईकोर्ट ने कहा कि मुस्लिम महिलाओं को तीन तलाक देना क्रूरता की श्रेणी में आता है. इसी सन्दर्भ में हमने आरिफ मोहम्मद खान से बातचीत की जो एक लम्बे समय से तीन-तलाक़ को लेकर लडाई लड़ रहे हैं. आज से 30 साल पहले 1986 में उन्होंने शाहबानो केस में सुप्रीम कोर्ट के फैसले का समर्थन किया था लेकिन वोट बैंक की सियासत के सामने वो हार गए और उन्हें इस्तीफ़ा देना पड़ा था. पेश है उनसे बातचीत का सार.
सवाल: आरिफ साहब ऐसा लगता है जैसे इतिहास अपने आपको दोहरा रहा है. क्या आपको लगता है कि ये जो तीन-तलाक़ के सम्बन्ध में इलाहाबाद हाईकोर्ट की टिप्पणी आई है, ये शाहबानो केस के अधूरे एजेंडे का ही नतीजा है?
जवाब: देखिये, जबतक गैरबराबरी और अन्याय क़ायम है, तबतक प्रतिरोध भी कायम रहेगा. ‘तीन-तलाक़’, मुस्लिम-औरतों के प्रति एक अमानवीय अत्याचार है. 1986 में, इसके प्रति लोगों में जागरूकता न के बराबर थी, लोग इसके खिलाफ़ बोलने से डरते थे. लेकिन अब हालात बहुत बदल चुके हैं, खासतौर से मुस्लिम-औरतों में शिक्षा और जागरूकता आई है.
बड़ा सुकून मिलता है ये देखकर कि आज मुस्लिम-औरतें और उनके संगठन बहादुरी के साथ मुल्लायियत के शिकंजे का मुकाबला कर रहे हैं. कुरान अपनी आयत (7.157) में, नबूअत (prophetic) की रूपरेखा निर्धारित करते हुए कहता है, “वह, उन्हें उनके भारी बोझ और गुलामी की जंजीरों से आज़ाद कराता है”. इसलिए हर ईमान रखने वाले का ये फ़र्ज़ है कि वह मज़हब की मध्यस्ता करने वालों से अपने आपको आज़ाद करें और ईश्वरीय आज्ञा का पालन करे.
तस्वीर: आरिफ मोहम्मद खान
सवाल: क्या आप शाहबानो केस के परिद्रश्य और इलाहाबाद हाईकोर्ट की हालिया टिप्पणी के फर्क को समझायेंगे? क्या मोदी, जिनकी छवि हिंदुत्व वाली है, उनके मुकाबले राजीव गाँधी रूढ़ीवादिता का सामना करने में ज्यादा सक्षम थे?
जवाब: 1986 और आज में शायद ही कोई फर्क है. दरअसल शाहबानो केस तीन-तलाक़ के ही नतीजे में सामने आया था. पति ने 65 बरस की शाहबानो को त्याग दिया था और जब उसने भारतीय दंड संहिता की धरा 125 के तहत गुज़ारे-भत्ते की मांग की तो उसने फ़ौरन उसे तलाक़ दे दी. यहाँ तक कि मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड इस ‘क्षणिक-तलाक़’ की व्याख्या को ‘तलाके-बिदअत’ कहता है. अरबी भाषा में ‘बिदअत’ का मतलब होता है ‘नवरचना’ यानी वो जो मूल रचना से अलग हो. पर्सनल लॉ बोर्ड की अपनी किताब में इसे इस प्रकार वर्णित किया गया है, ”कानूनी रूप में उचित लेकिन धर्म के अनुसार अपराध”. हैरत होती है कि ये लोग अपराध के बचाव की वकालत करते हैं.
शख्सियतों की तुलना करना मुझे पसंद नहीं है. राजीव जी नई सोच वाले व्यक्ति थे, उनकी हमदर्दी शाहबानो और उसकी जैसी ही पीड़ित महिलाओं के साथ थी लेकिन किसी भी सज्जन पुरुष की तरह, वो भी, बाध्यताओं को स्वीकार कर लेते थे. मेरी समझ तो ये कहती है कि राजीव, पर्सनल लॉ बोर्ड और नजमा हेपतुल्लाह या ज़ेड आर अंसारी जैसे सियासतदानों के दबाव में नहीं थे, बल्कि पर्सनल लॉ बोर्ड के समर्थन में जो उनका झुकाव हुआ तो नरसिम्हा राव जैसे वरिष्ठ कांग्रेसियों की वजह से, जिनकी सोच थी कि हमें समाज सुधार के नाम पर मुस्लिम मतदाताओं को अपने खिलाफ़ नहीं करना चाहिए.
