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Zero Movie Review : 'जीरो' अपने नाम को पूरी तरह सार्थक करती है, शाहरुख की मेहनत पर ये बकवास फिल्म पानी फेरती है

'जीरो' को देखकर अफसोस होता है की शाहरुख खान का एक और प्रयोग गर्त में चला गया है. पहले इम्तियाज अली थे और इस बार आनंद राय

फ़र्स्टपोस्ट रेटिंग:

Updated On: Dec 21, 2018 03:12 PM IST

Abhishek Srivastava

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Zero Movie Review : 'जीरो' अपने नाम को पूरी तरह सार्थक करती है, शाहरुख की मेहनत पर ये बकवास फिल्म पानी फेरती है
निर्देशक: आनंद एल राय
कलाकार: शाहरुख खान, अनुष्का शर्मा, कटरीना कैफ, मोहम्मद जीशान

जरा सोचिए. एक आम आदमी एक मंगल यान की मदद से मंगल ग्रह पर निकलने वाला है और उसकी हैंडलर जिस वक्त वो रवाना होने वाला है उस वक्त अपनी शादी रचा रही होती है. यानी की किसी भी आदमी के जीवन का एक अहम मौका लेकिन वो इंसान उस मौके से नदारद है. खैर यह तो मैंने एक छोटा सा उदाहरण दिया है आनंद एल राय की फिल्म 'जीरो' में ऐसे कई मौके है. फिल्म को देख कर यही समझ में आता है की आनंद एल राय को अपनी फिल्म के लिए शाहरुख खान क्या मिल गए वो अपनी पिछली फिल्मों का गणित ही भूल गए. 'तनु वेड्स मनु' या फिर 'रांझाना' में जो मिट्टी की खुश्बु और महक थी 'जीरो' देखने के बाद ये लगता है की उन सभी चीजों के ऊपर कमर्शियलाईजेशन का तड़का मार दिया गया है. सबसे पहले 'रेस 3' में सलमान खान धराशायी हुए थे, उसके बाद बारी आई आमिर खान की 'ठग्स ऑफ हिंदोस्तान' में और उसी कड़ी में शाहरुख खान का नाम भी अब जुड़ गया है 'जीरो' से. लगभग पौने तीन घंटे की इस फिल्म को देखने के लिए आपके अंदर सहनशक्ति होना बेहद जरूरी है. कुल मिलकर अगर आप 'जीरो' से खुद को किनारा कर ले तो वो ज्यादा अक्लमंदी की बात होगी.

जीरो की कहानी मेरठ के एक बौने की है जो एक ऑटिस्टिक औरत के प्रेम में पड़ जाता है

'जीरो' की कहानी मेरठ में रहने वाले एक बौने बउआ सिंह (शाहरुख खान) की कहानी है. बउआ के पिता का अच्छा खासा कारोबार है लिहाजा घर में पैसे की कमी नहीं है. इस वजह से बउआ का ज्यादा समय अपने लफंगे दोस्तों और लफ्फाजी में बीतता है. बउआ को अपने शादी की पड़ी है लिहाजा वो मैरिज ब्यूरो के चक्कर मारता रहता है. वही पर जब उसको आफिया (अनुष्का शर्मा) के फोटो के दीदार होते है तभी से वो उसके प्रेम में पड़ जाता है. उसके बाद उसकी कवायद शुरू हो जाती है आफिया को रिझाने में इसके बावजूद की आफिया एक ऑटिस्टिक औरत होने के साथ-साथ एक वैज्ञानिक भी है. आखिर बात दोनों की शादी तक पहुंच जाती है लेकिन उसके ठीक पहले जब बबीता (कटरीना कैफ) जो की एक फिल्म अभिनेत्री है से मुलाकात होती है तब वो उसके चक्कर में पड़ जाता है. आफिया के साथ अपनी शादी को बीच में ही छोड़ कर वो मुंबई एक डांस कम्पटीशन में शिरकत करने के लिए भाग जाता है. जब उसकी मुलाकात वह बबीता से होती है तब दोनों एक दूसरे के काफी करीब आ जाते है. आगे चल कर बउआ को अपनी गलती का एहसास होता है और उसे दूर करने के एक बार फिर से आफिया के करीब आने की कोशिश करता है. इसके लिए वो मुंबई से अमेरिका भी चला जाता है. किस्मत का पहिया बदलता है और उसका सिलेक्शन मंगल ग्रह की यात्रा के लिए हो जाता है.

