रिटायर्ड आईएएस अधिकारी पीएस कृष्णन ने सामाजिक न्याय के मामलों पर 70 वर्षों से भी ज्यादा वक्त तक काम किया है. सरकार के कई महत्वपूर्ण विभागों में ये सचिव के पद पर रह चुके हैं. 1990 में जब मंडल कमीशन की सिफारिशें वीपी सिंह की सरकार ने लागू की थी, पीएस कृष्णन समाज कल्याण मंत्रालय में सचिव के तौर पर पदस्थापित थे. कई संवैधानिक और विधायी कानून बनवाने में कृष्णन का अहम योगदान रहा है. जिसमें राष्ट्रीय अनुसूचित जाति-जनजाति आयोग को संवैधानिक दर्जा दिलवाना और अनुसूचित जाति जनजाति अत्याचार निरोधी कानून 1989 शामिल है. दो दशक पहले रिटायर होने के बाद भी ये सरकार की कई कमिटियों में शामिल रहते हुए सलाहकार की भूमिका में रहे हैं. फ़र्स्टपोस्ट ने इनसे केंद्र सरकार के सामान्य वर्ग के लिए 10 फीसदी आरक्षण की नई व्यवस्था पर विस्तार से चर्चा की. पेश है उस चर्चा के अंश.
सवाल- आर्थिक स्तर पर कमजोर सामान्य वर्ग के लोगों के लिए 10 फीसदी आरक्षण को अब राष्ट्रपति ने भी मंजूरी दे दी है. गुजरात सरकार ने इसे लागू करने का फैसला भी ले लिया है. एससीएसटी और पिछड़े वर्गों के लिए किए जा रहे समाज कल्याण के कार्यों और आरक्षण की नीति पर आपने लंबा काम किया है. क्या आर्थिक आधार पर सामान्य वर्ग के लिए 10 फीसदी का कोटा संवैधानिक व्यवस्था के मुताबिक है?
जवाब- सामान्य वर्ग को आर्थिक आधार पर 10 फीसदी आरक्षण देने के लिए संविधान में जो संशोधन हुआ है, वो संविधान के मूलभूत ढांचे के खिलाफ है. हमारे संविधान में आर्टिकल 14, आर्टिकल 15(1), आर्टिकल 16(1) के प्रसंग है. जो कहता है कि किसी भी नागरिक के खिलाफ भेदभाव नहीं होना चाहिए. चाहे वो जाति के आधार पर हो, जेंडर के आधार पर हो या जन्म स्थान के आधार पर हो. लेकिन अनुसूचित जाति-जनजाति और पिछड़े वर्ग के लोगों के लिए आरक्षण और सामाजिक न्याय की दूसरी प्रक्रियाओं के लिए कुछ विशेष प्रावधान रखे गए. क्योंकि ये जातियां सदियों से वंचित रही थीं. अगर उनके लिए विशेष प्रावधान नहीं किए जाते तो देश के नागरिकों के बीच समानता का सिद्धांत अधूरा रह जाता.
जो जाति व्यवस्था के कारण वंचित नहीं किए गए थे. उनके लिए आरक्षण की व्यवस्था करके हम समानता के सिद्धांत के साथ समझौता नहीं कर सकते. दूसरी बात है- आरक्षण किसके लिए? जो वर्ग ओपन कॉम्पटीशन में अपना न्यायिक हिस्सा नहीं पा सकते हैं. उनके लिए आरक्षण की व्यवस्था है. ये वर्ग अपनी कार्यक्षमता की वजह से हिस्सेदारी नहीं पा रहे हैं, ऐसी बात नहीं है. बल्कि सदियों की सामाजिक व्यवस्था, जाति व्यवस्था और छुआछूत की वजह से वो अपनी हिस्सेदारी पाने में असमर्थ रहे हैं. इसलिए उनके लिए आरक्षण जरूरी है. जो वर्ग समर्थ हैं. क्योंकि उनके ऊपर कोई दबाव नहीं था. सामाजिक व्यवस्था आधारित दबाव नहीं था. उन वर्गों को आरक्षण देना अपनेआप में विरोधाभासी है. आरक्षण के मूलभूत सिद्धांत के खिलाफ है.
सवाल- 10 फीसदी कोटा के बारे में कहा जा रहा है कि अगर इसे बिना संविधान में संशोधन किए लागू किया जाता तो इसे सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी जा सकती थी. लेकिन 10 फीसदी कोटा देने के लिए संविधान में संशोधन हो चुका है, इसलिए इसे सुप्रीम कोर्ट में चुनौती नहीं दी जा सकती और अगर दी भी जाती है तो सुप्रीम कोर्ट संविधान में संशोधन किए जाने की वजह से इसे खारिज नहीं कर सकता. 10 फीसदी कोटा के लिए संवैधानिक आधार बन चुका है.
