2019 के लोकसभा चुनाव में अब 6 महीने से भी कम का समय बचा है. इस बीच हाल में ही हुए विधानसभा चुनावों के नतीजों ने सभी राजनीतिक पार्टियों को सतर्क कर दिया है. एक तरफ जहां बीजेपी तीन बड़े राज्यों मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में हार की वजह से रक्षात्मक मुद्रा में आ गई है. वहीं कांग्रेस इन तीनों राज्यों में बंपर जीत के साथ चार्ज हो गई है.
विधानसभा चुनावों में कांग्रेस ने अपने चुनावी घोषणा पत्र में किसानों के कर्ज माफी की घोषणा की थी. और मध्यप्रदेश में राज्य के मुख्यमंत्री कमलनाथ ने शपथ ग्रहण के बाद सबसे पहला काम किसानों की कर्ज माफी का ही किया. मध्यप्रदेश सरकार ने दो लाख रुपए तक के कर्ज वाले 34 लाख किसानों के कर्ज माफी की घोषणा तत्काल कर दी.
किसानों के कर्ज माफी की घोषणा कर अपना वोट बैंक बढ़ाने की नींव फरवरी 2017 में उत्तर प्रदेश चुनावों से पहले प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा किसानों को ऋण राहत के वादे के साथ पड़ी थी. उसके बाद महाराष्ट्र सरकार ने इस प्रथा को आगे बढ़ाया और पिछले साल जून में किसानों के विरोध के आगे हथियार डालते हुए कर्ज माफी की घोषणा की.
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पिछले साल अप्रैल से अब तक आठ राज्य सरकारों ने 1.9 ट्रिलियन रुपए की कृषि ऋण छूट दी है. पिछले साल उत्तरप्रदेश और महाराष्ट्र सरकार ने 70 हजार करोड़ से ज्यादा की कर्ज माफी की घोषणा की थी. इनके देखादेखी पंजाब, कर्नाटक और राजस्थान सरकार ने भी किसानों को लुभाने के लिए ताबड़तोड़ कर्ज माफी की घोषणाएं कर डालीं.
लेकिन कर्ज माफी की इन घोषणाओं के पीछे की सच्चाई हैरान करने वाली है. टाइम्स ऑफ इंडिया की एक रिपोर्ट के मुताबिक कर्ज माफी किसानों के लिए खुशखबरी नहीं बल्कि दुख की खबर होती है. और मजे की बात ये कि सिर्फ किसानों के लिए ही नहीं बल्कि ये बैंकों के लिए भी एक बड़ा सिरदर्द साबित होती हैं. क्योंकि कर्ज माफी की घोषणा होते ही किसान बैंक के पैसे लौटाना बंद कर देते हैं, जिससे बैंकों की अर्थव्यव्स्था पर बोझ बढ़ जाता है.
नतीजतन बैंक नए ऋण जारी करने में देरी करने लगते हैं और राज्य सरकारों द्वारा पैसे मिलने का इंतजार करते हैं. इस प्रक्रिया में सालों लग जाते हैं. इसका नतीजा ये होता है कि किसान जमींदारों और साहूकारों के चंगुल में फंस जाते हैं.
अगर ताजा मौजूद आंकड़ों की बात करें तो पिछले तीन साल (2014-15 और जून 2018 तक) में अकेले मध्यप्रदेश में ही खेती से जुड़े एनपीए दोगुने होकर 10.6 प्रतिशत हो गए हैं. जून 2018 को खत्म हुए साल में ही राज्य के कृषि लोन का एनपीए 24 प्रतिशत हो गया. मार्च 2018 के अंत तक ये एनपीए 5.1 प्रतिशत था.
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लेकिन इसमें लोन चुकता न करना सिर्फ एक पहलू है. अमूमन सरकारें माफ की गई कर्ज की रकम को बैंक को चुकाने में लंबा समय ले लेती है. इस कारण बैंक तबतक नए कर्ज देने में आना कानी करने लगते हैं जबतक की राज्य सरकार से उन्हें पैसे न मिल जाएं.
इसका एक उदाहरण तमिलनाडु है जिसने 2016 में 3,169 करोड़ रुपए की कर्ज माफी की घोषणा की थी. लेकिन इस रकम को वो पांच सालों में बैंकों को पूरा देगी. इससे बैंक भी सतर्क हो जाते हैं. इसी तरह कर्नाटक में मार्च और जून 2018 के अंत तक बैंकों के 5,353 करोड़ रुपए किसानों की कर्ज माफी के कारण फंसे हुए हैं, और उन्हें ये भी नहीं पता कि राज्य सरकार इन पैसों को कबतक चुकता करेगी. राज्य सरकारों की इस देरी का खामियाजा सीधे सीधे किसानों को भुगतना पड़ता है जिससे वो अनजान हैं.
यही कारण के आरबीआई के पूर्व गवर्नर रघुराम राजन सहित कई अर्थशास्त्रियों ने किसानों की कर्ज माफी को एक बुरा कदम बताया है और चुनाव आयोग से इस तरह के चुनावी वादों पर रोक लगाने की गुजारिश भी की है.
इस तरह से अगर देखें तो किसानों की कर्ज माफी का मुद्दा राजनीतिक पार्टियों के लिए तो वोट बैंक है लेकिन खुद किसानों के भविष्य के लिए खतरे की घंटी है. लोकलुभावन नारों के फेर में किसान को दोहरी मार पड़ती है.
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