दूसरी तरफ वर्तमान सरकार ने जो नजरिया अपनाया है वह भारतीय संविधान के प्रावधानों के प्रति दृढता वाला है. हमारा संविधान कहता है कि समस्त कानून जो भारत में संविधान लागू होने से पहले, पालन में थे, और जिनका चलन मूलभूत अधिकारों के विरुद्ध है, स्वतः समाप्त मान लिए जाएँ.
सवाल: भारत जैसे विविधिताओं वाले समाज में, ये कितना कानूनी होगा की किसी समुदाय-विशेष का सामाजिक प्रबंधन उनके पर्सनल लॉज़ द्वारा निर्धारित हो?
जवाब: भारतीय सभ्यता के आरम्भ से ही हम विविधिताओं का निर्वाह करते आ रहे हैं, ये हमारी महान परम्पराओं का हिस्सा है. अत्यंत प्राचीन काल में भारतवर्ष ने घोषित कर दिया था कि “सत्य ही परम है और जो जानते हैं वो विविधिता के साथ इसकी व्याख्या करते हैं”.
ये हमारे डीएनए में है की हम विविधिताओं से भयभीत नहीं होते बल्कि उसका उत्सव मनाते हैं. लेकिन विविधिताओं और अनेकताओं के नाम पर ये स्वीकृति नहीं होनी चाहिए कि कानून और रीती-रिवाजों के नाम पर नागरिकों के किसी दल-विशेष पर दबाव बनाया जाये. विविधताओं के सम्मान का मतलब ये बिलकुल नहीं है कि उन कानूनों या रिवाजों को जारी रख्खा जाए जो लिंग-भेद करके नाइंसाफी को बढ़ावा देते हैं.
सवाल: अगर इतिहास को याद करें तो आपने शाहबानो मसले पर राजीव गाँधी मण्डली को छोड़ा था. क्या आप ये मानते हैं कि अगर शाहबानो केस में राजीव गाँधी सुप्रीमकोर्ट के आदेश को न पलटते तो मुस्लिम-नेतृत्व ज्यादा संयमित और उदारवादी होता?
जवाब: मुझे ये बेमतलब की बात लगती है कि जिस नेतृत्व का आप ज़िक्र कर रहे हैं, उसके अतिवादी और रूढीवादी व्यवहार के लिए, राजीव जी या किसी एक केस को उत्तरदायी ठहराया जाए. मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड जैसे संगठन जिस पाठ्यक्रम का अनुसरण करते हैं और मज़हब के जिन आदर्शों के प्रति वफादार हैं, वहां से केवल उग्रता और रूढ़ता ही जनम ले सकती है. सच तो ये है कि इसके लिए उदारवादियों और नरमपंथियों के संयम को उत्तरदायी ठहराया जाना चाहिए कि उनहोंने ऐसी स्थितियों को पनपने दिया तथा ताक़तवर होते मुल्लावाद के खिलाफ़ आवाजें बुलंद नहीं कीं.
सवाल: ये सोच कहाँ तक सही है कि आल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड, देश के समस्त मुस्लिम समुदाय का प्रतिनिधित्व करता है?
जवाब: इस सवाल का जवाब तो वही दे सकते हैं जो उन्हें समुदाय का प्रतिनिधि समझते हैं. मेरी सोच अलग है. मुझे बहुत अफ़सोस आता है उनपर. याद कीजिये 1986, वह सुप्रीम कोर्ट के आदेश का विरोध कर रहे थे केवल इस तर्क पर कि मुस्लिम पति का उत्तरदायित्व सिर्फ इद्दत की सीमा तक है, यानी वह 90 दिन जबतक उसकी तलाकशुदा बीवी इस फ़िक्र से आज़ाद नहीं हो जाती कि इस बीच वह पूर्व-पति से गर्भवती नहीं है.
