इराक में बंधक बनाए गए 40 मजदूरों में से 39 की मौत के बारे में विदेश मंत्री सुषमा स्वराज की ओर से हाल में ऐलान के बाद उन्हें चौतरफा आलोचना का सामना करना पड़ रहा है. निर्माण के काम में लगे इन मजदूरों को ISIS ने जून 2014 में मोसुल से अगवा कर लिया था. बंधक बनाए गए 40वें शख्स हरजीत मसीह की कहानी के आधार पर भी विदेश मंत्री की आलोचना हो रही है, जो 2014 में किसी तरह भारत लौट आए थे.
मसीह लगातार दावा करते रहे हैं कि वह निकल भागे और बाकी 39 लोगों की हत्या कर दी गई. सवाल यह है कि विदेश मंत्रालय ने एक बार भी इस शख्स की बात पर यकीन क्यों नहीं किया? साथ ही, इसके बाद की घटनाओं ने पूरे मामले को और संदेहास्पद बना दिया है.
मसीह पकड़े जाने के एक महीने के बाद भारत लौटे और उन्होंने दावा किया कि सभी 39 लोगों को उत्तरी इराक में मौजूद गांव बादूश के पास रेगिस्तान में गोली मार दी गई. स्वराज ने मंगलवार को राज्यसभा में अपने बयान में कहा, 'मसीह मुझे यह बताने को इच्छुक नहीं थे कि वह किस तरह से निकल भागे.' विदेश मंत्री का यह भी कहना था कि उनके पास इस बात के ठोस सबूत थे कि मसीह ने झूठ बोला था. उन्होंने सदन को बताया, 'मसीह फर्जी नाम अली का इस्तेमाल कर एक केटरर की मदद से बांग्लादेशियों के साथ निकल भागे. इस बारे में जानकारी मसीह के नियोक्ता और उस केटरर ने दी, जिसने उनकी मदद की.'
इसके अतिरिक्त यहां मामला कुछ इस तरह हैः मसीह ने बार-बार कहा है कि उन्होंने वहां से निकल भागने के लिए अली नामक बांग्लादेशी होने का स्वांग रचा. इस दावे में अंतर सिर्फ इतना है कि मसीह के मुताबिक उन्होंने यह काम बाकी भारतीयों की सामूहिक हत्या के बाद किया. लिहाजा, स्वराज किस झूठ के बारे में आरोप लगा रही हैं?
फायदे की खातिर स्वराज ने झूठ बोला?
हालांकि, यहां फिर से यह बात आती है कि इन भारतीयों की मौत के बारे में झूठ बोलने से स्वराज को क्या फायदा होगा. मसीह की कहानी को सबसे पहले फाउंटेन इंक नामक वेबसाइट ने विस्तार से छापा था. इसके मुताबिक, वह पूरी तरह से जमीन पर गोता लगाते हुए फिल्मी स्टाइल में भागे थे, जब उन्हें और बाकी 39 भारतीयों को पीछे से गोली मारने के लिए खड़ा किया गया था. वह ISIS के चंगुल से भागने की अपनी कहानी पर लगातार कायम हैं और मंगलवार के खुलासे के मद्देनजर उन्होंने इसे दोहराया भी.
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इस संवाददाता ने उनसे 2015 में बात की थी और 2016 में 'द क्विंट' ने इस बारे में खबर छापी थी. इस बातचीत में मसीह ने बताया था कि वह लेट गए और उनके ऊपरी हिस्से पर एक शख्स का शरीर मौजूद था. इस वजह से वह गोली से बच गए. साथ ही, वह कुछ समय के लिए एकदम स्थिर हो गए और इस दौरान क्या हुआ, उन्हें बिल्कुल याद नहीं है. उनके मुताबिक, मुमकिन है कि वह घंटों तक इसी हालत में रहे हों. वह हरकत करने को लेकर काफी डरे हुए थे. आखिरकार जब वह खड़े हुए, तो ISIS के लड़ाके वहां से जा चुके थे और वह अपने साथी मजदूरों के शवों से घिरे थे. उनका यह भी कहना था कि उन्हें पक्का पता था कि वे लोग मर चुके हैं. इसके बावजूद उन्होंने इसकी तस्दीक की. एक शख्स जो हत्या के इस खतरनाक खेल से किसी तरह बच निकला हो, उस पर तमाम तरह की प्रतिक्रियाएं आना और अटकलों का बाजार गर्म होना भी स्वाभाविक है.
बहरहाल, उसके बाद उनकी यात्रा में कई मोड़ आए आखिरकार वह इरबिल पहुंचे. इराकी सेना के चेक प्वाइंट से निकल भागने के बाद वह वहां पहुंचे, जहां उन्हें और उनके साथ मौजूद बांग्लादेशी मजदूरों (जिनके साथ वह आखिरकार भागे) को रोक दिया गया था.
इस शख्स के दावों के मुताबिक, बाकी लोगों को गोली मारे जाने के बाद भी ISIS से दो बार और सामना हुआ, लेकिन उन्होंने खुद को अली बताते हुए किसी तरह से उनसे पल्ला छुड़ा लिया. आखिराकर इरिबल में एक सप्ताह गुजारने के बाद भारत सरकार के अधिकारियों ने उन्हें वापस भारत बुला लिया.
बच निकलकर वापस लौटने वाले 40वें शख्स को एक साल तक क्यों रखा गया कस्टडी में?
