कृषि-संकट कोई अचानक आ धमका हो ऐसी बात नहीं. जैसा कि नीति आयोग के एक रिपोर्ट में कहा गया है, समस्या की शुरुआत 1991-92 से होती है- इससे पहले अर्थव्यवस्था के खेतिहर और गैर-खेतिहर क्षेत्र समान गति से बढ़ रहे थे. साल 1991-92 के बाद गैर-खेतिहर क्षेत्र ने ऊंची वृद्धि-दर की राह पकड़ी. यह आर्थिक उदारीकरण का दौर था. गैर-खेतिहर क्षेत्र की वृद्धि दर 8 फीसदी के पार पहुंच रही थी जबकि कृषि क्षेत्र में वृद्धि दर लंबे वक्त तक 2.8 फीसद की ही रफ्तार अख्तियार कर सकी.
उदारीकरण के कारण कृषि से जुड़े सामानों के व्यापार में खुलापन तो आया लेकिन इसके अतिरिक्त कुछ और खास ना हो सका. व्यापक रूप से देखें तो इसके लिए तीन मुख्य नीतिगत चुनौतियों की पहचान की जा सकती है- उत्पाद की वृद्धि में तेज गिरावट, कृषिक्षेत्र में सरकारी निवेश में लगातार कमी और उत्पादन, विपणन और एग्रो-प्रोसेसिंग को कारगर बनाकर एग्रो-फूड चेन की प्रतिस्पर्धात्मक क्षमता को सुधारने की जरूरत.
न सरकारी निवेश में बढ़ावा, न ही निजी निवेश का ठिकाना
निवेश में गिरावट इन तीन चुनौतियों में सबसे ज्यादा अहम है. साल 2000 की राष्ट्रीय कृषि नीति के साथ ऐसे कई नीतिगत उपाय हुए जो निवेश की स्थिति को बेहतर बना सकें, जोर खासकर निजी निवेश को बढ़ाने पर रहा लेकिन निवेश में कमी जारी रही. साल 2017 के एग्रीकल्चर स्टेटिस्टिक्स से पता चलता है कि 2011-12 से 2016-17 के बीच सरकारी निवेश 0.3 फीसद से 0.4 फीसद के बीच जारी रहा लेकिन निजी निवेश 2.7 फीसद से घटकर 1.8 प्रतिशत रह गया. निजी निवेश के घटने से कृषिक्षेत्र में होने वाले कुल निवेश पर असर पड़ा. कुल निवेश 2011-12 में जीडीपी का 3.1 प्रतिशत था जो 2016-17 में घटकर 2.2 प्रतिशत पर आ गया.
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निवेश की कमी से निपटने के लिए एक नीति यह अपनाई गई कि कृषि में कर्ज की आपूर्ति बढ़ा दी जाए. साल 2014-15 के आर्थिक सर्वेक्षण से पता चलता है कि नई सदी की शुरुआत के साथ ही कृषि क्षेत्र में कर्ज की मात्रा बढ़ी है. इस क्षेत्र में कर्ज की बढ़वार की सालाना दर 1981 से 1991 के बीच 8 प्रतिशत थी लेकिन 2001 से 2011 के बीच बढ़कर 17.8 फीसद सालाना हो गई. लेकिन इससे यह भी पता चलता है कि कृषि क्षेत्र में दिए जा रहे कर्जों में बड़े आकार के कर्जों की तादाद ज्यादा तेजी से बढ़ी है और इसपर ध्यान देने की जरूरत है.
रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया के आंकड़ों को आधार बनाकर किए गए अपने एक अध्ययन में टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज के प्रोफेसर आर रामकुमार ने दिखाया है कि 2 लाख रुपए से कम के प्रत्यक्ष कृषि ऋण की संख्या में बड़ी तेजी से कमी आई है. साल 1990 में ऐसे कर्जों की तादाद कुल कृषि-कर्ज में 86.2 प्रतिशत थी जो साल 2010 में घटकर 44.3 प्रतिशत रह गई. रिजर्व बैंक के आंकड़े 2017 के मार्च महीने तक के उपलब्ध हैं और इन नवीनतम आंकड़ों से पता चलता है कि दो लाख रुपए से कम रकम के कर्जों की संख्या घटकर 40.28 प्रतिशत हो गई है. इसका एक मतलब यह हुआ कि कृषिक्षेत्र में दिए जा रहे कर्जों का बड़ा हिस्सा धनी किसानों और एग्री-बिजनेस (कृषि-व्यवसाय) को मिल रहा है, ना कि छोटे और सीमांत किसानों को जबकि कृषि क्षेत्र में कर्जों के वितरण को उदार बनाने के पीछे मकसद छोटे और सीमांत किसानों के लिए ऋण सुलभ बनाना था.
