'पाबंदी ही बगावत की शुरुआत है.' इस वॉइसओवर के साथ फिल्म शुरू होती है. यह बात गुजरात के बारे में कही गई है, जहां शराबबंदी लागू है. यह एक साधारण लाइन है लेकिन फिल्म की कहानी के साथ-साथ राष्ट्रीय संदर्भ में भी यह बहुत असरदार है क्योंकि भारत आजकल बैन, पाखंड और बढ़ती कला सेंसरशिप से गुजर रहा है. खाने पीने की आदतों और निजी पसंद-नापंसद तक पर सवाल उठाए जा रहे हैं. कई राज्यों में शराबबंदी लागू हो रही है जबकि सरकारें उसकी बढ़ती कालाबाजारी से खूब वाकिफ हैं.
इस तरह के सीधे सपाट और प्रभावी लेखन के साथ लेखक-निर्देशक राहुल ढोलकिया फिल्म की शुरुआत करते हैं. फिल्म का पहला हाफ कसा हुआ, तेज, एक्शन से भरपूर और दर्शकों पर पकड़ बनाए रखने वाला है.
जैसे-जैसे कहानी शराब के धंधे में रईस की शुरुआती दिलचस्पी के बारे में बताती है तो पता चलता है कि उसके शहर में इस धंधे की जड़ें कितनी गहरी जमी हैं कि साधारण घरों के बच्चे भी स्वाभाविक तौर पर अपराधियों के संगी साथी बन जाते हैं. कहानी बताती है कि किस तरह रईस बड़ा होकर खुद को सियासी साठगांठ के जरिए एक कारोबारी के रूप में स्थापित करता है. फर्स्ट हाफ इस कदर बांध कर रखता है कि मैं एक सेकंड के लिए भी पर्दे से नजर नहीं हटा पाई.
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भरपूर मसालेदार फिल्म
यहां तक पहुंचते-पहुंचते 'रईस' की जो एक बात कचोटती है वो ये कि जैसे हीरोइन को सिर्फ एक शो पीस बना कर रखा गया है (हालांकि जैसे जैसे कहानी आगे बढ़ती है तो उसका किरदार अहम हो जाता है.)
राम संपत के बनाए गाने अपनी तरफ खींचते हैं और कहानी में फिट बैठते हैं. स्टंट बहुत ही शानदार अंदाज में किए गए हैं. गजब की फुर्ती और थ्रिल है और किसी भी पारंपरिक भारतीय हीरो की तरह या सात समंदर पार के हीरो ब्रूस विलिस, हैरिसन फोर्ड और टॉम क्रूज की तरह ही शाहरुख़ खान को भी किसी भी मार धाड़ मतलब फाइटिंग में लगभग कोई नुकसान नहीं होता है. इस बात से कोई फर्क भी नहीं पड़ता है.
इंटरवल से पहले 'रईस' की कहानी में हर मसाला भरपूर है और यह पूरी तरह एक व्यावसायिक मनोरंजक फिल्म है. सब कुछ इतनी रफ्तार से होता है कि हमारे पास यह सोचने का वक्त ही नहीं है कि हीरो अपराध को इतनी साधारण बात मानकर क्यों चलता है, जबकि कहानी में ऐसा कुछ नहीं है, जो बताता हो कि उसके पास सिर्फ यही रास्ता बचता है या फिर वह मानसिक रूप से विक्षिप्त है. यह भी ख्याल नहीं आता है कि अपनी मां की इस बात को वह गलत संदर्भ में क्यों इस्तेमाल करता है, कि 'कोई धंधा छोटा नहीं होता और धंधे से बड़ा कोई धर्म नहीं होता.'
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सेकंड हाफ ढीला
इसके बाद शुरू होता है दूसरा हाफ और 'रईस' ढीली पड़ने लगती है. यह समझना मुश्किल है कि बहुत सारे लेखक और निर्देशक क्यों अपनी फिल्म इस तरह बनाते और पेश करते हैं. इंटरवल के बाद कहानी में गहराई कम नजर आती है और इस कमी को पूरा करने के लिए लटकों-झटकों का सहारा लिया जाता है.
इंटरवल के बाद कहानी में अचानक से 'जालिमा' गाना टपक पड़ता है और वहां से फिल्म की पकड़ ढीली पड़ने लगती है. 'फैन' के बाद से शाहरुख खान अपनी फिल्मों में शालीन और सौम्य दिखने लगे हैं. फैन में उन्होंने अपनी उम्र को छिपाने के लिए कोई खास मशक्कत नहीं की. दाढ़ी इस मामले में फायदेमंद रहती है.
