ट्रिपल तलाक का कानून संसद में अटक गया है, जिसके खिलाफ मुस्लिम संगठन खड़े हुए हैं. इसके अलावा राजनीतिक दलों को कानून के कुछ हिस्सों पर एतराज है. विरोधियों का मत है कि इसको अपराध की श्रेणी से बाहर लाना चाहिए. हालांकि ये मामला अभी लंबित है. इस बीच सुप्रीम कोर्ट ने दूसरे मुद्दे पर सरकार को नोटिस थमा दिया है.
निकाह मुतह और मिसयार के खिलाफ कोर्ट में याचिका दी गई थी, जिसको अदालत ने मंजूर कर लिया है. इस मामले में पर्सनल लॉ बोर्ड को भी पक्षकार बनाया गया है. याचिका में कहा गया है कि कोर्ट निकाह मुतह, निकाह मिसयार और निकाह हलाला के अलावा बहुविवाह पर पाबंदी लगाए. हालांकि इसका विरोध मुस्लिम पक्ष की तरफ से शुरू कर दिया गया है. उनका कहना है कि अदालत को इस याचिका को नहीं सुनना चाहिए था, जबकि याचिकाकर्ता की तरफ से कहा गया है कि शायरा बानो बनाम यूनियन ऑफ इंडिया के केस में इस पक्ष पर ध्यान नही दिया गया है.
याचिकाकर्ता की तरफ से कहा गया है कि ट्रिपल तलाक का फैसला देने वाले संविधान पीठ ने इस मसले पर गौर नहीं किया है, जिसको अदालत ने मान लिया है. हालांकि इस पर एतराज है.
सुप्रीम कोर्ट के वकील फुजैल अहमद का कहना है कि 'हैरानी की बात है कि अभी ट्रिपल तलाक का मामला शांत नहीं हुआ है और इस तरह का मामला फिर से उठा दिया गया है, जबकि शायरा बानो केस के बेंच ने इन मुद्दों को दरकिनार कर दिया था. अगर आंकड़ों की बात करें तो तलाक के 68 फीसदी मामले गैर मुस्लिमों के चल रहे हैं. वहीं मुस्लिमों के बीच तलाक के मामले सिर्फ 23 फीसदी हैं. इसलिए ऐसी जल्दबाजी की क्या जरूरत है, ये समझ से परे है.’
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हालांकि मुस्लिम संगठन इसका अदालत में विरोध करने की तैयारी कर रहे हैं. मुस्लिम पक्षों का कहना है कि मुतह और मिसयार का तरीका ना के बराबर है.
क्या है निकाह मुतह?
इस्लाम में शादी एक कान्ट्रैक्ट की तरह है, जिसकी कोई मियाद नहीं है. लेकिन मुतह में शादी के लिए वक्त पहले तय कर दिया जाता है. जो 3 महीने से लेकर एक या दो साल तक हो सकता है. लेकिन अगर ये ज्यादा लंबा वक्त तक चलता है तो स्वाभाविक तरीके से परमानेंट विवाह में तब्दील हो जाता है. इस तरह का निकाह हिंदुस्तान में नहीं होता है. हालांकि शरीयत के मुताबिक, मुतह करने के लिए महिला का अविवाहित होना शर्त है. लेकिन अगर महिला की उम्र काफी कम है तो अभिभावक की इजाजत लेने की जरूरत पड़ती है.
मुतह के लिए ये पांबदी नहीं है कि मुस्लिम लड़की हो, बल्कि ईसाई, यहूदी और मजूसी (पारसी) धर्म की महिलाओं से मुतह हो सकता है. ये शादी सिर्फ शिया इस्लाम के मानने वालों में प्रचलित है, जो 12 इमामों को मानते हैं. दाउदी बोहरा मे इसकी पांबदी है. सुन्नी मसलक के मानने वालों के यहां इसकी मनाही है.
मौलाना अशरफ इमाम ज़ैदी मुंबई मलाड के इमामे जुमा हैं. उनका कहना है कि 'हिंदुस्तान में इस तरह की शादी का प्रचलन नहीं है. लेकिन इस्लाम में इसकी इजाजत है. ये लिव इन रिलेशनशिप से ज्यादा मान्य है क्योंकि इसको धार्मिक और शरीयत कानून के तहत मान्यता मिली है. इसमें मेहर की रकम भी तय की जाती है. शादी के दौरान अगर बच्चा होता है तो उसके भरण-पोषण की जिम्मेदारी बाप की है. बच्चे को बाप की जायदाद में हिस्सा भी बराबर मिलता है, जिसके लिए कुछ शरायत है. शादी का मुद्दत खत्म होने के बाद महिला को तीन महीने की इद्दत में रहना होता है, ताकि ये पता चल सके कि कोई महिला गर्भवती तो नहीं है.'
निकाह मिसयार
इस तरह का निकाह कुछ हद तक मुतह की तरह है लेकिन ये सिर्फ सुन्नी मुस्लिम के बीच होता है. भारत में इस तरह की शादी नहीं होती है. हालांकि हैदराबाद में आरोप है कि अरबी शेख इस निकाह का फायदा उठाते हैं. सलफी मसलक ने भी इस तरह के विवाह को मान्यता दी है. इसमें दोनों पक्षों की सहमति की जरूरत होती है. इस तरह की शादी में मेहर का प्रावधान है लेकिन वक्त तय नहीं है. इस तरह की शादी में लड़की की तरफ से कोई भी शर्त रखी जा सकती है. लेकिन इस दौरान महिला अगर चाहे तो शादी को परमानेंट करा सकती है. ऐसी सूरत में पति उसको तलाक भी नहीं दे सकता है.
