जिन मांगों को लेकर अखिल भारतीय किसान सभा की अगुवाई में मार्च निकाला गया, उसे महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेंद्र फड़नवीस द्वारा मान लिए जाने के साथ ही इस आंदोलन पर से परदा गिर गया है. इस आंदोलन को लेकर हमने बहुत कुछ महसूस किया, लेकिन इससे काफी कम सीखा. दुर्लभ मौकों पर ही इस तरह का ऐसा विरोध-प्रदर्शन होता है, जिसमें अंतःकरण की परीक्षा होती है. आमतौर पर हर पांच साल पर बदलने वालीं सरकारें ऐसे वाकयों को गंभीरता से नहीं लेती हैं.
बहरहाल, अपने चुने हुए प्रतिनिधियों को अपनी मांग सुनाने के लिए तकरीबन 200 किलोमीटर पैदल चलकर 40,000 किसानों के मार्च की तस्वीर अमिट बन चुकी है और इसका असर इस कदर है कि इस मामले से उदासीन रहने वाला शख्स भी इसे नजरअंदाज करने लायक नहीं मान पाया.
ये किसान भले ही कमजोर दिख रहे थे, लेकिन इनके संघर्ष की गरिमा इस कदर थी कि बेहद ताकतवर लोगों के लिए इसे दोहराना नामुमकिन होता. कुछ दिनों पहले बाथटब में डूबकर हुई मौत के रहस्य का मामला जोरशोर से दिखाने में जुटे मुख्य धारा के प्रिंट और टेलीविजन मीडिया ने शायद भले ही इस मामले में बगलें झांकना पसंद किया हो, लेकिन इसे भुलाने की मीडिया की हरकत नाकाम रही. इसके बजाय इसके जरिये मीडिया ने खुद और उनके बारे में नमूना पेश किया, जो इसे नजरअंदाज करना चाहते हैं.
आंदोलन राजनीतिक था?
मौके पर से गायब रहने वाले और ठंडे पड़े सिविल सोसायटी की इसको लेकर प्रतिक्रिया विरोधाभासी रही और यह दो तह में थी. कुछ हलकों में कहा गया कि सीपीएम की एक इकाई की अगुवाई में आंदोलन होने के कारण इसने (आंदोलन) नैतिक रूप से आत्मसमर्पण कर दिया, जो वाजिब भी था.
किसानों की शिकायतें उचित थीं, लेकिन टीकाकारों ने सवाल किया कि उन्होंने लाल 'झंडा' क्यों उठाया हुआ था, जो 'तानाशाह' लेनिन की नुमाइंदगी करता है? गौरतलब है कि हाल में भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) के कार्यकर्ताओं ने त्रिपुरा में लेनिन की मूर्ति को गिरा दिया.
कुछ लोगों की मानें तो ऐसा करते हुए किसानों ने इस आंदोलन का 'राजनीतिकरण' कर दिया और ऐसे राजनीतिक संगठन से आह्वान किया, जिसकी लोकतांत्रिक भारत में कोई जगह नहीं है. यह दलील बेहद अहम है, इस बात को थोड़ा से अलग तरीके से बयां करने की जरूरत है- अखिल भारतीय किसान सभा का किसान आंदोलन का उतार-चढ़ाव भरा इतिहास रहा है, जो बाद में भारतीय राष्ट्रवादी राजनीति में साम्यवाद के उभार से इसमें घुलमिल गया.
यह कहना कि एक राजनीतिक पार्टी से इसका जुड़ाव होने के कारण यह आंदोलन राजनीतिक हो जाता है, राजनीति को बेहद संकुचित ढांचे में देखने जैसा है. मामला किसी पार्टी से जुड़े होने का हो या कुछ अन्य, यह मार्च एक राजनीतिक आंदोलन है, जिसका तौर-तरीका और मांगें राजनीतिक और विशुद्ध चुनावी मकसद से परे हैं.