जवाब- हर संवैधानिक संशोधन को सुप्रीम कोर्ट ऑटोमैटिकली अप्रूव नहीं करेगा. 1973 के केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य मामले में सुप्रीम कोर्ट का फैसला है कि संसद को संविधान संशोधन करने का अधिकार है किन्तु संशोधन, संविधान के मूल ढांचे के खिलाफ हो तो उसकी समीक्षा की जा सकती है और उसे असंवैधानिक और अवैध भी ठहराया जा सकता है. 10 फीसदी आरक्षण को लेकर अभी एक याचिका दाखिल की गई है, अभी और लोग जाएंगे. तो ये सवाल उठेगा कि ये संशोधन संविधान के मूलभूत ढांचे के खिलाफ है या नहीं?
हमारे संविधान में आरक्षण की व्यवस्था गरीबी हटाने और रोजगार के मौके उपलब्ध करवाने के लिए नहीं की गई है. सदियों से जारी जाति व्यवस्था के कारण शिक्षा से लेकर रोजगार में जो अंसतुलन पैदा हो गया था. उस असंतुलन को खत्म करने के लिए आरक्षण लाया गया. अब जो इकोनॉमिकली वीकर सेक्शन के आधार पर आरक्षण दिया जा रहा है, वो ठीक नहीं है. आरक्षण का आधार गरीबी नहीं हो सकता है. गरीबों को हटाना चाहिए, अगड़े वर्गों में भी गरीब हैं. उनको मदद देना चाहिए. लेकिन वो आरक्षण के जरिए नहीं दे सकते क्योंकि ऐसी संविधान में व्यवस्था नहीं है. उनकी मदद के लिए स्कॉलरशिप दी जा सकती है, एजुकेशन लोन दे सकते हैं, उनका स्किल डेवलेपमेंट किया जा सकता है. हालांकि ये सब किया जा रहा है लेकिन इसमें और तेजी लाई जा सकती है.
सवाल- आप मंडल कमीशन से भी जुड़े रहे हैं. मंडल कमीशन की सिफारिशें मानते हुए किस तरह से ओबीसी को आरक्षण देने का फैसला किया गया? उस वक्त ओबीसी जातियों का निर्धारण कैसे हुआ? किस तरह से नई जातियों को आरक्षण के दायरे में लाया जा सकता है? आज कई जातियां आरक्षण की मांग कर रही हैं. उनको आरक्षण देने का फैसला किस आधार पर लिया जाता है?
जवाब- हमारे संविधान के मुताबिक आरक्षण तीन वर्गों के लिए है. छुआछूत से पीड़ित जातियों के लिए आरक्षण की व्यवस्था है. ऐसी जातियां शेड्यूल कास्ट (अनुसूचित जाति) में आती हैं. दूसरा- दूरदराज इलाकों में धकेल दिए जाने से जो पीड़ित हैं उनके लिए आरक्षण- जो शेड्यूल ट्राइब्स (अनुसूचित जनजाति) में आते हैं. और तीसरा- जिनको सामाजिक व्यवस्था में निचला (पिछड़ा वर्ग) माना जाता था. जिनकी सरकारी नौकरियों में भागीदारी नगण्य थी और जो शैक्षणिक तौर पर भी पिछड़े थे. अछूत (अनुसूचित जाति) और ट्राइब्स (अनुसूचित जनजाति) कौन हैं, इसको लेकर किसी को संदेह नहीं है. सामाजिक तौर पर पिछड़े वर्ग को लेकर विरोधाभास सामने आते रहते हैं.
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सामाजिक व्यवस्था में जिन जातियों का ऊंचा स्थान था, उन्हें पिछड़े वर्ग में नहीं जोड़ सकते. जैसे- मराठा, पाटीदार, राजस्थान के कुछ हिस्सों को छोड़कर बाकी जगहों के जाट, कापू. ये सब समाज में निचले नहीं माने जाते. समाज में उनका आदरपूर्ण जगह है. ये सामाजिक पिछड़े नहीं है. ऐसी जानकारी कई कमीशन ने दिए हैं. किसी कमीशन ने इन्हें पिछड़े वर्ग के तौर पर चिन्हित नहीं किया है. जब इन्होंने नेशनल और स्टेट कमीशन में खुद को शामिल करवाने के लिए अप्लाई किया. तो उन्होंने भी इन जातियों को खारिज किया कि ये पिछड़े नहीं हैं. सामाजिक पिछड़ेपन को लेकर दिक्कतें सामने आती रहती हैं.
सवाल- जिस तरह से सामान्य वर्ग के लिए आर्थिक आधार पर 10 फीसदी आरक्षण की व्यवस्था हुई है. उसके बाद एक बहस शुरू हो गई है कि क्यों न अब जाति आधारित आरक्षण की व्यवस्था को खत्म कर आर्थिक आधार पर आरक्षण दिया जाए. खासकर अगड़ी जाति के बुद्धिजीवी वर्ग से ये मांग मजबूती से उठने लगी है?
जवाब- आर्थिक आधार पर आरक्षण देने की मांग नई नहीं है. ये जमाने से चला आ रहा है. सवाल है कि हमारे संविधान निर्माता आरक्षण के जरिए किस समस्या का हल ढूंढ रहे थे. वो उस समस्या का हल ढूंढ रहे थे, जिसका मूल जाति व्यवस्था में है.