यहीं पर संदेह और गहरा हो जाता है. भारतीय अधिकारियों ने मसीह को तकरीबन एक साल 'सुरक्षित कस्टडी' में रखा. इस दौरान इस शख्स को बेंगलुरु, गुड़गांव और नोएडा में रखा गया. इसके बाद वह पंजाब के गुरदासपुर के पास अपने गांव काला अफगाना में अपने परिवार के पास लौटे. सवाल यह है कि ऐसा शख्स जो युद्ध के इलाके से निकलकर भागा हो, उसे इतनी लंबी कस्टडी में क्यों रखा गया? मसीह के मुताबिक, कस्टडी के दौरान सरकारी 'एजेंसी' के अधिकारी उनसे हत्याओं की कहानी नहीं बताने को कहते थे.
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अब यहां सवाल यह है कि अगर मसीह झूठ बोल रहे थे, उन्हें इससे क्या लाभ होगा? और जैसा कि सुषमा स्वराज दावा कर रही हैं, अगर वह बाकी बंधकों की हत्या किए जाने से पहले निकल भागे तो उन्हें किस तरह से यह पक्का पता था कि बाकी को बादूश में गोली मारी जानी है? भारत सरकार के मुताबिक, इस जगह पर सामूहिक कब्र में शव पाए गए और इन शवों को डीएनए जांच के लिए भेजा गया.
परिवार वालों को मिला झूठा आश्वासन
स्वराज का दावा है कि उन्होंने बंधक बनाए गए लोगों के परिवारों को झूठी उम्मीद नहीं जगाई. हालांकि, 2014 के बाद से उन्होंने कई बार इन लोगों के परिवारों से मुलाकात की और परिजनों का कहना है कि उन्हें बताया गया कि अगवा किए गए उनके रिश्तेदार जिंदा और सकुशल हैं.
ऐसे तीन परिवारों के साथ इंटरव्यू करना मेरे के लिए बेहद मुश्किल काम था. मुझे खुद अपने इस विश्वास के खिलाफ संघर्ष करना पड़ा कि उनके अगवा बेटे, पति और भाई मर चुके थे. साथ ही, उनके जिंदा होने को सुनिश्चित करने के लिए मैंने उनसे भूतकाल में बात नहीं की. हालांकि, उनकी उम्मीदों ने सबसे बुरी हालत संबंधी मेरी ही धारणाओं पर सवाल खड़े कर दिए. इन परिजनों को स्वराज की बातों पर पूरा भरोसा था और उन्होंने मसीह की आलोचना करते हुए कहा कि वह इन लोगों की हत्या के बारे में झूठ बोल रहे हैं. वे लगातार इस बात को दोहराते रहे कि विदेश मंत्रालय के प्रतिनिधि उनसे मुलाकात कर रहे हैं और उन्हें अपने रिश्तेदारों के जिंदा रहने को लेकर लगातार आश्वासन मिल रहा है.
यहां तक कि 14 मई 2015 का स्वराज का एक वीडियो भी है, जिसमें वह दावा कर रही हैं कि उन्हें छह से आठ भरोसमंद सूत्रों ने पुष्टि की है कि ये 39 लोग अब भी जिंदा हैं. वर्षों तक वह कहती रहीं कि भारत सरकार इन लोगों को वापस लाने के लिए हरमुमकिन कोशिश कर रही है. शायद अब इस बात की पुष्टि करने का सबसे उपयुक्त समय है कि वे मारे गए या नहीं. विदेश मंत्री का कहना है कि वह बिना सबूत के किसी को मृत घोषित नहीं कर सकती थीं. हालांकि, अगर जिंदा होने का भी कोई सबूत नहीं था, तो उन्होंने किस तरह से इन लोगों को जिंदा घोषित कर दिया. और इस सच्चाई को छुपाने व इन लोगों के परिवारों से झूठ बोलने से सरकार को किस तरह का लाभ मिलने की उम्मीद थी?
राजनीतिक रणनीति या मंत्रालय और मंत्री की भूल?
अगर इस पर थोड़ा सोचें तो कुछ बातें दिमाग में आती हैं. इन लोगों को 11 जून 2014 को अगवा किया गया और मसीह के मुताबिक हत्या 15 जून को हुई. उस वक्त नरेंद्र मोदी को एक शानदार समारोह में प्रधानमंत्री पद की शपथ लिए हुए तीन हफ्ते से भी कम हुए थे, जिसमें सभी सार्क देशों के राष्ट्राध्यक्षों ने हिस्सा लिया था. इस कदम की मोदी के कार्यकाल के दौरान भारत की नई मजबूत विदेश नीति के तौर पर तारीफ की गई थी.
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ऐसे में मसीह के सच को स्वीकार करने से शायद मोदी सरकार की छवि खराब हो जाती. हालांकि, अगर ऐसा मामला है, तो राजनीति के घटिया गुणा-गणित के चक्कर में 39 लोगों के परिवार वाले भावानात्मक तौर पर अटके रहे. अगर यह राजनीतिक रणनीति थी, तो इससे घटिया कुछ नहीं हो सकता. सकारात्मक अनुमानों को ध्यान में रखें, तो मुमकिन है कि यह मंत्रालय और मंत्री की बड़ी भूल हो सकती है.
बहरहाल, यह जानकारी आपको और चौंका सकती है. स्वराज ने संसद में जब इसकी घोषणा की, उसके पहले तक मारे गए लोगों के परिवारों को सूचना नहीं दी गई थी. स्वराज भले ही अपने बचाव में यह दलील दे रही हों कि वह सिर्फ प्रोटोकॉल का पालन कर रही थीं, लेकिन कठोरता और निष्ठुरता का यह मामला झूठे दिलासों और खराब दृष्टि से भी आगे का है.
(द लेडीज फिंगर (टीएलएफ) महिला केंद्रित एक अग्रणी ऑनलाइन मैगजीन है. इसमें राजनीति, स्वास्थ्य, संस्कृति और सेक्स से जुड़े मसलों पर ताजातरीन नजरिए और तेजतर्रार अंदाज में चर्चा की जाती है.)
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