सिलसिला (1981) के 35 साल पूरे होने पर अमिताभ बच्चन ने ट्वीट किया- “ सिलसिला के 35 साल… जिस फिल्म को मीडिया ने ‘ Silly Sila’ कहके कचरे में डाल दिया...आज उसे क्लासिक का खिताब दिया जा रहा है ”. अमिताभ के इस ट्वीट ने सिनेमा के दिलचस्प पहलू की याद दिला दी.
प्यार की पेंचगिदियों की कई गिरहें खोलती सिलसिला रिलीज के वक्त औंधे मुंह गिरी थी. अमिताभ के ट्वीट में छिपे ख़लिश का सच ये है. कि उस वक्त फिल्म की नाकामयाबी का लोगों (खासकर मीडिया) ने स्वागत किया था.
सिलसिला के रिलीज के वक्त अमिताभ बच्चन के प्रेस से रिश्ते ठीक नहीं थे. उन्होंने मीडिया से बात करना बंद कर दिया था. फिल्मी मैग्जिनों के पन्ने अमिताभ और उनकी को-स्टार रेखा के रोमांस के किस्सों से रंगे होते थे. सिलसिला को मीडिया की बेरुखी का शिकार तो होना ही पड़ा.
बॉक्स ऑफिस पर लोगों की मायूसी भी झेलनी पड़ी. 35 साल बाद उस दौर को याद करें तो सब किस्मत का लिखा लगता है. सिलसिला की शुरुआती नाकामी भी और बाद में उसका क्लासिक बनना भी.
सिनेमा के इतिहास में सिलसिला उन चुनिंदा बेहतरीन फिल्मों में से एक है. जिसने फ्लॉप शुरुआत के बाद क्लासिक सिनेमा की कैटेगरी में अपनी जगह बनाई. सिलसिला की उलझनें फिल्म की कास्टिंग से ही शुरु हो गई थी.
यश चोपड़ा ने अमिताभ बच्चन की कथित वास्तकविक प्रेम कहानी के इर्दगिर्द फिल्म की कहानी बुनी. फिल्मी पत्नी की चुनौतीपूर्ण भूमिका उनकी रियल लाइफ की पत्नी को ही दे दिया. ऐसा कहा जाता है, कि फिल्म की कहानी गढ़ने के दौरान अमिताभ की पत्नी के रोल में स्मिता पाटिल और प्रेमिका की भूमिका में परवीन बॉबी की कल्पना की गई थी.
कृतियों से बार-बार प्यार होना
हालांकि यश चोपड़ा की सोच रेखा और जया पर जाकर अटक जा रही थी. अपने एक इंटरव्यू में यश चोपड़ा ने कहा था, कि “ शायद अमिताभ बच्चन ने मेरे मन की बात पढ़ ली थी. उन्हें अंदेशा हो गया था कि पाटिल-बॉबी की जोड़ी से मैं खुश नहीं हूं.
उन्होंने मुझसे पूछा कि इनदोनों की भूमिका के लिए परफेक्ट एक्ट्रेसेज़ कौन हो सकती हैं.” यश चोपड़ा के रेखा और जया का नाम लेने पर अमिताभ बच्चन खुद बोले - “चलो करके देखते हैं” इसके बाद रेखा और जया की रजामंदी ली गई.
दोनों के तैयार हो जाने के बावजूद यश चोपड़ा ने उनसे अलग-अलग पूछा. कि फिल्म करने में उन्हें किसी तरह की दिक्कत तो नहीं. समझा जा सकता है कि यश चोपड़ा अपनी हिचक क्यों साफ कर लेना चाहते थे.
सिलसिला से एक दशक पहले आई फिल्म मेरा नाम जोकर (1970) के साथ यही कहानी हुई थी. मेरा नाम जोकर की फिल्मी पटकथा राजकपूर की निजी जिंदगी से प्रेरित थी. सिलसिला और मेरा नाम जोकर में कहानी कहने का तरीका ही दोनों फिल्मों को अलग करती है.
मेरा नाम जोकर का राजू (राज कपूर) तीन महिलाओं ( उसकी टीचर, एक अभिनेत्री और एक रुसी कलाकार ) के साथ प्यार करता है. लेकिन तीनों ही उसे छोड़कर चली जाती है. राजू जिन महिलाओं से प्यार करता, उन्हें अपनी कल्पना के अनुरूप ढालना चाहता.
