साल 2016 में सुल्तान और दंगल की जबरदस्त कामयाबी से साफ हो गया है कि आज भारतीय सिनेमा में खेलों पर बनने वाली फिल्में एक भरोसेमंद कमर्शियल मॉडल बन गई हैं. लेकिन हमेशा ऐसा नहीं था.
1980 और 1990 के दशक में भी कई देखने लायक स्पोर्ट्स फिल्में बनी थीं, जैसे हिप हिप हुर्रे (1984) औरजो जीता वही सिकंदर (1992), लेकिन वे आज के दौर की स्पोर्ट्स फिल्में इतनी कामयाब नहीं रहीं. लगान ने (2001) में सब कुछ बदल दिया. लगान ने कुछ ऐसा किया जो उससे पहले की फिल्में नहीं कर पाईं. इस फिल्म ने खेल को राष्ट्रवाद की चाशनी में डुबो कर पेश किया.
1990 के दशक के आखिरी पांच साल खास तौर से सिनेमा में राष्ट्रवाद के लिहाज से खास उपजाऊ रहे (बॉर्डर, 1997 जैसी फिल्म भी तभी आई). इसका कारण था 1991 का उदारीकरण, जिसने खास तौर से हिंदी सिनेमा को लेकर ‘सामाजिक चिंताओं’ को खत्म कर दिया. वर्ग संघर्ष को दिखाने वाली फिल्में बॉलीवुड से विदा होने लगी (दामिनी, 1993 ऐसी चंद आखिरी फिल्मों में से एक थी).
इसका नतीजा यह हुआ कि फिल्मों ने ऐसे संघर्षों को मानने से ही इनकार कर दिया या फिर उन्हें देश की सीमाओं पर धकेल दिया. 1994 में आई हम आपके हैं कौन को ही लीजिए जिसमें सामाजिक जीवन को ‘रामराज्य’ की तरह पेश किया गया है. बात जब सीमाओं की आती है तो दुश्मन पाकिस्तान बन जाता है और बॉर्डर जैसी फिल्में बनती हैं. जब अतीत में जाते हैं तो दुश्मन ब्रिटिश लोग बन जाते हैं और इसकी शुरुआत 1942 एक लव स्टोरी (1994) फिल्म से होती है.
फिल्में और ग्लोबलाइजेशन
अगर देश में क्रिकेट राष्ट्रवाद की हवा न बह रही होती तो लगान कभी संभव नहीं हो पाती. क्रिकेट को सीधे देश से जोड़ने का काम 1990 के दशक में ही हुआ, वरना जब भारत ने 1983 में प्रूडेंशियल कप जीता था, तब तो ऐसा नहीं हुआ. 1990 के बाद क्रिकेट की लोकप्रियता में जबरदस्त उछाल का कारण टेलीविजन चैनलों की तादाद बढ़ना और उनका घर-घर में पहुंचना रहा. लेकिन इसकी एक वजह अंग्रेजी बोलने वाले भारतीयों की आर्थिक ताकत बढ़ना भी है.
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यह ताकत उन्हें नई अर्थव्यवस्था के उभार से मिली. क्रिकेट आम तौर पर मध्यवर्ग के लोगों का खेल रहा है. क्रिकेट खिलाड़ी आम तौर पर सरकारी बैंकों में काम करते थे जबकि हॉकी खेलने वाले रेलवे, उद्योग या सेना से आया करते थे. क्रिकेट आज भले ही पहले से ज्यादा व्यापक लोकप्रियता रखता हो लेकिन जिन उत्पादों का प्रचार क्रिकेट खिलाड़ी करते हैं और क्रिकेट मैचों के दौरान लगने वाले नारों में जिस तरह अंग्रेजी का दबदबा है उससे दिखाता है कि इस खेल पर मध्यम वर्ग की छाप बरकरार है.
ग्लोबलाइजेशन के तौर-तरीके तय करने वाले अकसर दलील देते हैं कि ग्लोबल दौर में खेल मतभेदों को पाटने का एक ताकतवर जरिया हो सकता है और खेल राष्ट्रवाद एक ऐसा उपयोगी तरीका है जिसमें ग्लोबलाइजेशन के प्रभावित जनता राष्ट्रीय गर्व को अभिव्यक्त कर सकती है.
भारत में 2000 के बाद, वैश्विक अर्थव्यवस्था का लगातार हिस्सा बनने वाले (मध्यम वर्गीय) भारतीय नवउदारवादी नीतियों का समर्थन कर रहे हैं. यानी ये लोग आम जीवन में सरकारी दखल से ज्यादा निजी पहलों का समर्थन कर रहे हैं. अगर 2000 के बाद बनने वाली फिल्मों पर नजर दौड़ाई जाए तो जिस तरह से ये फिल्में बनाई गई हैं, उनमें भी यही बात झलकती है.
