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मंटोस्तान मूवी रिव्यूः घटिया प्रोडक्शन की भेंट चढ़ गईं मंटो की अमर कहानियां

मंटो की कहानियों का संदर्भ और खूबसूरती इस घटिया प्रोडक्शन में पूरी तरह से खो गयी है.

Updated On: May 08, 2017 06:28 PM IST

Anna MM Vetticad

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मंटोस्तान मूवी रिव्यूः घटिया प्रोडक्शन की भेंट चढ़ गईं मंटो की अमर कहानियां

अगर कोई फिल्म सआदत हसन मंटो की भारत-पाक विभाजन पर लिखी गई शॉर्ट स्टोरीज पर बनी हो तो बिना कहे यह बात मानी जा सकती है कि इसके पीछे अच्छा मकसद रहा होगा.

विभाजन के वक्त की भयावहता को बयां करने वाली मंटो की कहानियां की दशकों बाद आज भी लोगों के दिलो-दिमाग को झकझोरने की काबिलियत रखती हैं.

लेकिन, सिनेमा के बारे में जानकारी रखने वाला हर शख्स यह जानता है कि अच्छे मकसद का मतलब यह नहीं होता है कि फिल्म भी उतनी ही जानदार और बढ़िया होगी. दूसरी फिल्मों के जैसे इसके लिए भी एक स्किल्ड टीम की जरूरत होती है.

मंटो की खोल-दो, ठंडा गोश्त, असाइनमेंट और आखिरी सैल्यूट पर बेस्ड लेखक-निर्देशक राहत काजमी की मंटोस्तान के बारे में बस यही चीज कही जा सकती है कि उन्होंने इसे अच्छी तरह बनाने की कोशिश जरूर की है.

जिन लोगों ने मंटो को अभी तक नहीं पढ़ा है उनके लिए इन कहानियों की एक छोटी झलक यहां दी जा रही है. मंटो की कहानियां सबको पढ़नी चाहिए.

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मंटो की कहानियों की खूबसूरती इस घटिया प्रोडक्शन में पूरी तरह से खो गयी है.

मंटो की यादगार कहानियां

मंटो की ‘खोल दो’ एक पिता की कहानी है. विभाजन की मार झेलने वाले अपने कस्बे को छोड़कर भागने के दौरान इस पिता की बेटी गुम हो जाती है और वह उसे ढूंढता है.

'ठंडा गोश्त' एक भाड़े पर दंगा करने वाले की कहानी है. 'असाइनमेंट' एक मुस्लिम जज और एक सिख के रिश्तों की गर्माहट और आपसी इज्जत की कहानी है जिसमें विभाजन की मारकाट से तल्खी आ जाती है और 'आखिरी सैल्यूट' आर्मी के ऐसे दोस्तों की कहानी है जिसमें दो नए मुल्क बनने के दौरान वे सीमा के अलग-अलग तरफ आ जाते हैं.

फिल्मी रूपांतरण के लिहाज से देखा जाए तो मंटोस्तान मंटो के रास्ते पर ही चलती है. लेकिन इसमें इन चारों कहानियों को अलग-अलग एक के बाद एक नहीं दिखाया गया है.

इसके बजाय इसमें एक कहानी का एक हिस्सा, फिर दूसरी कहानी का एक हिस्सा...फिर तीसरी और फिर चौथी का एक हिस्सा करके दिखाया गया है. ऐसा करने का तब तो कोई मतलब बनता था अगर इससे किसी अलग व्याख्या को जन्म मिलता लेकिन ऐसा हुआ नहीं.

चूंकि ऐसा हुआ है तो इसकी वजह यह नहीं है कि काजमी इस काम के लिए योग्य नहीं हैं.

यह फिर भी झेला जा सकता था अगर प्रोडक्शन इतनी घटिया क्वॉलिटी का नहीं होता. मंटो की कहानियों में खुद को डूबा देने का पूरा आनंद इस फिल्म की चौतरफा नाकामी की वजह से खत्म हो गया.

फिल्म का निर्देशन कमजोर रहा है, स्पेशल इफेक्ट्स दोयम दर्जे के हैं. कास्ट में एक्स्ट्रा लोग भावहीन रहे हैं और फिल्म के लीडिंग रोल्स में मौजूद ज्यादातर कलाकारों के साथ भी ऐसा ही है.

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बुरा प्रोडक्शन

मीडिया इंटरव्यू में निर्देशक ने बताया है कि मंटोस्तान को पंजाब और जम्मू की लोकेशन पर फिल्माया गया है. अजीब सी फ्रेमिंग, लाइटिंग जैसी चीजों ने यह पुख्ता किया कि हालांकि...फिल्म में सबकुछ एक सेट जैसा है लेकिन यह एक बेहद बुरा सेट है.

दोयम दर्जे की इस पूरी फिल्म में एक जज के तौर पर वीरेंद्र सक्सेना और एक असहाय पिता के तौर पर रघुवीर सहाय ने अपनी अदाकारी से कुछ हद तक अपनी प्रतिष्ठा बचाने में कामयाबी हासिल की है.

हालांकि, यह नहीं कहा जा सकता है कि उनका अभिनय बेहतरीन है. निश्चित तौर पर ऐसा नहीं है और इस तरह की निचली दर्जे की फिल्म में किसी एक्टर का काम बेहतरीन नहीं हो सकता है. लेकिन बाकी कलाकारों के मुकाबले ये उतना निराश नहीं करते.

इन दिग्गजों को छोड़कर मंटोस्तान में जिस एक कलाकार का जिक्र किया जा सकता है वह हैं सोनल सहगल. वह विभाजन के बाद मचे हाहाकार में जघन्य अपराध करने वाले एक शख्स की प्रेमिका बनी हैं.

यहां फिर यह बात कही जा सकती है कि सोनल का यह बेस्ट परफॉर्मेंस नहीं है लेकिन यह उनके टैलेंट को दिखाता है. इससे पता चलता है कि उनमें अदाकारी का गुण है लेकिन मंटोस्तान जैसी अपरिपक्व फिल्म के मुकाबले उन्हें अच्छी फिल्में मिलनी चाहिए.

वह इससे पहले हिमेश रेशमिया के प्रोजेक्ट्स में भी काम कर चुकी हैं जिनमें हो सकता है उन्हें ज्यादा पैसा मिला हो.

मंटो का लेखन हमारे वुरे वक्त में उतना ही प्रासंगिक है जितना तब था जब वह जीवित थे. इनका संदर्भ और खूबसूरती इस घटिया प्रोडक्शन में पूरी तरह से खो गयी है.

डायरेक्टरः राहत काजमी कास्टः वीरेंद्र सक्सेना, रघुवीर यादव, सोनल सहगल, शोएब निकश शाह, तारिक खान, राहत काजमी रेटिंगः 0.5 (5 स्टार में से)

(नोटः हमारा सॉफ्टवेयर 1 स्टार से कम की इजाजत नहीं देता. हमारे क्रिटिक ने इस फिल्म को 0.5 स्टार रेटिंग दी है.)

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