बादशाहो के दौरान मेरा फिल्म के निर्देशक मिलन लूथरिया से मिलना हुआ था और बातचीत के दौरान उन्होंने यही बताया था कि हिंदी भाषा में अब तक की जितनी हाईस्ट फिल्में बनी है उनमें से एक भी उन्हें पसंद नहीं है. जब आगे मैंने उनसे ये पूछा कि इसकी वजह क्या है तो उन्होंने बताया कि सबसे बड़ी परेशानी फिल्म का लेखन और निर्देशन ही होता है. बादशाहो अब जब मैंने देख ली है तो इतना कहना पड़ेगा कि उनकी खुद की फिल्म भी उसी परेशानी से जूझती है - लेखन और निर्देशन की.
1975 के आपातकाल के समय हुई एक घटना के आधार पर उन्होंने एक पूरी फिल्म तो खड़ी कर दी है लेकिन ये आपका शत प्रतिशत मनोरंजन करेगी इस बात में मुझे शक है. अजय देवगन अभिनीत ये फिल्म कमजोर फिल्म है जो आपको सिर्फ कहीं कहीं पर लुभायेगी. फिल्म में बताया गया है कि ये फिल्म आपाताकाल के दौरान की है लेकिन ये आपको महज बेवकूफ बनाने का एक शिगूफा है. ये फिल्म 2017 की फिल्म लगती है और इसको पीरियड फिल्म कहना पीरियड फिल्मोंं की तौहीन होगी.
कमजोर है कहानी
बादशाहो की कहानी राजस्थान के एक रजवाडे परिवार की है जिसकी बागडोर अब है महरानी गीतांजली देवी (इलियाना डीक्रूज) के हाथों में. एक निजी झगड़े की वजह से सरकार में पहुंच रखने वाला संजीव ये कसम खा लेता है कि जो भी सोना महारानी के खजाने में है उसे वो वहां से बाहर निकलवा कर दिल्ली पहुंचायेगा. उसके इस काम में सेना और पुलिस उसकी मदद करती है. लेकिन महारानी का वफादार बाडीगार्ड भवानी (अजय देवगन) उनको आश्वासन देता है कि सोना दिल्ली तक नहीं पहुंचेगा. इस काम को अंजाम देने के लिये भवानी की मदद करते हैं डलिया (इमरान हाश्मी), संजना (ईशा गुप्ता) और गुरुजी (संजय मिश्रा). लेकिन इन सभी के बीच आर्मी अफसर सहर सिंह (विद्युत जामवाल) इनके बीच रोड़ा बनकर खड़ा हो जाता है. कुछ दिलचस्प ट्विस्ट एंड टर्न्स होते हैं और फिर कहानी का पटाक्षेप होता है.
इमरजेंसी से बनाया बेवकूफ
सच्चाई यही है कि जब फिल्म की कहानी इसके कलाकारों को पहली बार सुनाई गई होगी तो उन्हें भी लगा होगा कि फिल्म बेहद ही मजेदार होगी. भरोसा इसलिये भी बन जाता है क्योकि निर्देशन की बागडोर मिलन लूथरिया जैसे सुलझे निर्देशक के हाथों में थी. लेकिन जो भी पक कर बाहर निकला है उसका स्वाद कच्चा ही है. मुझे अभी तक ये समझ में नहीं आ रहा है कि इस फिल्म के बैकड्राप को बताने की जरुरत ही क्या थी कि ये कहानी आपातकाल के दौरान हुई थी.