हालांकि कुछ इस्लामिक विद्वान इसके खिलाफ हैं. अल अलबानी के मुताबिक, ये शरीयत के हिसाब से सही है लेकिन नैतिकता के लिहाज से गलत है. उनका कहना है कि अगर कोई बच्चा होता है तो वो बिना बाप के साये में बड़ा होता है, जिससे उस पर गलत असर होता है. अल अलबानी के मुताबिक ये ज़िना की तरह है क्योंकि ये इस्लाम के सिद्धांतों के खिलाफ है.
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निकाह हलाला
सुप्रीम कोर्ट के त्वरित तीन तलाक की पांबदी के बाद निकाह हलाला की घटनाएं कम होंगी. लेकिन निकाह हलाला को समझना जरूरी है. अगर कोई पुरुष तीन सिटिंग में पत्नी को तलाक देता है तो तलाक मान लिया जाता है. लेकिन फिर पूर्व पत्नी से दोबारा शादी करना चाहता है तो निकाह हलाला की प्रकिया से गुजरना होगा. ये मुसलमानों के सभी मसलकों में माना जाता है, इस्लामिक कानून के जानकारों की राय है कि ये इसलिए है कि समाज में तलाक जैसी बीमारी ना फैलने पाए. पुरुष महिला को तलाक देने से पहले सोचे समझे. निकाह हलाला एक सबक के तौर पर देखा जाना चाहिए. हालांकि सवाल ये उठता है कि सिर्फ महिला को ही इस तरह के कष्ट से क्यों गुजरना पड़ता है? पुरूष को सजा के तौर पर क्या मिल रहा है?
बहुविवाह
इस्लाम के मानने वालों में चार शादी की इजाजत दी गई है. लेकिन इसके लिए कुछ शर्ते हैं, जिनमें पहली पत्नी की इजाजत का होना जरूरी है. इतना ही नहीं ये भी शर्त है कि सभी पत्नियों को बराबर समय और आर्थिक मदद दी जाए. सभी के बच्चों को बराबर की परवरिश मिलनी चाहिए. हालांकि इस कानून का उल्लंघन होने से इनकार नहीं किया जा सकता है. कई पुरुष पहली पत्नियों पर दबाव बनाकर इजाजत ले लेते हैं. वहीं बराबर का हक देने में गुरेज करते हैं, जिसकी वजह से परिवार में कलह हो जाती है.
हालांकि ये कहना मुनासिब नहीं है कि मुस्लिमों में बहुविवाह का प्रचलन है. लेकिन गाहे-बगाहे इस शरीयत कानून की आड़ में लोग एक से ज्यादा शादी कर लेतें हैं. हालांकि शरीयत के जानकारों का कहना है कि इस तरह के विवाह की वजह पहले युद्ध थे, जिसमें पुरुष अक्सर मारे जाते थे तो महिलाओं के भरण-पोषण के लिए ये तरीका निकाला गया था.
क्या है मुस्लिम जमातों की राय?
सुप्रीम कोर्ट के इस याचिका को मंजूर कर लेने से नए विवाद ने जन्म ले लिया है. जमाते इस्लामी हिंद के लोगों का कहना है कि सरकार की हिमायत से इस तरह के मुद्दे लाए जा रहे हैं, जबकि मुसलमानों के लिए असल मुद्दा पढ़ाई और रोजगार है, जिस पर बात नहीं हो रही है. पिछले कई साल से सिर्फ मुसलमानों के निकाह, तलाक और शादी पर चर्चा हो रही है.
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वहीं शिया जमात से ताल्लुक रखने वाले मौलाना अशरफ इमाम ज़ैदी का कहना है कोर्ट को मान लेना चाहिए कि मुतह जैसे मसले पर इस्लाम का नजरिया आधुनिक सोच वाला है. जब कोर्ट ने 2015 में लिव इन रिलेशनशिप को सही माना था, तो इस पर सवाल कैसे खड़ा हो सकता है? जबकि लिव इन रिलेशनशिप में रहने वाली महिला को कोई अधिकार भी नहीं मिला है. हालांकि अब ये मसला कोर्ट की निगरानी में है. सभी पक्षों को अपना जवाब कोर्ट को देना है, जिसके बाद कोर्ट किसी नतीजे पर पहुंचेगा.
लिव इन रिलेशनशिप पर सुप्रीम कोर्ट ने क्या कहा है?
जुलाई 2015 में सुप्रीम कोर्ट ने अपराधिक मानहानि को खत्म करने के मुकदमे की सुनवाई के दौरान ये माना कि लिव इन रिलेशनशिप को समाज में मान्यता मिल रही है. जस्टिस दीपक मिश्रा और प्रफुल्ल सी पंत की बेंच ने कहा कि ‘आधुनिक समाज में और इस समय लिव इन रिलेशनशिप को लोग मान रहें है. ये कोई अपराध नहीं है.'
इस तरह मई 2010 में चीफ जस्टिस के जी बालाकृष्णनन, जस्टिस दीपक वर्मा और जस्टिस बी एस चौहान की बेंच ने कहा कि बिना शादी के दो बालिग लोग अगर साथ रहना चाहते हैं तो इसमें क्या अपराध है? साथ-साथ रहना जीवन के अधिकारों मे से एक है. ये बात सुप्रीम कोर्ट ने साउथ की एक्टर खुशबू की याचिका सुनावई के दौरान कही थी. खुशबू ने शादी से पहले सेक्स की वकालत की थी, जिसके बाद उनके खिलाफ मानहानि के कई केस कर दिए गए थे. 2005 के खुशबू के इस बयान के बाद काफी बवाल हुआ था.
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