आलोक वर्मा एक ऐसे आईपीएस अधिकारी के तौर पर याद किए जाएंगे, जिन्होंने एक बहुत अहम संस्था को तबाह कर दिया. वैसे, उनके मातहत अधिकारी राकेश अस्थाना और एके शर्मा भी कम जिम्मेदार नहीं हैं. लेकिन, सीबीआई निदेशक आलोक वर्मा की तरह उन्हें खुद के खुदा होने का गुमान तो नहीं था. जिस तरह से सीबीआई में कलह शुरू हुई उस पर नजर डालें, तो दो अधिकारियों के अहं का टकराव इतना बढ़ गया कि मोदी सरकार के लिए सबसे बड़ी प्रशासनिक चुनौती बन गया.
इसकी शुरुआत सीबीआई के अलग-अलग गुटों के अपने पसंदीदा अफसरों को जांच एजेंसी में नियुक्त करने से हुई थी.
निजी पसंद पर अधिकारियों की नियुक्ति जंग में बदल गई
सीबीआई के विशेष निदेशक राकेश अस्थाना ने कुछ खास अधिकारियों की वकालत की, तो निदेशक आलोक वर्मा खाली पदों पर अपनी पसंद के अधिकारियों की नियुक्ति चाहते थे. इसका साफ नतीजा हुआ कि सीबीआई के लिए अफसरों को काबिलियत के आधार पर नहीं, बल्कि निजी पसंद के आधार पर चुना गया. आलोक वर्मा की पसंद के अधिकारियों की नियुक्ति नहीं हुई. जाहिर है इसमें राकेश अस्थाना की दखलंदाजी थी. सीबीआई के दो अधिकारियों की ये लड़ाई जल्द ही एक और बदनाम एजेंसी से जंग में तब्दील हो गई. प्रवर्तन निदेशालय आलोक वर्मा के समर्थन में खड़ा हो गया.
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एक केस की जांच के दौरान मिली संदिग्ध डायरी में राकेश अस्थाना का नाम होने की अफवाह फिजां में तैरने लगी. जल्द ही इस डायरी के अंश उन वकीलों के पास तक पहुंच गए, जिन्होंने जनहित याचिकाएं डालने को अपना कारोबार बना लिया है. अस्थाना ने भी इसके जवाब में कुछ संदिग्ध लेन-देन की अटकलें उड़ा दीं. जाहिर है उनके पलटवार का निशाना आलोक वर्मा और उनके करीबी अधिकारी थे.
आलोक वर्मा खुद भी शरीक रहे
हम आरोप-प्रत्यारोप की सत्यता को परे रखकर देखें (आरोपों की पड़ताल कानून और अदालत करेंगे) तो, साफ लगता है कि सीबीआई और प्रवर्तन निदेशालय के अधिकारी माफिया गैंग की तरह बर्ताव कर रहे थे. बुनियादी तौर पर जिस तरह की साज़िश, झूठ और छल-कपट सरकारी जांच एजेंसियों के अधिकारियों ने किया, उसके आगे तो बड़े-बड़े माफिया भी पानी भरें. पूरे विवाद में जिस तरह अधिकारियों के परिजनों का नाम लेकर उन्हें घसीटा गया, वो घृणित है. आलोक वर्मा ने न केवल ऐसा होने दिया, बल्कि ऐसी गंदी साजिशों में खुद भी शरीक रहे. उन्होंने इस बात की पूरी तरह से अनदेखी कर दी कि वो जो खेल खेल रहे हैं, वो उस संस्था को ही तबाह कर रहा है, जिसकी वो सदारत करते हैं.
सीबीआई के पूरे विवाद में आलोक वर्मा पर सवाल तब और संगीन हो जाते हैं, जब हम ये देखते हैं कि पिछले दिनों उन्होंने किस तरह से जान-बूझकर हड़बड़ी दिखाई. जब रफाल डील की जांच की मांग को लेकर प्रशांत भूषण और अरुण शौरी ने उनसे मिलना चाहा, तो आलोक वर्मा ने फौरन उन्हें वक्त दे दिया.