मिलन का डायरेक्शन ले डूबा
फिल्म में अजय देवगन अपनी स्क्रीन प्रेसेंस से जरुर लुभाते हैं और फिल्म का एक किरदार लगते हैं. इमरान हाशमी, इलियाना और संजय का काम सधा हुआ है. ईशा गुप्ता को देखकर लगता है कि फिल्म के निर्मताओं को लगा होगा कि ग्लैमर की थोड़ी बहुत कमी लग रही है लिहाज ईशा गुप्ता की फिल्म में एंट्री हुई होगी. इन सबके बीच अगर कोई अपना काम जनता के जहन में रजिस्टर करने सफल हुआ है तो वो विद्युत है. मिलन लूथरिया से उम्मीदें थीं कि एक सधा हुआ टेंशन भरा माहौल अपनी फिल्म में वो क्रियेट करेंगे लेकिन बादशाहो को देखने के बाद यही लगता है कि ये तो पूरी तरह से मसाला फिल्म है और वो ये समझ बैठे हैं कि उनकी ये फिल्म उसी जनता के लिये है जो सत्तर और अस्सी के दशक के फिल्मोंं से रोमांचित होती है. कहना सही होगा कि निर्देशक साहब मुगालते में हैं और गलतफहमी का शिकार नजर आते हैं.
लगता है कि हाईस्ट फिल्मों को हिंदुस्तान में बनाने के लिये अभी यहां के फिल्ममेकर्स को मीलों का सफर तय करना है. जब सोने को एक बख्तरबंद गाडी में बंद कर दिया जाता है और जब वो दिल्ली के लिये रवाना हो जाता है तो इसी बात की उम्मीद रहती है कि ये पूरा सफर रोमांच से भरा होगा. लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं है. कहानी को अगर आगे बढ़ाना है तो पीछे की कहानी तो बतानी ही पडेगी. यानी की सोने का सफर बैकग्राउंड में रह जाता है. इस फिल्म में सिर्फ दो ही सीन्स रोमांचित करते हैं. पहला वो सीन है जब इमरान, विद्युत का बटुआ चुराकर भागते हैं और दूसरा वो सीन जब अजय और इमरान, दिल्ली जा रही गाडी के उपर चढ़कर उसे बंद करने की कोशिश करते हैं. इस फिल्म की सबसे बड़ी असफलता ये है कि ये टेंशन को बनाने में नाकामयाब रहती है.
कमियों से भरी फिल्म
अगर आपने एक सच्ची घटना का फिल्म में हवाला दिया है तो आप इंसपेक्टर दुर्जन सिंह के किरदार को खाई में फेकने के बाद उसे चुस्त हालत में जिंदा पुलिस थाने में काम पर नहीं भेज सकते. उसे किसी अस्पताल के बिस्तर पर होना चाहिये था. जब आपने एक सच्ची घटना को अपनी फिल्म का प्रीमाइस बनाया है तब आप सिनेमेंटिक लिबर्टी नहीं ले सकते हैं. अगर इस फिल्म का सोल द डर्टी पिक्चर वाला होता तो बात कुछ और होती.
हाईस्ट फिल्म बनाने में नाकाम बॉलीवुड
अगर आप अपनी फिल्म को एक हाईस्ट फिल्म कह रहे हैं तो यहां पर डकैती की पूरी घटना एक बैलेट या किसी अच्छे धुन की तरह होनी चाहिये थी जिसमें सब कुछ सुनियोजित ढंग से चलता है. पूरी ताल अच्छी तरह से सुनाने के बाद वो फिर अचानक बदरंग हो जाता है. लेकिन इसमें सनी लियोनी का आईटम गाना है, रजत अरोड़ा के वक्त-वक्त पर वन लाइनर्स भी हैं और एक त्रिकोण प्रेम का तड़का भी है.
ये सब कुछ कहानी को ढीला कर देता है. वसं अपॉन ए टाइम इन मुंबई और द डर्टी पिक्चर बनाने वाले मिलन ने इस बार बादशाहो से बेहद निराश किया है. आखिर में मैं इस बात को बोलूंगा कि हमारे फिल्म वालों को कान फोड़ने वाले साउंडट्रैक से इतना लगाव क्यों है. मुफ्त की नसीहत होगी जितनी जल्दी वो इसे बंद कर सकते हैं कर दें, अगर वो ये समझते हैं कि ये फिल्म के माहौल को और आगे बढ़ाता है तो ये बात पक्की है कि वो किसी और ग्रह पर रहने वाले निवासी हैं.
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