उनके मुताबिक, इस इद्दत की अवधि के बाद कानून, शौहर को किसी भी किस्म का गुज़ारा-भत्ता देने के लिए बाध्य नहीं कर सकता. अंततः सरकार को उनकी मांगों के आगे झुकना पड़ा और एक ऐसा कानून लाने की सहमती देनी पड़ी, उस समय के पर्सनल लॉ बोर्ड के चयरमैन अपनी आत्मकथा में लिखते है कि इस सम्बन्ध में ‘फाइनल-ड्राफ्ट’ उनकी निजी सहमती के बाद ही संसद के पटल पर रक्खा गया जिसे बाद में संसद ने पारित किया.
लेकिन आज स्थिति क्या है? जो कानून उनके उदाहरणों पर पारित हुआ था, कहीं भी यह नहीं कहता की पति का उत्तरदायित्व केवल इद्दत की अवधि तक ही सिमित है, बल्कि कानून ये कहता है कि इद्दत-अवधि के दौरान ही पत्नी के गुज़ारे के लिए उचित और निष्पक्ष व्यवस्था का निर्धारण हो जाना चाहिए.
परिणामस्वरूप, सुप्रीम कोर्ट ने इस व्यवस्था की व्याख्या करते हुए साफ़-साफ़ कहा कि ‘यह रक़म इतनी होनी चाहिए कि तलाक़-शुदा पत्नी अपने भविष्य का निर्वाह कर सके. सुप्रीम कोर्ट ने ये भी कह दिया कि 1986 में जो कानून बना था वह तलाक़-शुदा मुस्लिम औरत को भारतीय दंड संहिता की धरा 125 के तहत फ़रियाद करने से रोक नहीं सकता. अभी कुछ महीने पहले ही पर्सनल लॉ बोर्ड के एक प्रवक्ता ने एक लेख में ये माना कि 1986 में बना कानून केवल एक ढकोसला है और मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड की मांगों को संतुष्ट नहीं करता.
इस पूरे घटनाक्रम से साबित होता है कि पर्सनल लॉ बोर्ड के पास केवल प्रतिनिधित्व का ही अभाव नहीं है बल्कि उनके पास विधि-निर्माण जैसे ज़िम्मेदार काम के लिए उचित ज्ञान और महारत भी नहीं है.
सवाल: आप हमेशा से मुस्लिम समुदाय में सुधारों के हिमायती रहे हैं, क्या आपको लगता है कि ऐसे अदालती हस्तक्षेपों से किसी सुधार की दिशा तय की जा सकती है? या ये स्वयं में एक बाधा है?
जवाब: अदालत का सर्वोच्च कर्तव्य है कि वह संसद या कार्यकारिणी की किसी भी दखलंदाजी से संविधान और अपने नागरिकों की हिफाज़त करे. अदालती हस्तक्षेप केवल अधिकार का विषय नहीं है, बल्कि अदालत के लिए ये इन्तेहाई ज़रूरी है कि वह उन विषयों में अवश्य हस्तक्षेप करे जहाँ मौलिक अधिकारों को किसी विधान-सभा या किसी कानून द्वारा संकुचित किया जा रहा हो.
तीन-तलाक़ का मसअला मुस्लिम औरतों के साथ और लिंग-भेद के साथ साफ़ तौर पर नाइंसाफी है. ये अदालत का फ़र्ज़ है कि वह भारत के हर नागरिक के मौलिक अधिकारों की हिफाज़त करे. सुधार किसी समुदाय-विशेष के लिए चिंता का विषय हो सकते हैं लेकिन नागरिकों के मौलिक अधिकारों की हिफाज़त अदालत का परम कर्तव्य है.
सवाल: सुधार अपने आपमें कोई अकेली प्रक्रिया नहीं है. क्या आप सोचते हैं कि ‘समान नागरिक संहिता’ ऐसे सुधारों को हासिल करने का एक उचित रास्ता है?
जवाब: ‘समान नागरिक संहिता’ अपने आपमें एक अलग विषय है और ये राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांतों का हिस्सा है. संविधान की धारा 44, व्याख्या करती है कि भारत गणराज्य को अपनी सीमा में रह रहे नागरिकों के लिए एक सामान नागरिक संहिता बनाने का प्रयास करना चाहिए.