किसानों का दर्द
दूसरी प्रतिक्रिया ज्यादा सहानुभूतिपूर्ण थी. मसलन प्रदर्शनकारी किसानों, उनके थके हुए शरीरों, कठोर हाथों, कटे-छिले पैरों और पसीने वाली गर्मी में उनके टिके रहने की बेशुमार तस्वीरों में 'दुख से लैस रोमांच' का अहसास करना. इन तौर-तरीकों के जरिये इस आंदोलन के बारे में मध्य वर्ग, प्रगतिशील संगठनों को समझा दिया गया और लोगों की तरफ से इसे तेजी से 'ग्रहण' किया गया. आंदोलन के अंतःकरण की परीक्षा बनने के साथ ही संलिप्तता के सवाल उठाए गए और इससे जुड़ी तमाम तस्वीरों के साथ सिविल सोसायटी ने आंदोलन को उदास और परेशान करने वाली खूबसूरती दी और किसानों की शिकायत को तैयार करने में अपनी राजनीतिक असहजता को कम किया. जाहिर तौर पर इस तरह का ढांचा या सिस्टम मुश्किलों को जड़ बनाता है, बयानबाजी के साथ जुड़ता है और इसके समाधान की पड़ताल करता है.
यह मार्च निश्चित तौर पर किसानों का आंदोलन था, लेकिन 'किसान' सिर्फ शहरी अहंकार के चश्मे से अखंडित समूह है. इस आंदोलन में जमीनधारकों के कर्ज माफ करने की मांग की गई, लेकिन यह विरोध-प्रदर्शन मुख्य तौर पर आदिवासियों और भूमिहीन लोगों का था, जो गंभीर कृषि संकट के मद्देनजर वन अधिकार कानून (2006) के अमल की मांग कर रहे थे. अगर ये मांगें लागू हो जाती हैं, तो इससे कानूनी और प्रभावकारी ढंग से जंगल समेत 'सांप्रदायिक' जमीन देश के दूर-दराज के इलाकों में मौजूद सबसे गरीब वर्गों को मिल सकेंगी. इस वर्ग का ऐतिहासिक तौर पर कर्ज से जुड़े किसी संस्थान या अन्य तंत्र से कोई संपर्क नहीं रहा है.
यह एक खास मांग है. हालांकि, इस मांग के सूत्रधारों के मुताबिक, इसके पूरा होने से कृषि संकट के व्यापक ट्रेंड के ठीक होने की संभावना है, जो खास तौर पर पिछले दशक में घातक लहर की तरह फैला है.
इस ट्रेंड का मतलब उचित कीमत को लेकर गलत नीतियां, अकाल और सूखे की समस्या और सामाजिक सरोकार और कल्याण के क्षेत्र से सरकार के तेजी से कदम खींचने के मद्देनजर मौजूदा भारत के सबसे कमजोर तबके की बदतर होती हालत है. हो सकता है कि 'किसान' एक अखंड सामाजिक समूह नहीं हो, लेकिन भारत में कृषि संकट के व्यापक असर और मायने हैं.
विकास मतलब कृषि में गिरावट!
इस संकट के केंद्र में नवउदारवादी आर्थिक सुधार की नीतियां हैं. भारत ने इन नीतियों को विकास के चमत्कार की किस्से-कहानियों के साथ शुरू किया. कृषि के संदर्भ में 'सुधार' का मतलब ग्रामीण इनकम में गिरावट के रूप में हुई, क्योंकि व्यापार के 'संतुलन' को पूरा करने के मकसद से उत्पादन मुख्य निर्यात को ध्यान में रखकर किया गया. यह संतुलन ऐतिहासिक तौर पर हिंसात्मक जैसा ही आड़ा-तिरछा है.
किसानों के संसाधनों की कॉरपोरेट लूट, मार्च के प्रतिरोध का आधार और किसानों की जमीन को कॉरपोरेट खेती के लिए इजाजत दिया जाना ऐसी वास्तविकताएं हैं, जिससे इस आंदोलन की जमीन तैयार हुई. इसे दुख और उदासी के सूत्रवाक्य के जरिये दबाया नहीं जा सकता है. दुख राजनीतिक है, लिहाजा आंदोलन को भी ऐसा ही करार दिया जा सकता है, क्योंकि यह भारत के विकास की हालत और समग्रता को लेकर सवाल खड़े करता है.
आंदोलन को दुख के आवरण में ढंकने का मतलब इसके आक्रोश और उन कई मौलिक सवालों को नजरअंदाज करना है, जो यह हमसे और भारतीय गणराज्य से पूछता है. इस क्रांति का प्रसारण नहीं किया जाएगा, लेकिन इससे जुड़े सवाल पूछना बेहतर है. खासतौर पर ऐसी स्थिति में जब आंदोलन खत्म हो गया है और इसे भूल जाने की तैयारी है, क्या इसे समझा जाएगा?
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