लगान के बाद क्रिकेट पर बनी इकबाल (2005) अगली फिल्म थी, लेकिन ऐसा नहीं लगता है कि इस फिल्म ने खेल राष्ट्रवाद को आगे बढ़ाया. इससे कहीं ज्यादा दिलचस्प है इस फिल्म की गुरु (2007) के साथ समानता. दोनों फिल्मों के हीरो ऐसे लोगों से जूझते हैं, जो अपने क्षेत्र में किसी काबिल बाहरी आदमी को मौका नहीं देना चाहते. इकबाल और गुरु, दोनों का मकसद ग्लोबल होना है और जब ये फिल्में खत्म होती हैं तो उनके हीरो अंतरराष्ट्रीय/ग्लोबल स्तर पर कामयाब हो गए होते हैं.
इकबाल के परिवार का वित्तीय रूप से बर्बाद होने से बचना बाजार की ताकत को ही दर्शाता है- फिल्म में इकबाल की प्रतिभा को स्वीकारते हुए उसे साइन करते वक्त एडवांस दिया जाता है. इस बात से नव उदारवाद को लेकर फिल्म की सहानुभूति साफ दिखती है.
बाबुओं पर निशाना
चक दे! इंडिया (2007) ने बड़ी छलांग लगाई. यह फिल्म ना सिर्फ क्रिकेट से इतर थी, बल्कि महिला हॉकी के बारे में थी. मुझे ऐसा लगता है कि इसकी कामयाबी के पीछे कुछ समय के लिए क्रिकेट से जनता का मोहभंग होना भी था. दरअसल 2007 के वर्ल्ड कप में भारतीय टीम ने बहुत लचर प्रदर्शन किया और टीम सुपर ऐट में भी नहीं पहुंच पाई थी.
चक दे! इंडिया का हीरो कबीर खान एक पूर्व हॉकी खिलाड़ी और एक कोच है. पाकिस्तान से भारतीय टीम की हार के कारण उसकी देशभक्ति पर संदेह किया जाता है. फिल्म का एक अन्य सियासी पहलू अलग-अलग राज्य की महिला खिलाड़ियों का होना था और उन्हें जीत तभी मिलती है जब उन्हें अहसास होता है कि वे “भारत के लिए” खेल रही हैं.
एक मूलभावना (जो बाद की कई फिल्मों में भी दिखी) आधिकारिक संस्थाओं की आलोचना करना है, क्योंकि सरकारी अधिकारी “सिर्फ अपने फायदे के लिए” काम करते हैं. साथ ही सरकार की तरफ से खिलाड़ियों को दिए जाने वाले फ्लैट जैसे प्रोत्साहनों को मामूली समझ कर उन पर तंज किया जाता है. यह सब इकबाल की लीक पर ही चल रहा है, जो कहती है कि बाजार की मान्यता मिलना ही सब कुछ है.
बाबूगिरी को लेकर उदासीनता का तार्किक चरमबिंदु पान सिंह तोमर (2012) में नजर आता है. यह फिल्म एक ऐसे सैनिक और सात बार के राष्ट्रीय स्टीपलचेज चैंपियन की जिंदगी पर बनी है जो बाद में एक बागी (डकैत) बन जाता है और फिर एक मुठभेड़ में मारा जाता है.
फिल्म में पान सिंह तोमर का असंतोष यह नहीं है कि उसे इंसाफ नहीं मिलता है, बल्कि यह है कि एक राष्ट्रीय नायक होने के नाते उसे प्राथमिकता क्यों नहीं दी जाती. फिल्म में नैतिक क्लाइमेक्स में हीरो अपनी वर्दी को एक पुलिसवाले से सैल्यूट कराता है. यानी देश के प्रति वफादारी होने का मतलब स्टेट के प्रति सम्मान होना नहीं है क्योंकि स्टेट भ्रष्ट है. देश के साथ सीधे ‘नायक’ के तौर पर जुड़ने से देशभक्ति बेहतर तरीके से प्रकट होती है.
सही मायनों में बात करें तो लगान एक स्पोर्ट्स फिल्म नहीं थी क्योंकि यह खेल में बेहतरीन प्रदर्शन देने के बारे में नहीं थी बल्कि यह फिल्म राजनीतिक मुक्ति के बारे में थी. सुल्तान भी स्पोर्ट्स फिल्म नहीं थी बल्कि इसे सलमान खान का दम दिखाने के लिए एक माध्यम की तरह तैयार किया गया था. इसीलिए इसमें मेलोड्रामा को शामिल किया गया, ताकि देखने वालों के मन में हीरो के लिए हमदर्दी आए.