दूसरी ओर वह धारा 37 के माध्यम से कहता है कि नीति निर्देशक सिद्धांतों को कानून के तहत लागू करने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता बल्कि ये देश के शासन में निहित होने चाहिए और ये राज्य का कर्तव्य है की कानून बनाते समय इन निर्देशों की अनदेखी न हो.
‘समान नागरिक संहिता’ के सम्बन्ध में यही कहा जा सकता है कि अभी तक सरकार कोई ऐसा प्रारूप लेकर सामने नहीं आई है, यदि ऐसा हुआ तो इस पर भी बात होगी लेकिन हमें तीन तलाक़ की समाप्ति और समान नागरिक संहिता, इन दोनों विषयों को मिलाना नहीं चाहिए.
वर्तमान स्थिति ये है कि ‘शरीयत अप्लिकेशन एक्ट’ यानी मुस्लिम पर्सनल लॉ, भारतीय कानून का हिस्सा है और इसी के तहत तीन-तलाक़ की व्यवस्था का इस्तेमाल किया जाता है. तीन-तलाक़ का प्रावधान साफ़ तौर पर मौलिक अधिकारों के साथ घिनौना मजाक है और सिर्फ यही नहीं कि फ़ौरन इस कानून को रद्द कर देना चाहिए बल्कि इसका इस्तेमाल करने वालों को कड़ी से कड़ी सजा मिलनी चाहिए, तभी इस घिनौने चलन से निजात पाई जा सकती है.
सवाल: देखा जाय तो दुनिया के सामने, ‘भारतीय-इस्लाम’ अपना एक नरम और सुधारवादी चेहरा पेश करता है. क्या आपको लगता है कि हमारी सियासत ने इसे, पिछड़ेपन का पर्याय बना दिया है? मैं ये सवाल इसलिए पूछ रहा हूँ क्योंकि मुझे महसूस होता है की आप जैसे प्रगतिवादियों की आवाजें देश के राजनैतिक नेतृत्व द्वारा उपेक्षित हो रही हैं.
जवाब: मज़हबी संयम या आज़ादख़याली को सियासत से जोड़कर नहीं देखना चाहिए. मुसलमानों के नबी का कथन मौजूद है जो कहता है “ सबसे प्यारा धर्म, अल्लाह के नज़दीक, उदारवादी हनफिया है”. स्वयं क़ुरआन “उम्मतन वसता” शब्द का इस्तेमाल करता है, जिसका अर्थ है, वह लोग जो इमानदारी के साथ संतुलित या नियंत्रित हैं. अब अगर हम इन शब्दों पर ध्यान ना देकर अति या उग्र रूप इख्तियार कर लें तो इसके ज़िम्मेदार हम खुद हैं.
जहाँ तक सियासत का सवाल है, धर्म-निरपेक्ष और विविधिता वाले समाज के लिए निहायत ज़रूरी है की उनके बीच चुनावी-समर्थन के लिए धर्म या मज़हब का इस्तेमाल ना किया जाय. ऐसा पहले किया जा चुका है जिसके नतीजे में हमने साम्प्रदायिक नफरतें देखीं, हिंसा देखी और देश का विभाजन देखा. क्या ये काफी नहीं है सीखने के लिए?
लोकतंत्र में हम हमेशा शिकायतें ही नहीं करते रह सकते. हमें ज़ेहनों को और दिलों को जीतना होता है. मैं आपकी राय से मुत्तफ़िक़ नहीं हूँ. मैं मुल्लायियत के खिलाफ़ 1986 से लड़ रहा हूँ. उस वक़्त उनके असरदार प्रतिनिधित्व के सामने ये एक तरह की अकेली लडाई थी. लेकिन आज उनकी तादाद देखिये जो इसके खिआफ खड़े हैं, खासतौर से मुस्लिम-औरतें. ये बहुत सकारात्मक है और बजाय इसके कि हम रोने-धोने बैठ जायें, हमें इन आवाजों को और संगठित करना चाहिए ताकि बेहतर से बेहतर नतीजे हासिल किये जा सकें.
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