इलाहाबाद हाई कोर्ट ने कृषि योग्य जमीनों पर बने धार्मिक स्थलों को लेकर एक फैसला दिया है. जिससे यूपी के कई धर्मस्थलों के अस्तित्व पर सवाल खड़ा हो गया है. कोर्ट ने कहा कि कृषि योग्य भूमि पर बने धार्मिक स्थल कानूनी तौर पर सही नहीं है. अदालत ने एक मामले की सुनवाई करते हुए कहा कि भूमिधरी कृषि योग्य जमीन पर कोई निर्माण कार्य नहीं हो सकता है. जब तक इसके लिए बकायदा इजाजत ना ली गई हो.
कोर्ट के फैसले के पैरा 176 में लिखा है कि इस तरह का कार्य किसी दूसरे धर्म में भी किया जा रहा हो तो उनके विरुद्ध भी वही कार्रवाई की जाए. इलाहाबाद हाई कोर्ट के जस्टिस सुधीर अग्रवाल और जस्टिस अजित कुमार की दो सदस्यीय खंडपीठ ने यूपी के मुख्य सचिव को बकायदा निर्देश दिया है. जिसमें कहा गया है कि कृषि योग्य भूमि की यथास्थिति पुर्नस्थापित करें.
अदालत ने 28 मई 2018 तक मुख्य सचिव से एक्शन टेकन रिपोर्ट भी मांगा है. यानी मुख्य सचिव सभी डीएम से जिले में इस तरह के मामलों की रिपोर्ट मंगाकर अदालत को सौंपें. इस फैसले से कृषि योग्य भूमिधरी नॉन ट्रासंफरेबल जमीन पर कोई भी निर्माण कार्य अवैध हो गया है. चाहे मस्जिद, मदरसा, चर्च या मंदिर ही क्यों ना बना हो. अब इस मामले को लेकर सुन्नी सेंट्रल वक्फ बोर्ड सुप्रीम कोर्ट जाने की तैयारी कर रहा है.
क्या है मामला
इस फैसले के बैकग्रांउड को समझना अत्यंत जरूरी है. यूपी के फतेहपुर जिले का मामला है. जिसमें महमूद हुसैन नाम के शख्स ने तीन अन्य लोगों से जमीन बैनामे पर लिया था. जिसका दाखिल खारिज भी हो गया था. इस जमीन पर मदरसा और मस्जिद का निर्माण किया गया. पहले मस्जिद में लाउडस्पीकर लगाने पर विवाद हुआ था. जिसके बाद प्रशासन के हस्तक्षेप के बाद सुलह हो गया था. लेकिन एक पार्टी हाई कोर्ट पहुंच गई. जिसने इस विवाद पर डीएम की अदालत में जाने का निर्देश दिया था. जब मामला डीएम फतेहपुर के यहां चल रहा था. प्रधान की तरफ से ये प्रमाणपत्र जारी किया गया कि विवादित जगह पर पहले से प्रार्थना हो रही थी.
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लेकिन डीएम/कलेक्टर फतेहपुर ने 6 सिंतबर 2017 को फैसला किया कि क्योंकि जमीन भूमिधरी कानून के तहत आती है और एसडीएम/सहायक कलेक्टर से धारा 143 के तहत अनुमति नहीं ली गई थी इसलिए ये निर्माण अवैध है. जबकि याचिकाकर्ता का कहना था कि जमीन बैनामे में ली गई है इसलिए उसका अधिकार बनता है कि वो इस पर क्या करे. डीएम के फैसले के बाद ये जमीन वक्फ में भी नहीं जा सकती है. हाइ कोर्ट ने भी कहा क्योंकि जमीन भूमिधरी गैर हस्तांतरित कैटेगरी के अंतर्गत आती है इसलिए इसकी कस्टोडियन राज्य सरकार है इसलिए इसको वक्फ भी नहीं दिया जा सकता है.
क्या है धारा 143
उत्तर प्रदेश जमीदारी विनाश भूमि व्यवस्था अधिनियम की धारा 143 के अनुसार जमीन को आबादी वाली जमीन घोषित की जाती है. कलेक्टर सहायक कलेक्टर की जिम्मेदारी है कि स्वयं संज्ञान में लेकर हर साल जमीन की यथास्थिति को राजस्व अभिलेख में दर्ज करे. मसलन किसी जमीन पर कोई निर्माण हुआ हो तो खसरा में दर्ज करना रहता है. कोई जमीन अगर पांच साल से परती है तो बंजर घोषित करने का काम भी सहायक कलेक्टर का है. बंजर घोषित करने से पहले जमीन को दो साल नवीन परती फिर परती अभिलेख में दर्ज किया जाता है.