किसानों के कर्जमाफी पर नाक-भौं क्यों सिकोड़ते हैं?
यों बात हमेशा किसानों को मिलने वाले कर्जे की उठाई जाती रही है लेकिन इसमें हमें तनिक सोच-विचार से काम लेना चाहिए. जब भी किसानों को मिले कर्ज माफ किए जाते हैं बैंककर्मी और अर्थशास्त्री नाक-भौं सिकोड़ते हैं, नाराजगी जताते हैं. नाराजगी तो इस मुद्दे पर आरबीआई के गवर्नर उर्जित पटेल ने भी जताई. उन्होंने आलोचना के स्वर में कहा (अप्रैल 2017) था कि खेती-किसानी के क्षेत्र में दिए गए कर्जों को माफ करने से 'ऋण संबंधी ईमानदार परिवेश नहीं बन पाता', 'दूसरों के लिए कर्ज लेना महंगा हो जाता है' और इससे राष्ट्र के 'बैलेंस शीट पर भी असर पड़ता है.' लेकिन बात जब कारपोरेट जगत को मिले कर्जों की आती है तो यही स्थिति एकदम उलट जाती है.
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कारपोरेट जगत को मिले कर्जे एनपीए में तब्दील होने के बाद डूबत की पूंजी मानकर माफ कर दिए जाते हैं. ऐसा आए दिन होता है और कारपोरेट जगत को दिए गए कर्जे कहीं ज्यादा बड़े परिमाण में डूबते हैं लेकिन किसी के मुंह से कोई कड़वा बोल नहीं निकलता. अगर उर्जित पटेल के नुक्ते से देखें तो अर्थव्यवस्था और ऋण संबंधी परिवेश के लिए कहीं ज्यादा जोखिम कारपोरेट जगत को दिए गए कर्जों से है. आइए, समझते हैं कि इसकी क्या वजह है-
रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया की 2017 की रिपोर्ट ऑपरेशंस एंड परफार्मेंस ऑफ कमर्शियल बैंक्स के मुताबिक, बैंकों के कुल एनपीए में कृषिक्षेत्र की हिस्सेदारी मात्र 8.3 प्रतिशत (या 60,200 करोड़ रुपए) ठहरती है, जबकि उद्योगों और बुनियादी ढांचे से जुड़े द्वितीयक क्षेत्र की एनपीए में हिस्सेदारी 76.7 फीसद (यानी 5,58,500 करोड़ रुपए) की है. यह आंकड़ा साल 2017 के मार्च तक का है. साल 2016 के मार्च तक की अवधि लें तो भी तस्वीर यही नजर आएगी- एनपीए में कृषिक्षेत्र की हिस्सेदारी महज 8.6 प्रतिशत (48,800 करोड़) थी जबकि उद्योगों और बुनियादी ढांचे सरीखे द्वितीयक क्षेत्र का एनपीए में हिस्सा 75.2 प्रतिशत (4,25,700 करोड़ रुपए) था. तो फिर, आप ही तय कीजिए कि बैंकर्स, नीति-निर्माता और अर्थशास्त्रियों को नाराजगी कारपोरेट जगत को दी जा रही कर्जमाफी पर जतानी चाहिए या फिर खेती-किसानी में हुई कर्जमाफी पर?
कृषि क्षेत्र में नीतिगत जोर इस बात पर भी रहा कि किसानों को फसल बीमा मुहैया कराई जाए ताकि प्राकृतिक आपदा से होने वाले नुकसान से उन्हें बचाया जा सके. प्राकृतिक आपदाएं भी कृषि-संकट की बड़ी वजह हैं. सेंटर फॉर साइंस एंड एन्वॉयर्नमेंट ने फ्लैगशिप प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना का आकलन किया है और उसके कई दोष गिनाए हैं, जैसे- लागत पूंजी (खेती में आए खर्च और लाभ को जोड़कर) की तुलना में बीमित राशि बहुत कम है; बीमा राशि का समय पर भुगतान ना होना और कम मात्रा में भुगतान किया जाना; राज्यों का प्रीमियम की राशि समय पर जारी ना करना; बंटाई और पट्टे पर खेती करने वालों को बीमा-योजना में ना के बराबर जगह मिलना आदि.
