बोल के लब आज़ाद हैं तेरे
बोल के ज़बान अब तक तेरी है
फैज़ की ये मशहूर नज्म अलग अलग दौर में बेशुमार नौजवानों के बाग़ी तेवरों का सहारा बनी है. लेकिन वो वक़्त हर दौर में आता है जब ये लगने लगता है कि जुबां और खयालों की आजादी पर पहरा है. कभी ज्यादा, कभी कम. हाल के दिनों में ये पहरे कड़े हुए हैं, बार-बार ये लगा है की आवाज़ को खामोश करने की कोशिश हो रही है, विचारों पर नियंत्रण है. सबसे ताज़ा मिसाल 8 फरवरी की है. शहर मुंबई, जगह नेशनल गैलरी फॉर मॉडर्न आर्ट. स्टेज पर बोल रहे थे बेमिसाल कलाकार अमोल पालेकर. कार्यक्रम था आर्टिस्ट प्रभाकर बर्वे पर.
प्रभाकर बर्वे, जो आधुनिक भारतीय कला के जाने-माने नाम रहे हैं, उन पर बात करते हुए अमोल पालेकर कला और कला संस्थानों की वैचारिक आजादी पर भी टिपण्णी कर रहे थे, लेकिन वो जब भी इस विषय पर आये ट्रैफिक पुलिस की तरह चंद सरकारी नुमाइंदे उन्हें विषय पर लौटने को गाइड करते रहे. ये इतनी बार हुआ की अमोल पालेकर स्टेज से नीचे आ गए.
टोका इसलिए जा रहा था क्यूंकि आयोजकों को ये गवारा नहीं था कि अमोल पालेकर जो वहां प्रभाकर बर्वे पर बोलने आये थे वो कला संस्थाओं की वैचारिक स्वतंत्रता पर भी टिपण्णी करें. उन्होंने पालेकर साहब को बार बार विषय पर बोलने की चेतावनी देकर ये दिखा दिया कि विचारों को जाहिर करने की आजादी नहीं है.
इस प्रोग्राम की विडियो क्लिप सोशल मीडिया पर खूब घूमी, जिस से सेंसरशिप और उसके तमाम आयामों पर हंगामा भी हुआ. ये घटना न पहली है न अनोखी और न ही आखिरी.
Just got this video of one of my favourite actors, Amol Palekar, being cut off while ruing the loss of independence in art at @mumbai_ngma simply because he seemed critical of a Ministry of Culture/NGMA decision.
This is what #intolerance in the present times is all about. Sad! pic.twitter.com/u8L30qeiz7— Annu Tandon (@AnnuTandonUnnao) February 9, 2019
अमोल पालेकर के साथ हुई घटना से कुछ महीने पहले बीते दिसंबर में एक्टर नसीरुद्दीन शाह का अजमेर लिटरेचर फेस्टिवल में भाषण भी रद्द कर दिया गया था क्योंकि कई लोग जिसमें ज्यादातर बीजेपी से हमदर्दी रखने वाले लोग और नेता शामिल थे, इस बात से बेहद नाराज़ थे की नसीर साहब ने समाज में फैलती हुई नफरत और भीड़ की हिंसा या मॉब लिंचिंग पर गुस्सा क्यों जताया.
2017 की बात है जब मलयालम फिल्म S Durga गोवा फिल्म फेस्टिवल से बिना किसी नोटिस के हटा दी गई. शायद सूचना प्रसारण मंत्रालय की तरफ से निर्देश आए थे. इस फिल्म का नाम पहले सेक्सी दुर्गा था. राइट विंग के कार्यकर्ताओं ने अपना फ़र्ज़ समझते हुए इस पर खूब विरोध किया, फिर फिल्म को S Durga बना दिया गया, लेकिन मंत्रालय के लिए ये काफी नहीं था और फिल्म बिना किसी नोटिस के फेस्टिवल से हटा दी गई. संजय लीला भंसाली की फिल्म पद्मावत से राजपूत महिलाओं और राजपूतों की आन, बान, शान को खतरा नज़र आने लगा. फिर क्या था, राजपूत पुरुषों ने महिलाओं का एक जत्था खड़ा कर दिया जो रानी पद्मावत के मान को ठेस पहुंचने पर अपनी जान देने को सज-धज कर खड़ी नज़र आईं.
इसी जनवरी में चेन्नई के लोयोला कॉलेज पर बीजेपी और आरएसएस की युवा विंग ने हमला बोला क्योंकि वहां लगी कला प्रदर्शनी में हिंदू देवी-देवताओं को जिस तरह दर्शाया गया था वो इन लोगों को आपत्तिजनक लग रहा था. साथ ही प्रधानमंत्री की तस्वीरें भी अपमानजनक थीं. लोयोला ने दबाव में फौरन माफीनामा जारी कर दिया.