जैसे फिल्म में सुल्तान के बच्चे की मौत हो जाती है और वह मुकाबला लड़ रहा है, ओलंपिक में गोल्ड मेडलिस्ट होने के बावजूद देश उसे भुला देता है. इस फिल्म के कुछ हिस्से 1960 के दशक में आई दारा सिंह की फिल्मों से मिलते जुलते थे, जिन्होंने दारा सिंह की महानता को पेश करने की कोशिश की.
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अकेले खेल से काम नहीं बनता
सुल्तान देश को बताती है कि लगन से कुछ भी हासिल किया जा सकता है, लेकिन इसकी ज्यादा तवज्जो सलमान खान के नए अवतार को पेश करने पर रही. लेकिन दंगल उसी श्रेणी की फिल्म है जो खेल राष्ट्रवाद को फैलाने का काम करती हैं. इसे एक बायोपिक बताया गया है- मतलब यह किसी की निजी जीवनी होगी लेकिन फिल्म में चिरपरिचित फॉर्मूला से भी कुछ हटकर है. इस श्रेणी की जिन फिल्मों का जिक्र पहले किया गया है उनमें राष्ट्रवाद के अलावा एक या दो मुद्दे और भी हैं.
चक दे! इंडिया में एक हद तक भारत में रहने वाले ऐसे सम्मानित मुसलमान की भावना को दिखाया गया है जिस पर सवाल उठाए जाते हैं. पान सिंह तोमर में ग्रामीण भारत को नजदीक से दिखाया गया है कि कैसे वहां व्यवस्था नाम की कोई चीज नहीं है. सुल्तान में अनमने ढंग से ही सही लेकिन रक्तदान की अहमियत पर जोर दिया गया है. दंगल बच्चियों के मुददे को उठाती है, जो लगातार भारत में अनदेखी का शिकार बनी हुई हैं. फिल्म का नायक अपनी बेटियों को पहलवान बनाता है.
इस दूसरे मुद्दे के अलावा दंगल में और ऐसा कुछ भी खास नहीं हो रहा है क्योंकि इसमें लोगों के बीच के संबंधों में कोई जटिलता नहीं है. दंगल की एक और रणनीति (लगान की ही तरह) है दर्शकों को असली खेल/प्रतियोगिता के विस्तृत ब्यौरे के साथ बांधे रखना ताकि देखने वाले को फिल्म का एक बड़ा हिस्सा एक सचमुच का खेल आयोजन लगे.
दंगल के बारे में पहले ही काफी कुछ लिखा जा चुका है और अब इस बारे में कुछ कहने की जरूरत नहीं है. लेकिन इसकी कहानी के कुछ अहम बिंदुओं से पाठक को इसकी कहानी के फॉर्मूला के बारे में पता चलेगा. ए.) महावीर सिंह फोगट को बेटे चाहिए लेकिन उनकी पत्नी को बेटियां ही होती हैं, बी.) लेकिन लड़ने के लिए बेटियों की क्षमता देखने के बाद वह उन्हें पहलवान बनाने की ठान लेते हैं. सी.) पहले फोगट का मजाक उड़ाया जाता है लेकिन जब स्थानीय स्तर पर लड़कियां कामयाब होने लगती हैं तो उन्हें गभीरता से लिया जाने लगा. डी.) लड़कियां नेशनल एकेडमी में भर्ती हो जाती हैं लेकिन वहां उन्हें पर्याप्त ट्रेनिंग नहीं मिलती. ई.) फोगट का धूर्त कोच और खेल से जुड़े बाबुओं से झगड़ा हो जाता है. एफ.) लड़कियां सरकार की तरफ से दिए गए कोच की ट्रेनिंग की बदौलत नहीं, बल्कि उन्होंने जो कुछ अपने बाप से सीखा उसके दम पर जीतती हैं.
नहीं चाहिए सरकारी नौकरी
दंगल में भी चक दे! इंडिया और पान सिंह तोमर की तरह स्टेट और खेल से जुड़े अधिकारियों की आलोचना की गई है. जब गीता को पदक दिया जाता है तो वह अपनी कामयाबी का श्रेय अपने पिता को देती है न कि एकेडमी को. स्टेट और उसकी तरफ से दिए जाने वाले इनाम की बेकदरी मैरी कॉम (2014) में भी दिखाई पड़ती है जब मैरी कॉम बक्सिंग चैंपियन बनने के बाद पुलिस कॉन्स्टेबल की नौकरी की पेशकश को ठुकरा देती है. बंटी और बबली (2005) का बंटी भी रेलवे की सरकारी नौकरी को करने से मना कर देता है. यह भी नवउदारवादी सिद्धांतों से सहानुभूति ही है.