राजू के इस रवैये से पैदा हुई ऊब और उलझनें प्रेमिकाओं को उससे दूर कर देतीं. महिलाओं को उन मर्दों की सोहबत मंजूर थी जो, वो जैसी हैं उसी रूप में उन्हें स्वीकार करे. राजकपूर को लेकर ये मिथ ऑफ स्क्रीन उनकी तीन कथित प्रेमिकाओं ( नरगिस, वैजयंती माला और पद्मिनी ) को लेकर रही.
कलाकार को अपनी कृतियों से बार-बार प्यार होता है. फिल्म की कहानी जिंदगी की कहानी के करीब दिखी.
सिलसिला में अमित (अमिताभ बच्चन) चांदनी (रेखा) से प्यार करता है. लेकिन किस्मत उसे अपने छोटे भाई की गर्भवती बेवा (जया भादुड़ी) से शादी करने को मजबूर कर देती है. शादी के बाद अमित का चांदनी से दोबारा अफेयर शुरू होता है.
चांदनी शादीशुदा जिंदगी में होते हुए भी प्यार से महरूम थी. अमित और चांदनी का शादी से बाहर प्यार रिश्तों में नई उलझनें पैदा कर देती है. दर्शकों के सामने अमिताभ और रेखा अपने ऑफ स्क्रीन अफेयर से इनकार कर चुके थे.
जबकि सिनेमा के पर्दे पर दोनों की केमिस्ट्री कुछ और ही कहानी कह रही थी. दर्शक जानते थे कि फिल्मी पटकथा की तरह रियल लाइफ में भी अमिताभ ‘चांदनी’ के लिए ‘शोभा’ को छोड़ नहीं सकते. कुल मिलाकर रियल लाइफ और पर्दे की मिलीजुली कहानी दर्शकों में रोमांच नहीं पैदा कर पाई.
ये दर्शकों के अविश्वास को तोड़ने वाला न होकर भ्रम पैदा करने वाला था. शायद इसलिए इसे दर्शकों की बेरुखी का सामना करना पड़ा. वास्तविकता के इर्द गिर्द बुने गए फिल्मी किरदार अनजाने में अपनी तकदीर की तरफ जाते दिखे. दर्शकों के लिए फिल्म का रोमांच जाता रहा.
उस दौर के बोल्ड विषय
कागज के फूल (1959) फिल्म को ही देख लीजिए. फिल्म की कहानी को फिल्मकार ज्ञान मुखर्जी की जिंदगी से प्रेरित बताया गया. लेकिन फिल्म में वहीदा रहमान को कास्ट करने के बाद पूरी कहानी ही बदल गई. इसे अपने दौर के चर्चित निर्माता निर्देशक गुरु दत्त की हाफ बायोपिक फिल्म करार दे दिया गया.
फिल्म की कहानी एक कामयाब फिल्मकार सुरेश सिन्हा (गुरुदत्त) की शादीशुदा जिंदगी की उलझनों से शुरु होती है. सुरेश सिन्हा का शांति (वहीदा रहमान) से प्यार उसकी शादीशुदा जिंदगी में नए पेंच पैदा कर देती है. फिल्मी पटकथा गुरुदत्त की निजी जिंदगी के करीब दिखती है.
जिसमें वहीदा रहमान के साथ उनके अफेयर की वजह से रियल लाइफ की सिंगर पत्नी गीता दत्त से अनबन के किस्से हैं.
क्या सिलसिला की सबसे बड़ी विशेषता चालाकी से फिल्म के कलाकारों का चुनाव है. जो अंत तक आते-आते उनकी दुखती रग छेड़ने जैसा हो जाता है. और क्या ये दर्शकों को झकझोरने में नाकाम रही.
जबकि वो जानते थे कि फिल्म के बहाने इसमें शामिल लोग चालाकी से अपना बयान साझा कर रहे हैं. खासतौर से अमिताभ बच्चन. किसी भी नजरिए से वक्त ने सिलसिला के साथ इंसाफ ही किया. ये फिल्म की कास्टिंग का अपनी जिंदगी के किस्सों को उधेड़ कर रख देने का दुस्साहस ही है.
जो हमें बार-बार फिल्म के बहाने उस दौर में जाने पर मजबूर करता है. फिल्मकार की कल्पना और असल जिंदगी के मुड़े तुड़े सच ने कुछ ऐसा रचा. जो हिंदी सिनेमा के इतिहास में महान सिनेमाई पलों के तौर पर कैद हो गया. शादीशुदा जिंदगी से बाहर के प्यार जैसे बोल्ड विषय का इतना संवेदनशील और बेहतरीन चित्रण नहीं हो सकता.
कभी कभार एक फिल्म को बेमिसाल बनने के दौरान शुरुआती विफलताओं से जूझना पड़ता है. इसे सही मायनों में सिलसिला से इसे समझा जा सकता है.
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