जाति व्यवस्था के कारण जिन वर्गों को सामूहिक रूप से दबाया गया, बहिष्कार किया गया, वंचित किया गया. उनके लिए आरक्षण का हल ढूंढा गया. उनकी गरीबी के लिए नहीं. आरक्षण का गरीबी पर कोई असर नहीं होगा. गरीबी बहुत विस्तृत है. उसका हल अलग तरह से होगा. हर बीमारी के लिए अलग-अलग दवाई है. मलेरिया की बीमारी के इलाज में टीबी की दवाई देना बेवकूफी होगी. ये मांग गलत है.
मान लीजिए एक तरफ ब्राह्मण, कायस्थ और खत्री जैसी जातियों के गरीब हों और दूसरी तरफ जाटव, वाल्मिकी और पासवान जैसी जातियों के गरीब. इनदोनों वर्गों के गरीबों के बीच मुकाबला हो तो आरक्षण का फायदा किसको मिलेगा? अगड़े जातियों के गरीब, अनुसूचित जातियों और पिछड़ों के गरीबों का हक मार लेंगे. जिनको जाति व्यवस्था से फायदा रहा है, उनका सपना है कि मंडलपूर्व और अंबेडकरपूर्व समाज को फिर से वापस लाया जाए. जिसमें सिर्फ कुछ अगड़े जातियों को फायदा मिलेगा और अनसूचित जाति और पिछड़ी जातियां वंचित रहेंगी. उस सपने का शिशु है ये मांग.
सवाल- आरक्षण को लेकर नई जातियों की मांग जिस तरह से मजबूत होकर सामने आई हैं, जिस तरीके से सरकार ने सामान्य वर्ग के आर्थिक तौर पर कमजोर लोगों के लिए 10 फीसदी आरक्षण का दांव चला है. उसके बाद आने वाले वक्त में आरक्षण की व्यवस्था में क्या तब्दिली आने वाली है, क्या बदलाव आने वाला है.
जवाब- जब तक जाति व्यवस्था की वजह से पैदा हुई गैरबराबरी है, जब तक छुआछूत है, जब तक अनुसूचित जाति और जनजाति अपने ही बलबूते पर ओपन कंपीटिशन में अपना सही हिस्सा पाने में समर्थ नहीं होते हैं, तब तक वर्तमान आरक्षण व्यवस्था को जारी रखना पड़ेगा. उसमें कोई बदलाव नहीं किया जा सकता. अगर किसी बीमारी का इलाज हम शुरू करते हैं तो बीमारी को पूरी तरह से खत्म होने तक दवाई जारी रखना होगा. अगर बीच में दवाई छोड़ दें तो बीमारी और खतरनाक स्वरूप में सामने आ जाएगी. इसलिए सामाजिक असंतुलन की बीमारी खत्म होने तक आरक्षण के साथ और भी सामाजिक न्याय की प्रक्रियाएं जरूरी हैं.
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अनुसूचित जाति-जनजाति और पिछड़ों के आरक्षण पर सवाल उठाने से पहले कुछ जरूरी शर्तें रखनी होंगी. पहला- एससी एसटी और पिछड़ों का प्रतिनिधित्व अगड़ों के समान हर क्षेत्र में हो. प्रशासन में भी और प्रशासन के हर स्तर पर. एजुकेशन में और एजुकेशन के हर स्तर पर. दूसरा कदम- वो लेवल ओपन कंपीटिशन में बरकरार रखने की काबिलियत इनमें पैदा किया जाना चाहिए. समग्र सामाजिक न्याय के उपायों और कार्यक्रमों से. तीसरा- छुआछूत बिल्कुल खत्म होना चाहिए. ये खत्म नहीं हुआ है. छुआछूत का विकराल रूप हर दिन हर जगह मिलता है. ये सब शर्तें जब तक पूरी नहीं होती तब तक बीमारी खत्म नहीं होगी. तब तक आरक्षण और आरक्षण के अलावा सामाजिक न्याय की प्रक्रियाएं पूरा होते रहना चाहिए.
जब दलितों के बच्चों के लिए स्कूल जाने का इंतजाम शुरू हुआ. तब स्कूल जा रहे दलितों के बच्चों पर आक्रमण हुए. उऩको मारा गया. उनकी किताब फाड़कर उन्हें वापस घर भगा दिया गया. इसके बाकायदा कमीशन के सबूत है. जो नार्मल तरीके से तालीम पाकर ऊपर आ सकते हैं, वो रास्ता बंद किया गया. जब ऐसा बंद होता है तो बाईपास सर्जरी करनी पड़ती है. इसलिए आरक्षण आया. सदियों से ये दवाब रहा अब दशकों में ये खत्म कैसे होगा? ये मुमकिन नहीं है. ये अलग बात है कि अगड़ों में गरीब हैं. उनकी मदद होनी चाहिए. उनकी संवैधानिक व्यवस्था होनी चाहिए. लेकिन उसके लिए आरक्षण की व्यवस्था नहीं हो सकती.
( अगले पार्ट में इस बातचीत का अगला हिस्सा...न्यायिक व्यवस्था में आरक्षण और जाति आधारित जनगणना पर उठते सवालों के जवाब )
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