एक मसला और है. बीते दो साल यानी 2016-17 और 2017-18 में हासिल प्रीमियम और किसानों को मुआवजे के तौर पर दी गई बीमा राशि के बीच का अंतर 16,000 करोड़ रुपए है. यह बात केंद्रीय कृषि मंत्रालय में लगाई गई आरटीआई की एक अर्जी से पता चली है. किसानों को प्रीमियम की राशि का 1.5 प्रतिशत से 5 प्रतिशत तक भुगतान करना होता है जबकि शेष प्रीमियम राशि केंद्र और राज्य सरकार की ओर से वहन की जाती है. सवाल उठता है, क्या इस राशि का कृषिक्षेत्र में कोई और बेहतर उपयोग नहीं किया जा सकता था? यहां मामला तो साफ-साफ दिख रहा है कि राशि बीमा-कंपनियों (सभी निजी कंपनियां) को लाभ के तौर पर सीधे हाथ में थमा दी गई.
किसानों की आमदनी बढ़ाने के लिए कृषि उत्पाद में वृद्धि की जरूरत
किसानों की आमदनी बढ़ाने की नीतिगत पहल भी लचर साबित हुई. नीति आयोग ने कई मौकों पर कहा कि साल 2022 तक किसानों की आमदनी दोगुनी करने की सरकारी नीति को साकार कर पाना मुमकिन नहीं और किसानों की वास्तविक आमदनी 2011-12 से 2015-16 के बीच गिरावट पर है. आमदनी को दोगुना करने के लिए कृषि-उत्पाद में 33 फीसद की वृद्धि करनी होगी, साथ ही उनकी कीमत निर्धारित करने के मोर्चे पर काम करना होगा. यह बात नीति आयोग ने 2017 के एक नीति-पत्र में कही थी. किसानों को उनके उत्पाद पर ऊंची कीमत देने का एक तरीका न्यूनतम समर्थन मूल्य को बढ़ाने का रहा है लेकिन लागत में हुई वृद्धि की तुलना में बीते सालों में न्यूनतम समर्थन मूल्य में बराबरी की बढ़ोत्तरी नहीं हो पाई. और, इसी कारण स्वामीनाथन आयोग के फॉर्मूले को लागू करने की मांग लगातार बनी हुई है.
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ध्यान देने की एक बात यह भी है कि सरकारी स्तर पर कृषि-उपज का उपार्जन पर्याप्त मात्रा में नहीं हो सका और बाजार मूल्य न्यूनतम समर्थन मूल्य से नीचे बना रहा. यह स्थिति खरीफ और रबी दोनों ही मौसमों के बाद कायम रही, सो न्यूनतम समर्थन मूल्य में इजाफा एक मजाक बनकर रह गया. हाल की एक रिपोर्ट ( दरअसल पूरे साल ऐसी अनेक रिपोर्ट आई हैं) से पता चलता है कि खाद्यान्न, धान, तेलहन और कपास के मूल्य अक्तूबर महीने में 1700 मंडियों में बहुत नीचे चल रहे थे. इससे यह भी पता चलता है कि बाजार में सुधार लाने की कोशिशों के बावजूद किसानों को फसल का बेहतर मूल्य नहीं हासिल हो सका.
दूसरी तरफ, खेती-बाड़ी के काम में लागत बढ़ रही है. यूरिया फिलहाल सरकारी नियंत्रण में है सो इसे छोड़ दें तो अन्य किस्म के उर्वरक, बीज, कीटनाशक, खर-पतवारनाशक और डीजल की कीमतों में लगातार बढ़ोत्तरी हुई है और चूंकि उदारीकरण की प्रक्रिया के तहत इन चीजों को नियंत्रण से मुक्त कर दिया गया है सो सरकार कीमतों के निर्धारण के मोर्चे पर कुछ नहीं कर सकती. अगर बाजार या फिर सरकार ना तो खेती-बाड़ी की लागत में कमी ला पा रहे हैं और ना ही कृषि-उपज पर बेहतर मूल्य ही मुहैया करा पा रहे हैं तो फिर किसानों की आमदनी किस तरह बढ़ाई जा सकती है?
भूमि कानूनों में भी संशोधन की जरूरत
यह सवाल हमें एक और महत्वपूर्ण मसले की ओर लेकर आता है. यह मसला है-कृषि-जोत का. छोटे, सीमांत और भूमिहीन श्रेणी के किसानों की तादाद बहुत ज्यादा (एनएसएसओ के आंकड़ों के मुताबिक 92.82 प्रतिशत [26]) है- जोत का छोटा होना ना सिर्फ उत्पादकता के एतबार से बल्कि संस्थागत कर्ज, बीमा और अन्य सरकारी सहायताओं के लिहाज से भी बुरा कहा जाएगा. इस मुश्किल से निकलने के लिए नीति आयोग ने ‘मॉडल एग्रीकल्चर लैंड लीजिंग लॉ’ का प्रस्ताव किया है. यह प्रस्ताव राज्यों के लिए है और इसे डॉक्टर टी हक समिति की रिपोर्ट के आधार पर तैयार किया गया है.