स्पोर्ट्स फिल्में आम तौर पर भारत में मध्यम वर्ग को ध्यान में रखकर बनाई जा रही हैं क्योंकि उनके किरदार पहले के ‘मिडल सिनेमा’ से कहीं ज्यादा वास्तविक हैं. यही बात दंगल को सुल्तान से अलग करती है. स्पोर्ट्स फिल्मों का राजनीतिक पक्ष इसलिए मध्यम वर्ग की राजनीतिक सोच को दर्शाता है.
अगर किसी को स्पोर्ट्स फिल्म के राजनीतिक पक्ष को परिभाषित करना है तो मोटे तौर पर यह कहा जा सकता है कि उनमें दो बातें प्रमुखता से होती हैं: राष्ट्र के प्रति अपार देशभक्ति और स्टेट से मोहभंग. विरोधाभास को पाटने को लिए ये फिल्में चतुराई से यह कहने लग जाती है कि राष्ट्र खेलों में मजबूत हो रहा है. जैसा कि कहा गया, गीता फोगट की जीत राष्ट्र की जीत है.
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यह कैसी देशभक्ति
खेल देशभक्ति अलग तरह की देशभक्ति है. यह उपकार (1967) और बॉर्डर वाली देशभक्ति से अलग है. ये फिल्में खास कामों की तारीफ है (जैसे प्रगतिशील खेती करना या फिर देश के दुश्मन के साथ लड़ना) जिनका सीधा फायदा जनता को होता है, लेकिन खेलों के मामले में ऐसा नहीं है. हम इस बात पर गर्व कर सकते हैं कि हमारे देश के नागरिक ने कोई उपलब्धि हासिल की है, लेकिन सभी उपलब्धियां (कारोबार, विज्ञान और कला के क्षेत्र में भी) हमेशा देशभक्ति से प्रेरित नहीं हो सकतीं.
अगर हम इस बात पर गर्व करें कि सबसे अमीर लोगों में कुछ भारत से हैं तो क्या दौलत हासिल कर लेना देशभक्ति हो जाता है? फिल्मों में खूब दिखाया जाता है कि खेल से पैदा होने वाला जोश कैसे देश को एक कर देता है, लेकिन यह सोच कर हैरानी हो सकती है कि जिस चीज का देश की जनता को सीधा कोई फायदा न मिल रहा हो वह कैसे उसे ‘जोड़ने वाला फैक्टर’ बन सकती है.
यह उपलब्धियों की आलोचना करना नहीं है लेकिन उपलब्धि हासिल करने वाले बुनियादी तौर पर अपने आपको या जिस क्षेत्र में वे काम करते हैं उसको ही फायदा पहुंचाते हैं. कोई उपलब्धि हासिल करने वाले को देशभक्त तभी कहा जा सकता है जब वह अपने देश वासियों की भलाई के लिए कोई काम करे. जैसे कि खिलाड़ी नए खिलाड़ी तैयार करने के लिए एकेडमी खोल सकते हैं और वे इससे आर्थिक फायदा कमाने की न सोचें.
मध्य वर्ग को जकड़ने वाले खेल राष्ट्रवाद के साथ आम लोगों की भलाई का पहलू नहीं जुड़ा है और यही इसकी सबसे बड़ी कमी है. यह सिर्फ किसी व्यक्ति के लिए दुनिया के मंच पर पहचान पाने का जरिया है. इस तरह, यह खेल में किसी क्लब के प्रति वफादारी होने से ज्यादा अलग नहीं है, जैसे कि आर्सेनल या मोहन बागान का समर्थक होना. देशभक्ति स्टेट की अवमानना या उसका अनादर नहीं हो सकती.
जैसा कि लगान के बाद बनने वाली ज्यादातर स्पोर्ट्स फिल्मों में दिखाया गया है. जिस देशभक्ति को नवउदारवाद से खतरा हो, वह सच्ची देशभक्ति नहीं हो सकती क्योंकि यह सबके विकास की बात को लेकर नहीं चलती. भारतीय स्टेट भले आज जैसे भी काम कर रहा हो, लेकिन शायद सिर्फ यही स्टेट एक समावेशी राष्ट्र का निर्माण कर सकता है.
(एमके राघवेंद्रा स्वर्ण कमल विजेता फिल्म विद्वान हैं और द ऑक्सफोर्ड इंडिया शॉर्ट इंट्रोडक्शन टू बॉलीवुड (2016) के लेखक हैं.)
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