एक दो साल से यह देखकर अच्छा लग रहा है कि शाहरुख अपने अंदर के स्टार से ज्यादा तवज्जो एक्टर को दे रहे हैं. इस फिल्म में उन्होंने एक संतुलन साधने की कोशिश की है. वह स्टाइलिश दिखे हैं लेकिन एक हद तक ही.
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दमदार कास्ट
फिल्म के अन्य कलाकारों में बॉलीवुड के कुछ सबसे शानदार एक्टरों के नाम शामिल हैं. नवाजुद्दीन सिद्दीकी ने 'रईस' के दुश्मन का रोल निभाया है. वो जिद्दी पुलिस वाले जयदीप अंबाला मजूमदार के किरदार में हैं, जबकि मोहम्मद जीशान अयूब ने हीरो के वफादार सिपहसालार सादिक की भूमिका को बखूबी निभाया है. अतुल कुलकर्णी रईस के पहले बॉस जयराज बने हैं जबकि नरेंद्र झा बाद में रईस के कारोबारी साथी मूसा बनते हैं.
कुलकर्णी के हिस्से फिल्म के एक दमदार सीन में तालियां और सीटी बजवा देने वाला डायलॉग आया है जिसे बाद में रईस भी दोहराता है, 'बनिए का दिमाग और मियांभाई की डेयरिंग, दोनों हैं इसके पास.'
माहिरा खान पाकिस्तान में बड़ी स्टार हैं लेकिन बॉलीवुड में यह उनकी शुरुआत है. वह पहले रईस की प्रेमिका और बाद में पत्नी के किरदार में कैमरे के सामने सहज नजर आई हैं.
'रईस' और पिछले साल आई सलमान खान की 'सुल्तान' समेत हालिया कई फिल्मों की एक अच्छी बात यह है कि उनमें दिखाए गए मुख्य मुसलमान किरदारों पर उनकी धार्मिक पहचान हावी नहीं दिखाई देती. यह एक अच्छा बदलाव है. वरना एक दशक पहले तक की हिंदी फिल्मों में अल्पसंख्यक समुदाय के सदस्यों को फिल्मों में बड़े ही रटे रटाए अंदाज में पेश किया जाता था. राहुल ढोलकिया ने अपने हीरो के मुसलमान होने पर ज्यादा जोर नहीं दिया है इसलिए हमें पर्दे पर एक ऐसा किरदार दिखता है जो मुसलमान है, पुरुष है, गुजराती है और अन्य कई चीजें उसके इर्दगिर्द नजर आती हैं. कुल मिलाकर वह इंसान है.
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निर्देशक के हाथ से निकल गई फिल्म
अच्छा होता कि इन सब बारीकियों का ख्याल इंटरवल के बाद फिल्म की कहानी में भी रखा गया होता. कहीं म्यूजिक बहुत ज्यादा है तो कहीं क्लोज अप जरूरत से ज्यादा दिखते हैं. कुछ सीन बेकार में खींच कर लंबे किए गए हैं, तो कहीं कहानी से कुछ जरूरी बातें गायब नजर आती हैं.
यह सोचकर और ज्यादा हैरानी होती है कि यह फिल्म राहुल ढोलकिया ने बनाई है. वही राहुल ढोलकिया जिन्होंने 2007 में 'परजानिया' जैसी दमदार फिल्म हमें दी, जो 2002 के गुजरात दंगों के दौरान लापता हुए एक बच्चे की सच्ची कहानी पर आधारित है.
अफवाहें थी कि 'रईस' गैंगस्टर अब्दुल लतीफ की जिंदगी पर आधारित है. इंटरनेट पर उपलब्ध जानकारी के अनुसार उसके उभरने के पीछे भी पुलिस-नेता-अंडरवर्ल्ड की साठगांठ थी.
इसी तरह हीरो और मजूमदार के बीच जो हमेशा चलने वाली टक्कर है, उसकी शुरुआत अच्छी होती है और यह फिल्म का अहम आधार बन सकती थी लेकिन एक पड़ाव के बाद मजूमदार का किरदार बहुत कमजोर पड़ जाता है. शराबबंदी लागू करने वाली सरकारों का पाखंड, दंगों की राजनीति और दुष्ट लोगों के कपट इस फिल्म में बड़ी खूबसूरती के साथ पेश किए जा सकते थे, लेकिन ऐसा नहीं हो सका.
'रईस' का पहला हिस्सा बहुत दमदार है और उम्मीदें जगाता है. इसके अलावा शाहरुख खान को उनके करियर के इस पड़ाव पर देखना अच्छा लगता है. लेकिन दूसरे हाफ में बात बन नहीं पाई है. फिल्म के लिए स्टाइलिश होने की बजाय दमदार होना ज्यादा जरूरी है.
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