इस मॉडल लॉ को लागू करने के लिए राज्यों को अपने भूमि-कानूनों में संशोधन करना पड़ेगा (क्योंकि भूमि राज्य केंद्रित विषय है). भू-स्वामित्व से जुड़े नियम-कायदे तो खैर विशेष रूप से राज्य के ही दायरे में आते हैं. लेकिन अभी तक यह मॉडल लॉ अमल के लिहाज से खास जड़ नहीं जमा सका है और इसका भविष्य भी कोई बहुत उज्ज्वल नजर नहीं आता क्योंकि जिस भी किसान के पास अधिशेष भूमि है वह शायद ही इसे लंबे समय के लिए किसी को पट्टे पर देने का जोखिम मोल लेना चाहेगा (जो कि अनिवार्य रूप से निवेश के लिए ही दिया जाना है ताकि भूमि की उत्पादकता बढ़ सके). आखिर इस बात की गारंटी कौन लेगा कि आगे चलकर जमीन का स्वामित्व फिर से किसान को लौटा दिया जाएगा?
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आजादी के बाद, पहले तीन दशकों में जमींदारी के खात्मे, भू-परिसीमन के लागू होने और भूमिहीनों के बीच परती जमीन के वितरण के बाद जो सबसे सार्थक भूमि-सुधार किया गया है उसे हम वनाधिकार कानून (2006) के नाम से जानते हैं. इसके अंतर्गत वनभूमि तथा वन-संसाधनों पर आदिवासी जन और अन्य वनवासियों को अधिकार दिया गया है. अन्य वनवासियों के अंतर्गत वैसे लोग शामिल हैं जो पीढ़ियों से इन जंगलों में रहते आ रहे हैं लेकिन जंगल की जमीन और संसाधन पर उनके अधिकारों को आधिकारिक मान्यता हासिल नहीं हो पाई थी.
वनाधिकार कानून को दो सालों (2008) में लागू हो जाना था लेकिन आदिवासी मामलों के मंत्रालय की नवीनतम सूचना के मुताबिक, 31 अगस्त 2018 तक सिर्फ 44.6 फीसद ही दावों का निपटारा हुआ था और भू-पट्टों पर मिल्कियत सौंपी गई थी. अब यहां इस बात को छोड़ ही दें कि आदिवासी जनता के बीच अपने भू-स्वामित्व (खासकर सामुदायिक वनाधिकार) को लेकर जागरूकता की कमी है, राज्य सरकारें और उनके वन विभाग ईमानदारी से इस कानून को क्रियान्वित करने की दिशा में काम नहीं कर रहे और इन वजहों से भी बहुत नुकसान हुआ है.
निष्कर्ष के रूप में कहें तो ऊपर जिन बातों का जिक्र किया गया है उसे विस्तृत और ब्यौरेवार तो नहीं कहा जा सकता लेकिन यह एक बड़ी तस्वीर का खाका तैयार करने की कोशिश जरूर है- ऐसा खाका जिसके सहारे कृषि-संकट को समझा जा सके और कृषि-संकट को दूर करने के मकसद से जो नीतिगत कदम उठाए गए हैं उनकी कमियों पर गौर किया जा सके. यह बात स्पष्ट है कि रियायत, आधे-अधूरे मन के उपाय या फिर सियासी चालबाजी के सहारे कृषि-संकट का समाधान नहीं किया जा सकता. जरूरत एक व्यापक फलक पर उपाय सोचने और इस सोच को साकार करने के लिए नीति, योजना और रणनीति अमल में लाने की है.
इसके लिए कृषि-संबंधी मौजूदा इंतजामात को नए सिरे से खंगालना होगा क्योंकि ये इंतजामात कृषि पर आधारित भारत के 50 फीसद कार्यबल और एक तिहाई से ज्यादा आबादी की जरूरतों का ध्यान रखने में बुरी तरह नाकाम साबित हुए हैं. जबतक ऐसा नहीं होता किसान, भूमिहीन तथा आदिवासी जनसत्ता के ठिकानों पर विरोध-प्रदर्शन करने आते रहेंगे क्योंकि उनके पास इसके सिवाय और कोई रास्ता नहीं है.
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