भू-राजस्व कानून के जानकारों के मुताबिक कलेक्टर या सहायक कलेक्टर राजस्व अभिलेख में हर साल जमीन की स्थिति के बारे में अपडेट करते रहते हैं. जिसके लिए भू-राजस्व अधिनियम के तहत लेखपाल हर साल खसरा बनाता है.
कलेक्टर के यहां हर साल ये रिपोर्ट जाती है कि जमीन पर क्या स्थिति है. ये काम जो सरकारी स्तर पर कलेक्टर की जिम्मेदारी है लेकिन इसे व्यक्तिगत तौर पर छोड़ दिया जाता है.
प्रार्थनापत्र आने पर ही सरकारी मशीनरी जागती है. आबादी की जमीन घोषित कराने में प्रार्थना पत्र वो लोग सौंपते है जिनको बैंक से कोई कर्ज लेना रहता है. इस कानून के सवाल पर ही पीड़ित पक्ष सुप्रीम कोर्ट जा रहा है. सुप्रीम कोर्ट के वकील फुज़ैल अहमद अय्यूबी का कहना है कि ‘धारा 143 भूमिधरी हस्तांतरण अधिकार की न्यायोचित व्याख्या नहीं की गई है. 1950 का जमींदारी उन्मूलन कानून स्वतः समाप्त है. उसकी जगह भू राजस्व अधिनियम है, जिसका संज्ञान को कोर्ट को लेना चाहिए था.’
अदालत के फैसले से क्या होगा असर
हाई कोर्ट के इस फैसले से भूमिधरी नॉन ट्रांसफरेबल जमीन पर बने सभी धार्मिक स्थल अवैध हो जाएगें. प्रशासन के सामने दुविधा है कि किस तरह से इस आदेश का पालन करें क्योंकि फैसले में साफ कहा गया है कि पहले भी इस तरह की घटनाओं को सही किया जाए.
अदालत ने कहा कि प्रशासन कानून-व्यवस्था के बहाने का सहारा नहीं लेगा. लेकिन प्रशासन अगर ऐसी जमीनों को खाली कराने मे लगा गया तो कानून-व्यवस्था का संकट हो सकता है क्योंकि ये आसान नहीं है कि मस्जिद-मंदिर को ढहाकर यथास्थिति बहाल किया जा सके.
यूपी में कैसे हो रहा है निर्माण
दरअसल यूपी में कृषि योग्य जमीन पर निर्माण को लेकर कोई खास कानून नहीं है. परिवार बढ़ने से लोग अपनी जमीन पर रहने के लिए मकान बना रहे हैं इसलिए इस तरह की जमीन पर धार्मिक स्थलों का भी निर्माण हो रहा है. सरकार के पास जानकारी रहती है कि आखिर किस जमीन पर क्या हो रहा है क्योंकि लेखपाल हर साल एक रिपोर्ट कलेक्टर को सौंपता है.
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लेकिन जब विवाद होता है तभी सरकार हस्तक्षेप करती है. सरकारी लापरवाही की वजह से कृषि योग्य जमीन कम हो रही है. भू-माफियाओं ने तालाब और गांव-कस्बों के नेचुरल ड्रेनेज सिस्टम को समाप्त कर दिया है. अदालत ने सभी तालाबों की यथास्थिति को भी बहाल करने का निर्देश दिया था लेकिन प्रशासन उसमें खानापूर्ति के अलावा कुछ नहीं कर पाई है. ग्राम सभा की जमीन पर दंबग लोगों का कब्जा गाहे-बगाहे ही हटता है. सरकार की तरफ से सामूहिक खलिहान और चारागाह की जमीन भी चकबंदी की दौरान दी गई है लेकिन सभी अवैध कब्जे के शिकार हैं.
तालाबों पर क्या था सुप्रीम कोर्ट का फैसला
2006 में सुप्रीम कोर्ट की दो सदस्यीय बेंच के जस्टिस एसबी सिन्हा और दलवीर भंडारी ने सरकारों को निर्देश दिया था कि सभी पुराने तालाबों झीलों की यथास्थिति बहाल की जाए. कोर्ट ने कहा था कि ये फंडामेंटल राइट है. संविधान की धारा 21 के तहत ये जीवन के अधिकार में है कि सभी वॉटर सिस्टम को संरक्षित की जाए. जिसके बाद केंद्र सरकार ने कई बार राज्य सरकारों से अमल करने के लिए कहा है. हालांकि कोर्ट ने अपने फैसले में तब की यूपीए सरकार की इस दिशा में उठाए गए कदम की सराहना की थी.
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं)
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