निर्देशन की धार और कलम की ताकत इस फिल्म में पूरी तरह से गायब है

'जीरो' में ऐसा कुछ भी नहीं है जो आपके दिल को छू सके सभी कुछ फिल्मी और बनावटी लगता है. फ़िल्मी मैंने इसलिए लिखा क्योंकि आनंद एल राय अपनी फिल्मों में जमीनी एहसास दिखाने के लिए जाने जाते है जो दर्शक इसके पहले काफी पसंद कर चुके है. हिमांशु शर्मा ने इस फिल्म की कहानी लिखी है और फिल्म देखने के बाद आप खुद से यही कहते है की ''यह सब क्या था.'' हिमांशु के कलम की धार इस फिल्म में पूरी तरह से गायब है. 'जीरो' में सब कुछ सहज दिखाया गया है. कहने का मतलब ये है की जब चीजों का ट्रांजीशन होता है तब निर्देशक ने ये बताने की कोशिश नहीं की है की चीजें आखिर हुई कैसे. सबसे पहली शिकायत तो यही है की फिल्म में एक बौने और और एक ऑटिस्टिक औरत का जो प्रेम दिखाया गया है वो अपने आप में ही काफी अटपटा लगता है. दो बे मेल दुनिया को आनंद राय ने मिलाने की कोशिश की है और उनकी हर कोशिश झूठी लगती है.

शाहरुख खान कॉमेडी टाइमिंग ही देखने लायक है

गनीमत है की शाहरुख खान के कॉमिक टाइमिंग की वजह से फिल्म में कुछ जान रहती है. उनको देखने में मजा आता है. इसकी एक वजह ये भी हो सकती है की शाहरुख खान अपने इस अंदाज में सालों बाद नजर आयें है. अनुष्का एक ऑटिस्टिक औरत है फिल्म में और उन्होंने एक ऑटिस्टिक पेशेंट के मैनेरिज्म को सीखने के लिए किसका सहारा लिए इस बात को मुझे जानने में दिलचस्पी होगी. उनका अभिनय, अभिनय कम और लीपा पोती ज्यादा नजर आता है. कैटरीना कैफ कम समय के लिए फिल्म में है लेकिन ईमानदारी उनके काम में नजर आती है. मोहम्मद ज़ीशान अयूब के लिए यही सलाह होगी की अपने हीरो का दोस्त बनना वो बंद कर दे. एक साइड किक के अलावा वो और कुछ नजर नहीं आते है. इस फिल्म के सबसे बड़े मुजरिम आनंद राय और हिमांशु शर्मा ही है जिनके ना निर्देशन और ना ही लेखन में कोई धार है. जरा सोचिए एक सीन में कैटरीना कैफ का पब्लिक के सामने अपीयरेंस का सीन है और वो वह पर शराब की बोतल के साथ पहुंच जाती है. ये सब कुछ बकवास नजर आता है. अजय अतुल के संगीत की की ताकत सिर्फ एक गाने में ही नजर आती है. बाकी सभी गाने औसत दर्जे के ही हैं .

'जीरो' के मुजरिम सही मायने में निर्देशक आनंद एल राय हैं

देखकर अफसोस होता है की शाहरुख खान का एक और प्रयोग गर्त में चला गया है. पहले इम्तियाज अली थे और इस बार आनंद राय. लेकिन शाहरुख खान भी भला क्या करे जब फिल्म की कहानी ही इतनी लचर हो. इस फिल्म की प्रीमाइस कागज पर भले ही शानदार लगी हो लेकिन इसका अंत नतीजा जो कुछ भी निकल कर आया है वो एक दुस्वप्न से कम नहीं है. 'अंधाधुन' और 'बधाई हो' अभी तक सिनेमा हॉल्स में हैं. जाकर उन्ही फिल्मों को एक बार फिर से देख लीजिए अगर इस हफ्ते आपका कोई फिल्म देखने का प्लान है तो. एक बात शर्तिया है की 'जीरो' आपका मनोरंजन नहीं करेगा और शायद हर बार आपकी नजर आपकी घड़ी पर जाएगी की आखिर फिल्म खतम कब होगी. जीरो से दूरी बनाये रखने में समझदारी होगी.

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