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कहा जाता है बुद्धिजीवियों, कलाकारों और कला को तुच्छता से देखना या उसके साथ पक्षपात करना तानाशाही की एक निशानी है. बेहतरीन एक्टर और बेमिसाल डायरेक्टर अमोल पालेकर के साथ NGMA में जी हुआ वो इसी की मिसाल है. पालेकर नीतियों में हो रहे उस बदलाव की बात कर रहे थे जिसके तहत ये अधिकार संस्कृति मंत्रालय के पास होगा कि NGMA में किस तरह कि और किन विषयों पर प्रदर्शनियां लगाई जा सकती हैं.
अक्टूबर 2018 तक ये फैसला स्थानीय कलाकारों की एक ऐसी समिति तय करती थी जो हर तीन साल में बदली जाती थीं. पालेकर ने कहा, 'NGMA जो कला की अभिव्यक्ति का स्थल रहा है, उस पर इस तरह का नियंत्रण, मानवता के खिलाफ छिड़े युद्ध के नाम पर एक और शहादत है. मैं इस से बेहद विचलित हूं.'
रिपोर्ट्स के मुताबिक पूर्व अध्यक्ष सुहास बहुलकर और शो के क्यूरेटर जेसल ठाकर ने अमोल पालेकर को तब तक बार-बार इन टिपण्णियों के लिए टोका , जब तक वो बीच में मंच छोड़ कर नीचे नहीं उतर आए. लेकिन उतरने से पहले वहां मौजूद लोगों को उन्होंने ये याद दिला दिया कि इसी हाल में नयनतारा सहगल, मराठी साहित्य सम्मलेन से हटाई गई थीं.
आखिरी लम्हे पर उनका नाम कार्यक्रम से हटा दिया गया, क्योंकि वो आलोचनात्मक बातें कर सकती थीं. जब कला दीर्घाओं में कलाकारों की समिति की जगह सरकारों के एजेंट तय करने लगेंगे कि क्या होगा क्या नहीं तो जाहिर है ये नैतिक चौकीदारी कहलाएगी और तब एक खास विचार की कला या प्रोपेगंडा को जगह मिलेगी.
मुंबई NGMA की निदेशक अनीता रूपवात्रम अमोल पालेकर को ये याद दिलाती रहीं की NGMA एक सरकारी गैलरी है जो संस्कृति मंत्रालय के अधीन है. लेकिन तथ्य ये है की NGMA जनता की जगह है, ये देश के लिए है, देश की जगह है, सरकार का नहीं. NGMA का 1954 में तब के उप राष्ट्रपति डॉ. राधाकृष्णन ने उद्घाटन किया था, इसे जनता के लिए 1966 में खोला गया.
किसी कला क्षेत्र पर उस दौर की सरकार का अगर एकाधिकार होने लगे, अगर वहां वही हो जो सरकारें चाहती हैं तो ऐसी जगहें बेमानी हो जाती हैं. आजादी कला के फलने-फूलने के लिए हवा-पानी की तरह जरूरी है. इस बात का एहसास जिंदा रहना जरूरी है कि हर तरह का नियंत्रण कई बार बहुत साफ-साफ सामने नहीं आता.
जरूरी नहीं है कि परंपरागत तरीके से ही दादागीरी दिखाई जाए. आज के दौर की तानाशाही चौराहे पर किताबों को जलाने से कहीं आगे बढ़ गई है. जितने विचार के माध्यम फैल रहे हैं, नियंत्रण भी उसी बराबरी में फैल रहा है. अब तो कई बार ये नियंत्रण लोकतांत्रिक भी लगने लगा है. ये कई बार स्थतियों पर हमारी खामोशी से भी फलता-फूलता है. ये जंग लगातार जारी है.
ऐसे में नए विचारों, आलोचना और परंपरागत सोच को चुनौती देने की कितनी गुंजाइश है? कला की तरफ असहिष्णुता भारत में हाल के दिनों में बढ़ी है. लोग फौरन ये याद दिलाएंगे की सलमान रुश्दी पर भी प्रतिबंध लगा था या फिर तस्लीमा नसरीन के खिलाफ कार्रवाई भी तो पहले हुई है, जो तथाकथित उदारवादी सरकार का कार्यकाल था. हुई जरूर है. सभी सरकारें कोशिश करती हैं, अपनी सुविधा से विचारों को कुचलने की. ये चलन बढ़ा है. इस के खिलाफ आवाज उठाते रहना जरूरी है.
NGMA मुंबई की निदेशक अनीता रूपवात्रम ने कला पर से इलीट का तमगा हटा कर उसे आम जनता तक पहुंचाने की बात की है लेकिन कहीं ऐसा न हो कि ऐसा करने के दौरान सत्ताधारी ताकतें, इसी बहाने कला को आपत्तिजनक या अपवित्र बता कर उसे नाज़ी अंदाज में तबाह-ओ-बर्बाद करने लगें.
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