शौरी और भूषण की मदद से अपना पक्ष मजबूत करना चाहते थे वर्मा
सीबीआई के इतिहास में ऐसा कभी नहीं हुआ है कि सियासी शिकायतों को जांच एजेंसी के निदेशक ने निजी तौर पर सुना हो. कुल मिलाकर ये साफ है कि आलोक वर्मा, अपने ऊपर प्रशासनिक कार्रवाई की सूरत में प्रशांत भूषण और अरुण शौरी की मदद से अपना पक्ष मजबूत करना चाह रहे थे. वर्मा को पता था कि उनके खिलाफ भ्रष्टाचार के आरोपों का सीवीसी ने संज्ञान लेकर कार्रवाई शुरू कर दी है. शौरी और प्रशांत भूषण से वर्मा की मुलाकात का मकसद, सरकार को अपने ऊपर कार्रवाई करने से रोकना था. ये कहानी इस बात से साफ हो जाती है कि आलोक वर्मा को जबरन छुट्टी पर भेजे जाने के फौरन बाद विपक्ष ने रफाल डील को लेकर सरकार पर हमला बोलना शुरू कर दिया.
इसमें कोई शक नहीं कि सीबीआई के मुख्यालय में घुसने से रोके जाने वाले एजेंसी का पहला निदेशक होने का तमगा आलोक वर्मा ने अपनी करतूतों से ही हासिल किया है. मगर ये सोचना गलत होगा कि आलोक वर्मा को उनकी करनी का फल अचानक मिला.
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तीन दशक पहले ही शुरू गया था सीबीआई का पतन
जांच एजेंसी सीबीआई का पतन आज से तीन दशक पहले राजीव गांधी के कार्यकाल में शुरू हुआ था. उस वक्त सियासी विवाद निपटाने के लिए जांच एजेंसी का इस्तेमाल शुरू हुआ था. अगर इस बात में किसी को शक हो, वो बैडमिंटन स्टार सैयद मोदी की पत्नी अमिता मोदी की डायरी में दर्ज सनसनीखेज बातों को पढ़ लें. इन्हें सीबीआई के अधिकारियों ने जान-बूझकर मीडिया में लीक किया था. उस वक्त सीबीआई, मामले की पड़ताल के बजाय चरित्रहनन का काम ज्यादा कर रही थी. नतीजा ये हुआ कि सैयद मोदी की हत्या का राज आज तक नहीं खुल सका.
बोफोर्स तोप खरीद में दलाली की जांच कई दशक करने के बाद भी सीबीआई किसी नतीजे पर नहीं पहुंच सकी. हुआ बस इतना कि सियासी आकाओं का हित साधने के लिए जांच अधिकारी छल-प्रपंच करते रहे. इस बात की कई मिसालें हैं जब केस को खास दिशा में ले जाने के लिए सीबीआई के जांच अधिकारियों ने फर्जी गवाह और सबूत पेश किए. सीबीआई के जांच अधिकारियों की ऐसी आपराधिक करतूतों की सीबीआई के बड़े अफसरों ने न सिर्फ अनदेखी की, बल्कि कई बार अपना हित साधने के लिए बढ़ावा भी दिया. भ्रष्ट सियासी लीडरों की जमात को ऐसी भ्रष्ट और और कायर केंद्रीय जांच एजेंसी मुफीद लगती रही क्योंकि वो उनके इशारों पर नाचती थी.
सीबीआई को कभी न भर सकने वाला नुकसान
इसलिए, आलोक वर्मा और राकेश अस्थाना की विदाई पर आंसू बहाने की जरूरत नहीं है. वो जांच एजेंसी की आपराधिक संस्कृति के शिकार बने हैं. अभी तो ऐसा लगता है कि राकेश अस्थाना पर जो आरोप हैं, वो सीबीआई निदेशक के इशारे पर उन्हें फंसाने के लिए लगाए गए हैं. जब अपने ही स्पेशल डायरेक्टर को फंसाने के लिए सीबीआई के जांच अधिकारी जुर्म की हद तक जा सकते हैं. तो, ऐसे में आम आदमी का क्या होगा, आप सिर्फ अंदाजा लगा सकते हैं.
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जांच एजेंसी के मुखिया के तौर पर आलोक वर्मा का बर्ताव साधु जैसा नहीं था. वो संदिग्ध बर्ताव वाले अधिकारियों का समर्थन करते थे. उनसे मिलकर उन्होंने राकेश अस्थाना से निजी लड़ाई को सड़क छाप झगड़ा बना दिया. आलोक वर्मा की करतूतों ने सीबीआई को कभी न भर सकने वाला नुकसान पहुंचाया है.
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