बाल ठाकरे महाराष्ट्र के राजनीति के एक कद्दावर नेता थे जिनके एक इशारे पर पूरा महाराष्ट्र अपने घुटनों पर आ जाता था. महाराष्ट्र के राजनीतिक पार्टी शिव सेना का गठन करने वाले बाल ठाकरे की तूती हर पार्टी में बोलती थी. हर पार्टी का कोई भी बड़ा नेता जब भी मुंबई आता था बाल ठाकरे के मातोश्री में हाजिरी देना उसके लिए अनिवार्य था. आज कल बायोपिक फैशन में है और बीते कुछ सालों में बॉलीवुड में इसकी झड़ी लग गयी है. परेशानी इस बात की है की इनमें से कुछ गिने चुने ही अपने विषय के साथ न्याय कर पाए है. ठाकरे भी उन फिल्मों की जमात में जुड़ गयी है जिनके साथ न्याय नहीं हो पाया है. निर्देशक अभिजीत पानसे के निर्देशन को देखकर लगता है की वो ठाकरे की इमेजरी से अभिभूत है .कम शब्दों में कहे तो बाल ठाकरे की शख्सियत से आदर कम और भय ज्यादा निकलता था. लेकिन अगर आप ठाकरे की जीवनी फिल्मी परदे पर देखने को उत्सुक है तो ये बात तय है कि आपको निराशा ही हाथ लगी है. बड़ी ही बेदर्दी से बाल ठाकरे जीवन पर लीपा पोती की गयी है. ठाकरे को एक प्रोपैगैंडा फिल्म कहना ज्यादा बेहतर होगा.
ठाकरे, बाल ठाकरे के अनछुये पहलुओं को ना दिखाकर उनको श्रद्धांजलि देती है
ठाकरे फिल्म पूरी तरह से बाल ठाकरे को समर्पित एक श्रद्धांजलि है. ठाकरे की कहानी शिव सेना सुप्रीमो बाला साहब ठाकरे के बारे में है जब उनका उदय महाराष्ट्र के राजनीति पटल में 60 और 70 के दशक में हुआ था. फिल्म में उनको दक्षिण भारतीय और मुस्लिम समुदाय के खिलाफ दिखाया गया है. फिल्म में उनके 1993 के मुंबई धमाकों में उनके रोल को भी दिखाती है और बात करती है उनके एक लंबे कानूनी लड़ाई की. इस फिल्म में ये बताने की कोशिश की गयी है की ठाकरे जैसा कोई दूसरा नहीं हो सकता है. बाल ठाकरे के हर एक्शन को फिल्म में जस्टिफाई करने की कोशिश की गयी है जिसको देखने में बेहद अटपटा लगता है. फिल्म की शुरुआत होती है 90 के दशक में जब मुंबई के दंगों और बाबरी मस्जिद के ढहने में ठाकरे के हाथ को लेकर अदालत में इनको तलब किया जाता है. उसके बाद फिल्म फ्लैशबैक में जाती है और ठाकरे के एक कद्दावर नेता बनने के सफर की बात करती है. बतौर कार्टुनिस्ट ठाकरे ने और करियर की शुरुआत की थी और कुछ समय के बाद ही महाराष्ट्र की राजनीति में वो दखल देना शुरू कर दिया था. इन सभी को फिल्म में छोटी छोटी घटनाओं के माध्यम से दिखाया गया है.
अभिजीत पानसे ने शिवसेना के लिए एक प्रोपेगैंडा फिल्म बनाई है
इस बात में कोई शक नहीं है की निर्देशक अभिजीत पानसे की मेहनत फिल्म में साफ नजर आती है लेकिन उनके निर्देशन की सबसे बड़ी खामी यही है कि वो इस बात को दर्शकों तक पहुंचने में नाकामयाब रहे है की आखिर बाल ठाकरे ने इस तरह का सफर क्यों चुना. क्यों का जवाब इस फिल्म में आपको नहीं मिल पाएगा. अभिजीत पानसे ने बाल ठाकरे की शख्सियत को सिर्फ बहार से ही टटोलने की कोशिश की है. फिल्म खत्म होती है उस दौरान जब 1995 में सेना और बीजेपी की साझा सरकार बनी थी, मनसे के गठन को फिल्म से बड़े ही प्यार से निकाल दिया गया है.
नवाज़ुद्दीन का अभिनय फिल्म मे इन्कन्सीस्टेन्ट है
नवाज़ुद्दीन की मेहनत फिल्म के हर फ्रेम में दिखाई देती है लेकिन पुरजोर कोशिश के बावजूद ठाकरे के करिश्मा को नवाज़ुद्दीन परदे पर ट्रांसलेट करने में सक्षम नजर नहीं आते है. नवाज़ुद्दीन के अभिनय की धार फिल्म के कुछ एक सीन्स में ही निकल कर बाहर आयी है. ठाकरे के किरदार के ग्राफ में वो इन्कन्सीस्टेन्ट नजर आयें है. कुछ वही हाल मीना ताई की भूमिका में अमृता राव का है. ये पहले से ही निश्चित था की अमृता राव के लिए फिल्म में करने को कुछ ज्यादा नहीं होगा और फिल्म देखने के बाद ये बात साबित भी हो जाती है. ये फिल्म पूरी तरह से उन लोगों के लिए है जो नेता ठाकरे से प्रेम करते है ना की उनके लिए जो उनके जीवन के अन छुए पहलुओं को जानना चाहते है. आखिर तथ्यों के साथ छेड़ छाड़ करने की भी कोई हद होती है. ज्यादा लीपा पोती अच्छी बात नहीं है. लेकिन चुनाव के साल में सब कुछ माफ है.
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